Friday, 13 July 2018



राष्‍ट्रगीत को लिखने वाले इस महान रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्‍याय का जन्म 1838 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना के कंठालपाड़ा, नैहाटी में एक परिवार में हुआ था. बंगाल के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1857 में बीए की डिग्री लेने वाले बंकिम चंद्र पहले भारतीय थे. इन्होने 1869 में कानून की डिग्री प्राप्त की. शिक्षा ख़त्म होने के बाद यह डिप्‍टी मजिस्‍ट्रेट बने. इनकी 1891 में सरकारी सेवा ख़त्म हुई. उसके बाद इन्होने पहली रचना ‘राजमोहन्स वाइफ’ लिखी. यह रचना अंग्रेजी में प्रकाशित की गई थी. इनकी बांग्‍ला कृति ‘दुर्गेशनंदिनी’ 1865 में छपी थी. यह इनकी एक रोमानी रचना थी. इन्होने कई सारे उपन्यास लिखे जैसे, ‘आनंदमठ’, ‘कपालकुंडला’, ‘मृणालिनी’, ‘राजसिंह’, ‘विषवृक्ष’, ‘कृष्णकांत का वसीयतनामा’, ‘सीताराम’, ‘राधारानी’, ‘रजनी’ और ‘इंदिरा’ इनके प्रमुख साहित्य है.

वंदे मातरम को इन्होने कई साल पहले कविता के रूप में लिखा था. जिसके बाद उन्होंने इसको ‘आनंदमठ’ उपन्‍यास का हिस्‍सा भी बनाया. कुछ दिन बाद ही ‘वंदे मातरम्’ गीत को राष्‍ट्रवाद का प्रतीक माना जाने लगा. 1894 में बंकिम चंद्र का निधन हो गया. जिसके बाद बिपिन चंद्र पाल ने ‘वंदे मातरम्’ नाम से एक राजनीतिक पत्रिका निकाली गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने इनके गीत के लिए धुन भी बनाई. आपको बता दे बिपिन चंद्र पाल के बाद लाला लाजपत राय ने भी इसी नाम से एक और पत्रिका निकाली.

1937 में इस गीत को स्वीकार किया गया. लेकिन इस गीत के सिर्फ दो छंदों को ही राष्‍ट्रीय गीत के रूप में स्‍वीकारा गया. राजेंद्र प्रसाद ने भारत की आजादी के बाद 24 जनवरी 1950 में इसे भारत का राष्‍ट्रीय गीत देने की घोषणा की. हेमेन गुप्ता ने इसी उपन्यास पर 1952 में एक फिल्म भी बनाई. चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम (1886) था.

वंदे मातरम को खरा सोना कहने वाले गांधी के लिए बाद में यह गीत मिट्टी जैसा क्यों हो गया था?

सत्याग्रह डॉट कॉम में उनके जन्म दिन पर प्रकाशित आलेख के अनुसार यह किस्सा 1770 और इसके इर्द-गिर्द के वक्त को याद करते हुए लिखा गया था बंगाल में भारी अकाल के हालात थे. उस जमाने में बंगाल की हुकूमत निष्ठुर हो चुके मुस्लिम नवाबों और ईस्ट-इंडिया कंपनी के गठबंधन पर टिकी थी. इसका विरोध करते हुए वहां के संन्यासियों ने एक आंदोलन खड़ा कर दिया.

महेंद्र सिंह अपनी पत्नी और बेटी के साथ गांव छोड़कर शहर के लिए चलता है, लेकिन रास्ते में उनसे बिछड़ जाता है. अंग्रेज सिपाही उसे लुटेरा समझ एक सन्यासी भावानंद के साथ पकड़ लेते हैं. लेकिन भावानंद के सहयोगियों की मदद से दोनों जल्द ही मुक्त हो जाते हैं. अब भावानंद आगे-आगे चल रहे हैं और महेंद्र सिंह उनके पीछे. चांदनी रात में भावानंद गाना शुरु करते हैं,

‘वंदे मातरम!

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम

शस्यश्यामलां मातरम...’

वंदे मातरम का सबसे पहला जिक्र बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित उपन्यास ‘आनोंदोमोठ’ या ‘आनंदमठ’ में इसी जगह मिलता है. हालांकि बताया जाता है कि इस गीत के पहले दो छंद उन्होंने 1872 से 1875 के बीच ही लिख लिए थे. लेकिन इन्हें सबसे पहले 1881 में आनंदमठ के हिस्से के तौर पर ही प्रकाशित किया गया था. यह गीत आगे चलकर राष्ट्रवादी आंदोलनों का प्राण मंत्र बन गया. वंदेमातरम् जैसी अद्भुत रचना के लिए क्रांतिकारी अरविंद घोष ने बंकिम चंद्र चटर्जी को ‘राष्ट्रवाद का ऋषि’ जैसी उपमा दी थी.

जब वंदे मातरम छात्र, मजदूर और क्रांतिकारियों तीनों की जुबान पर चढ़ गया

अपनी किताब ‘वंदे मातरम : एक गीत की जीवनी’ में सव्यसाची भट्टाचार्य लिखते हैं, ‘1905 तक वंदे मातरम राष्ट्रवादियों के लिए नारा बन चुका था. अनेक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी खुद इसे अपना मंत्र बताते थे.’ बताते हैं कि 1907 में ढाका मजिस्ट्रेट ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें लिखा था, ‘वंदे मातरम पूर्वी बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारी संगठनों का प्रमुख नारा था. हालांकि कभी-कभी ये लोग भारत माता की जय भी बोलते थे, लेकिन संगठन का सदस्य बनने के लिए किसी भी नवआगंतुक को वंदे मातरम की ही शपथ लेनी पड़ती थी.’

जिक्र मिलता है कि जब विद्रोही लेखन और एक बमकांड के आरोप में अरविंद घोष पर मुकदमा चला तो वे और उनके कई साथी अदालत में वंदे मातरम का घोष करते थे. क्रांतिकारी खुदीराम बोस को जब 1908 में एक जज की हत्या करने की कोशिश के जुर्म में फांसी की सजा मिली थी तो उन्होंने अपने बयान की शुरुआत वंदे मातरम से ही की थी. ऐसे ही एक और क्रांतिकारी प्रद्योत भट्टाचार्य को 1932 में एक जज के क़त्ल के आरोप में फांसी दी गयी तो उन्होंने भी अपने आखिरी संदेश का समापन वंदे मातरम से ही किया था.

यह वह दौर था जब क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों और मजदूरों के दिलों में पल रहा आक्रोश भी वंदे मातरम के उद्घोष के रूप में परवान चढ़ने लगा था. 1905 में कलकत्ता के पास बनी एक मिल में मजदूरों की हड़ताल हुई. विरोध के दौरान वंदे मातरम का नारा लगाते दो मजदूरों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. यह बात वहां काम करने वाले नौ हजार से भी ज्यादा मजदूरों को इतनी नागवार गुज़री कि उन्होंने उसी शाम मिल के सामने इकठ्ठे होकर वंदे मातरम का नारा लगाया.

दूसरी तरफ छात्र आंदोलनों में भी वंदे मातरम का नारा युवा खून में उबाल ला रहा था. इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने गरम दल के प्रमुख नेता विपिन चंद्र पाल को जिम्मेदार ठहराया. अप्रैल 1907 में मद्रास प्रेसिडेंसी के एक कॉलेज में वंदे मातरम कहने के जुर्म में कुछ छात्रों की गिरफ्तारी हुई. इसके विरोध में विपिन चंद्र वहां पहुंचे और छात्रों को संबोधित किया. प्रभावित होकर संस्थान के अधिकतर विद्यार्थियों ने प्रशासन के खिलाफ बगावत कर दी. वहां के जनशिक्षा विभाग के निदेशक का कहना था कि यदि विपिन चंद्र छात्रों के नाजुक मन पर अपना प्रभाव नहीं डालते तो हालात काबू में आ जाते.

मुस्लिम लीग और वंदेमातरम का विरोध

जहां एक तरफ वंदे मातरम का उद्घोष पूरे देश में क्रांति का सैलाब तैयार कर रहा था, वहीं मुस्लिम लीग इस नारे के कड़े विरोध में थी. लीग का कहना था कि आनंद मठ की विषय-वस्तु मुस्लिम विरोधी है. हालांकि आनंद मठ का कथानक हिंदू-मुस्लिम के आपसी बैर से कहीं ज्यादा शोषक के प्रति शोषित के आक्रोश के इर्द-गिर्द बुना गया था. और उसमें भी खासतौर पर वंदेमातरम का विशेष हिस्सा जिसे राष्ट्रगान के तौर पर अपनाए जाने की बात चल रही थी, आपसी वैमनस्य से कहीं दूर था. लेकिन इस बात को दरकिनार करते हुए कट्टर मुस्लिम संगठनों ने इस बात को बड़ा मुद्दा बना लिया था.

सव्यसाची अपनी किताब में एक जगह जिक्र करते हैं कि मुस्लिम प्रेस की राय के मुताबिक बंकिम मुसलमानों से नफ़रत करते थे और उन्होंने अपनी घनघोर सांप्रदायिक घृणा के कारण एक बड़े समुदाय को हमेशा के लिए अलग-थलग कर दिया. सव्यसाची के मुताबिक उस दौर की मुस्लिम प्रेस का यह भी मानना था कि बंकिम चंद्र चटर्जी की रचनाओं में मुसलमानों को कलंकित किया गया है. इसका असर यह हुआ कि मध्यमवर्गीय मुसलमानों के ज़हन में उनके लिए नफ़रत बढ़ती चली गयी. बंकिम को मुस्लिम विरोधी साबित करने के लिए बार-बार उनके साहित्य के उन्हीं हिस्सों को सामने लाया जाने लगा जो आपत्तिजनक थे.

लेकिन बुद्धिजीवी मुसलमान लीग की इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे. उन्हें लगता था कि इस सारी साजिश के पीछे अंग्रेजों का हाथ है जो दोनों मजहबों के बीच दीवार खींचना चाहते थे. उस जमाने में (1938) एक बड़े कांग्रेसी नेता रफी अहमद किदवई ने कहा था, ‘वंदे मातरम वर्षों से कांग्रेस के अधिवेशन की शुरुआत में गाया जाता रहा है और मुसलमानों ने इसका विरोध महज 1930 से करना शुरु किया है.’ उनके द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में आगे कहा गया था, ‘जनाब जिन्ना ने कांग्रेस इसलिए नहीं छोड़ी थी कि वंदे मातरम गीत इस्लाम विरोधी है. बल्कि उनके कांग्रेस छोड़ने के पीछे कारण यह था कि उन्हें स्वराज की अवधारणा स्वीकार नहीं थी.’

1930 के दशक में बंगाल के नामी लेख़क रीजाउल करीम ने वंदे मातरम और आनंदमठ की समीक्षा करते हुए लिखा था कि इस (वंदे मातरम) मुद्दे पर अंग्रेजों की शह पर मुस्लिम लीग जो कर रही थी उसका मुख्य कारण था मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम से बाहर निकालना और इस तरह आजादी के आंदोलन की एकता पर चोट करना. उन्होंने लिखा, ‘इस गीत ने गूंगों को जबान और कलेजे के कमजोर लोगों को साहस दिया... और इस रूप में बंकिमचंद्र ने देशवासियों को एक चिरकालिक उपहार दिया था. बहुत से लोगों ने उन्हें (बंकिम) सांप्रदायिक अथवा मुस्लिम विरोधी बताया है, लेकिन बंकिम के व्यक्तित्व के जिस अंश को मुस्लिम विरोधी बताया जाता है, वह मेरे जानते उनकी अपनी पहचान नहीं है. यह उनके युग का चित्र है. वे जिस समय में रह रहे थे, उसका चित्र है और इस बात के लिए एक लेखक को माफ कर देना चाहिए. दूसरी बात, यदि बंकिमचंद्र मुस्लिम विरोधी थे तो क्या इससे उनका साहित्यिक महत्व कम हो जाता है?’

रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी की इस गीत के प्रति राय

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वंदे मातरम लिखा भले ही बंकिम चंद्र ने था, लेकिन इसे सबसे पहले गाने वाले जन-गण-मन के रचियता रवींद्रनाथ टैगोर थे. बताया जाता है कि टैगोर ने इस गीत के पहले अंतरे को 1896 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता वाले अधिवेशन में अपने स्वर दिए थे और वे इसे अपना सौभाग्य मानते थे. इस बात का जिक्र रवींद्रनाथ टैगोर ने 1937 में जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में किया है. यह पत्र उन्होंने वंदे मातरम पर मुस्लिम लीग के कड़े विरोध के चलते नेहरू द्वारा उनके विचार पूछने पर लिखा था.

इस पत्र में टैगोर ने लिखा, ‘मैं गीत के पहले दो अंतरे पूरी तरह स्वीकार करने के पक्ष में हूं... होनहार युवकों के विस्मयकारी बलिदान से जुड़कर यह गीत राष्ट्रीय गीत में बदल गया है... मैं इस बात को मुक्तभाव से स्वीकार करता हूं कि बंकिम की पूरी वंदे मातरम कविता अगर अपने संदर्भ के साथ पढ़ी जाए, तो इसकी व्याख्या इस तरह से हो सकती है कि उससे मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचे, लेकिन इसी कविता के स्वत: स्फूर्त भाव से निकला हुआ राष्ट्रीय गीत जिसमें मूल कविता के दो अंतरे भर हैं, हमें हमेशा पूरी कविता की याद नहीं दिलाता और उस कथा की याद तो शायद ही आती है, जिसका इसके साथ आकस्मिक रूप से जुड़ाव हो गया. इस कविता ने अलग से अपनी निजता तथा प्रेरणाप्रद महत्व प्राप्त कर लिया है जिससे मुझे नहीं लगता कि किसी संप्रदाय या समुदाय को चोट पहुंचती हो.’

इस पत्र का जिक्र करते हुए सव्यसाची भट्टाचार्य लिखते हैं कि टैगोर ने कविता के निजी अर्थ और उपन्यास के संदर्भ के बीच पैदा होने वाले अर्थ के बीच अंतर किया. कोई रचना लोगों की कल्पना में जो महत्व इख्तियार करती है और मूल संदर्भ में उसका जो महत्व होता है, टैगोर ने इसके बीच भी भेद किया. जाहिर था इस पत्र के बाद जवाहर लाल नेहरू की दुविधा कम हुई और इस गीत को लेकर जो निर्णायक समिति बनी उसका प्रस्ताव खुद नेहरू ने तैयार किया.

नेहरू ने लिखा, ‘वंदे मातरम शक्ति का नारा बन गया है जिससे हमारी जनता को प्रेरणा मिलती है. यह अभिवादन का मुहावरा बन गया है जो हमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अपने संघर्ष की याद दिलाता है... गीत के दो अंतरे धीरे-धीरे (बंगाल से) शेष प्रांतों में फैल गए और इनके साथ एक राष्ट्रीय महत्व जुड़ गया. गीत का बाकी हिस्सा कभी-कभार ही उपयोग में आता है... इन दो अंतरों में भावपूर्ण भाषा में मातृभूमि के सौंदर्य तथा उके वैभव का वर्णन किया गया है... यह गीत किसी समूह अथवा समुदाय को चुनौती देने के लिए हिंदुस्तान में कभी नहीं गाया गया, न ही इसको इस रूप में देखा गया अथवा माना गया कि इससे किसी समुदाय की भावनाओं को चोट पहुंचेगी...कांग्रेस ने कभी भी इस गीत को अथवा किसी दूसरे गीत को भारत के राष्ट्र गान के रूप में स्वीकार नहीं किया, लेकिन गीत की लोकप्रियता के कारण उसे विशेष तथा राष्ट्रीय महत्व हासिल हो गया...’

नेहरू ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी भी इस गीत के बारे में लगभग वही सोच रहे थे जैसा टैगोर ने लिखा था. 1915 में मद्रास की एक सभा में गांधी उपस्थित थे जिसकी शुरुआत वंदे मातरम के साथ हुई. तब इस गीत से प्रभावित हुए गांधी ने कहा था, ‘आपने जो सुंदर गीत गाया उसे सुनकर हम सब एकदम उछल पड़े. कवि ने मातृभूमि की व्यंजना के लिए हर संभव विशेषणों का प्रयोग किया है. अब यह हम-आप पर है कि कवि ने मातृभूमि के बारे में जो कहा है उसे साकार करने की कोशिश करें.’

लेकिन अगले 30 साल में हालात बिगड़ते गए. जहां मुस्लिम लीग इस गीत का जमकर विरोध कर रही थी, वहीं कुछ अतिवादी हिंदू, मुसलमानों के खिलाफ वंदे मातरम का आपत्तिजनक इस्तेमाल करने लगे थे. इसे देखते हुए जुलाई 1939 में गांधी ने अपने अखबार ‘हरिजन’ में एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने कहा, ‘वंदे मातरम एक शक्तिशाली युद्धघोष है और मैं अपनी नौजवानी के दिनों में इस गीत से अभिभूत था... मुझे कभी नहीं लगा कि यह एक हिंदू गीत है अथवा इसे सिर्फ हिंदुओं के लिए रचा गया है. दुर्भाग्य से हम अब दुर्दिन में जी रहे हैं. सारा तपा-तपाया खरा सोना आजकल मिट्टी सा हो गया है. ऐसे समय में बुद्धिमानी यही है कि इसे खरे सोने के भाव नहीं मिट्टी के ही मोल बेचा जाए. किसी मिली-जुली सभा में वंदे मातरम को गानेे के सवाल पर मैं तनिक भी झगड़ा मोल नहीं लेना चाहता... यह गीत कभी निस्पंद नहीं हो सकता. यह करोड़ों के हृदय में अंकित हो चुका है.’

गांधी जानते थे कि वंदे मातरम का चाहे जितना विरोध हो जाए लेकिन राष्ट्रीय आंदोलनों का प्रमुख गवाह और हिस्सेदार रहा यह गीत भारतीय समाज के जेहन में सदा-सदा के लिए अमर हो चुका था. इस गीत की सर्वकालिक व्यापकता ही थी कि इसे रचे जाने के करीब 125 वर्ष बाद 2002 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के एक सर्वे में उसके 25000 श्रोताओं ने वंदे मातरम को हिंदुस्तान के दो मशहूर गीतों में से एक माना.

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