Saturday, 28 July 2018

जातियां , आरक्षण और भारत विखंडन
भारत वर्ष में एक समय प्रबुद्ध हिन्दू मन "स्वदेशी" "हिन्दू" व "राष्ट्रीय" को एक ही समझता था। उसकी यह दृष्टि ब्रिटिश शासकों से छिपी न रह सकी। 1880 में सर जान सीले ने इंग्लैंड में एक भाषण माला में स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया कि भारत में राष्ट्रीयता की आधारभूमि हिन्दू समाज में ही विद्यमान है अत: भारत में ब्रिटिश शासन के स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि हिन्दू मन की सामाजिक विजय के उपाय खोजे जाएं।
सर जान सीले की प्रसिद्ध पुस्तक "एक्सपेंशन आफ इंग्लैंड" के इन अंशों को प्रसिद्ध देशभक्त लाला हरदयाल ने "सोशल कान्क्वेस्ट आफ हिन्दू रेस" शीर्षक से प्रकाशित किया था।
1945 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संघ-स्वयंसेवकों को यह पुस्तक आग्रहपूर्वक पढ़वायी जाती थी।
ब्रिटिश शासकों की यह विशेषता रही है कि वे किसी समस्या का गहरा अध्ययन कर एक दूरगामी रणनीति तैयार करते थे। वे समझते थे कि किसी देश की सामाजिक विजय के लिए आवश्यक है कि उनके मन-मस्तिष्कों को बदला जाए, उनके मस्तिष्क-बोध को घायल किया जाए, उनकी इतिहास दृष्टि को विकृत किया जाए अर्थात् सामाजिक विजय के पूर्व उसकी बौद्धिक आधारशिला निर्माण की जाए। इस दृष्टि से उन्होंने हिन्दू समाज की रचना का सूक्ष्म अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि हिन्दू समाज का ऐतिहासिक विकास वर्ण और जनपद के आधार पर हुआ है।
इतिहास द्वारा प्रदत्त वर्ण और जनपद चेतना की जड़ें हिन्दू मानस में गहरी जमी हैं।
जाति, क्षेत्र व भाषा की यह विविधता हिन्दू समाज जीवन का दृश्यमान यथार्थ है। उन्होंने यह भी देखा कि इस ऊपरी विविधता के नीचे सामाजिक‚, भौतिक एवं सांस्कृतिक एकता का एक अखिल भारतीय शक्तिशाली अंतप्रवाह भी विद्यमान है, जो आधुनिक परिभाषा की राष्ट्रीयता की आधारभूमि प्रदान करता है ।
संचार, परिवहन और विचार प्रसारण के आधुनिक साधनों का उपयोग कर यह अखिल भारतीय सांस्कृतिक अन्तप्र्रवाह धीरे-धीरे राजनीतिक धरातल पर भी प्रगट हो सकता है ।
अत: ब्रिटिश नीति का लक्ष्य बन गया-जाति और जनपद की संकुचित चेतना का अखिल भारतीय राष्ट्रीय चेतना में उन्नयन होने से रोकना, इन संकुचित निष्ठाओं को उत्तरोत्तर गहरा करते हुए उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाना, उनमें एक दूसरे के प्रति शत्रुभाव पैदा करना। एकता के सूत्रों को दुर्बल करना और भेद भावना को सुदृढ़ करना।
इसकी बौद्धिक आधारशिला तैयार करने के लिए उन्होंने नवोदित आर्य आक्रमण सिद्धान्त का पूरा-पूरा उपयोग किया।
1880 में एक ओर तो सर जान स्ट्रेची ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "इंडिया" में लिखा कि भारत कोई देश या राष्ट्र नहीं है, वह मात्र एक भूखण्ड है, जिस पर एक दूसरे से पूरी तरह असम्बद्ध जातियों, भाषा-भाषी, उपासना पद्धतियों एवं नस्लों के लोग वास करते हैं ।
उसी समय सर विलियम हंटर ने भारत के गजेटियर के लिए "भारत" पर एक लम्बा निबन्ध लिखा जिसमें आर्य आक्रमण सिद्धान्त का उपयोग करते हुए कहा गया कि पहले हम भारत में "हिन्दू और मुसलमान" जैसी केवल दो जातियों का ही अस्तित्व देखते थे पर अब गहरा अध्ययन करने से हम जान पाए हैं कि भारत में चार अलग-अलग मनुष्य समूहों का वास है।
हंटर ने उपासना पद्धति के आधार पर मुसलमानों को तो एक अलग नस्ल मान लिया जबकि हिन्दू समाज को नस्ल के आधार पर तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया। यही हंटर साहब हैं, जिन्होंने वायसराय लार्ड मेयो के आदेश पर भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध एंग्लो-मुस्लिम गठबंधन का बौद्धिक पुल तैयार करने के लिए 1871 में "इंडियन मुसलमान्स" नामक महत्वपूर्ण रचना लिखी थी ।
इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दू समाज के भीतर जो कृत्रिम विभाजन रेखाएं हंटर ने 1880 में खींची थीं वे स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष बाद भी भारत में मिटने के बजाय और गहरी हुई हैं। सवर्ण या कास्ट हिन्दू, अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग या जातियां हंटर द्वारा खींची गयीं विभाजन रेखाओं पर आधारित हैं।
यह जानने के बाद भी कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के बीच भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक एवं जीवनशैली की दृष्टि से कुछ भी समान नहीं है। स्वाधीन भारत इन दो सर्वथा भिन्न जनसमूहों को एक ही अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग की रस्सी से बांध कर चलता रहा ।
किन्तु आर्य आक्रमण सिद्धान्त आज भी अन्य पिछड़े वर्गों या जातियों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पृथकतावादी चिन्तन व लेखन का मुख्य बौद्धिक अधिष्ठान है।
जाति, जनपद और भाषा की संकुचित चेतनाओं को गहरा करने और उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने में मुख्य भूमिका निभाई ब्रिटिश जनगणना नीति ने , 1864-65 से कुछ प्रान्तों में प्रारम्भ हुई जनगणना को ब्रिटिश शासकों ने 1871 में अखिल भारतीय दसवर्षीय जनगणना का रूप दे दिया। उसी परम्परा का हम आज भी पालन कर रहे हैं।
पृथक सिख पहचान को स्थापित करने में ब्रिटिश जनगणना नीति का ही मुख्य योगदान है। उन्होंने ही सिख पहचान को दशम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा 1699 में रचित खालसा पंथ के पंच ककार जैसे बाह्र लक्षणों में समाहित करके सिख समाज को गुरु नानक देव से गुरु तेगबहादुर तक के नौ गुरुओं की आध्यात्मिक परंपरा एवं उनके स्रोत गुरु ग्रन्थ साहब व दशम ग्रन्थ से अलग कर दिया।
ब्रिटिश जनगणना रपटों में हिन्दू शब्द को उसके भू-सांस्कृतिक अर्थों से काटकर इस्लाम और ईसाई मत जैसे संगठित उपासना पंथों की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया, यद्यपि प्रत्येक जनगणना अधिकारी ने हिन्दू शब्द की व्याख्या करते समय यह स्वीकार किया कि हिन्दू शब्द किसी विशिष्ट उपासना पद्धति का परिचायक नहीं है। इस अर्थान्तरण के साथ ही उन्होंने हिन्दू शब्द से द्योतित समाज की परिधि को भी छोटा करना प्रारंभ कर दिया। परिधि- संकुचन की इस प्रक्रिया के आधार पर हिन्दू की व्याख्या करते हुए 1891 के जनगणना आयुक्त सर अर्थल्स्टेन बेन्स ने अपनी रपट में लिखा,
"सिख, जैन, बौद्ध, एनीमिस्टिक (अर्थात् जनजातियां) तथा इस्लाम, ईसाइयत, पारसी एवं यहूदी मतानुयायियों को अलग करने के बाद जो बचता है वह "हिन्दू" शब्द के अन्तर्गत आता है।
यह जो बचा खुचा हिन्दू समाज है उसे भी जातीय, भाषायी एवं क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में उलझा कर खंड-खंड करने का प्रयास ब्रिटिश जनगणना नीति के द्वारा आगे बढ़ता रहा। इस दिशा में हंटर के काम को हर्बर्ट रिस्ले ने आगे बढ़ाया।
रिस्ले के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में जातियों एवं नस्लों की सूचियां व जानकारी एकत्र करने के लिए रिस्ले की अधीनता में एक सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की, जिसने सिर, नाक आदि प्राकृतिक मानव अंगों के आधार पर नस्ल निर्धारण की अधुनातन यूरोपीय विद्या का भारत में प्रयोग किया और प्रत्येक भारतीय जाति में कितना आर्य, कितना अनार्य अंश है इसका निर्णय करने वाली एक विशाल ग्रंथ श्रृंखला का निर्माण कराया। क्षेत्रश: "कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स" की ये सूचियां आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध के मुख्य सन्दर्भ ग्रन्थ हैं।
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के पूर्व कुलपति स्व. डा. एस.के. गुप्त के निर्देशन में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) ने ब्रिटिश जनगणना नीति के दस्तावेजीकरण पर एक बृहत प्रकल्प अंगीकार किया। प्रो. एस.के. गुप्त की अकस्मात् अनपेक्षित अकाल मृत्यु के बाद भी वह प्रकल्प आगे बढ़ता रहा। चार शोधार्थियों ने तीन-साढ़े तीन वर्ष तक कठिन परिश्रम करके 1871 से 1941 तक की जनगणना रपटों का गहन अध्ययन करके ब्रिटिश नीति पर प्रकाश डालने वाले हजारों दस्तावेज ढूंढ निकाले।
किन्तु भारत का बौद्धिक क्षेत्र भी संकीर्ण दलीय राजनीति का बन्दी बन गया है। अत: 2004 के सत्ता परिवर्तन के बाद आई.सी.एच.आर. पर काबिज माक्र्सवादी मस्तिष्क ने ऐसे मूलगामी निरापद राष्ट्रोपयोगी प्रकल्प पर भी रोक लगा दी।
खैर, इन जनगणना रपटों का अध्ययन करने से जो बात उभर कर सामने आई वह यह थी कि एक ओर तो ब्रिटिश जनगणना अधिकारी इस्लाम, ईसाई आदि उपासना पंथों को संगठित रूप देने का प्रयास कर रहे थे, दूसरी ओर हिन्दू समाज में जाति, भाषा और क्षेत्र की विविधता पर बल देकर आन्तरिक कटुता और प्रतिस्पर्धा के बीज बोने में लगे थे।
एक ओर तो वे अंग्रेजी शिक्षित हिन्दू मस्तिष्क में यह धारणा बैठा रहे थे कि जातिभेद ही भारत की अवनति और पराधीनता का मुख्य कारण है इसलिए जाति विहीन समाज रचना ही उनका लक्ष्य होना चाहिए , दूसरी ओर वे जनगणना के द्वारा जाति संस्था को सुदृढ़ एवं परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस विषय को लेकर ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों के बीच समय-समय पर आन्तरिक बहस भी हुई जिसमें एक पक्ष का कहना था कि सभ्यता के आधुनिक स्वरूप परिवर्तन के कारण जाति संस्था अप्रासंगिक एवं शिथिल हो रही है अत: उस पर इतना आग्रह करने का औचित्य क्या है ? पर सरकार की अधिकृत नीति जाति के आधार पर शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक जानकारी का वर्गीकरण करना थी।
भारत के सार्वजनिक जीवन में जाति-आधारित आरक्षण सिद्धान्त को औपचारिक मान्यता का श्रेय 24 सितंबर, 1932 के पूना-पैक्ट को दिया जा सकता है। यद्यपि इस पैक्ट पर 18 नेताओं के हस्ताक्षर थे और महात्मा गांधी के हस्ताक्षर नहीं थे, तथापि इसे गांधी-अम्बेडकर पैक्ट भी कहा जाता है, क्योंकि हिन्दू समाज के तथाकथित सवर्ण एवं अवर्ण नेताओं के मध्य इस समझौते को कराने के लिए गांधी जी को आमरण अनशन की भट्टी से गुजरना पड़ा था। हम इस ऐतिहासिक पैक्ट की पूरी कहानी को किसी अगले लेख के लिए रोक कर केवल इतना बताना चाहेंगे कि गांधी जी को वह आमरण अनशन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मेकडानल्ड द्वारा 17 अगस्त, 1932 को घोषित "साम्प्रदायिक निर्णय" (कम्युनल अवार्ड) के उस अंश के विरोध में करना पड़ा था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने भारत के भावी संविधान में हिन्दू समाज की तथाकथित दलित जातियों को पृथक निर्वाचन एवं पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया था। मुसलमानों को यह अधिकार वे 1909 में दे चुके थे और सिखों को उन्होंने 1919 के भारत एक्ट में दिया।
अब उन्होंने इसका विस्तार हिन्दू समाज के अव्याख्यायित दलित या अस्पृश्य जातियों के लिए करने की घोषणा की। गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के इस कदम को हिन्दू समाज को भीतर से तोड़ने के कुचक्र के रूप में देखा। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की समयावधि केवल बीस वर्ष निर्धारित की थी और विधान मंडलों की 1400 से अधिक सीटों में से केवल 71 सीटें उनके लिए आरक्षित की थीं, किन्तु गांधी जी की दूर दृष्टि ने भांप लिया कि ब्रिटिश सरकार के इस कदम की अंतिम परिणति हिन्दू समाज के विभाजन में होगी। इसलिए उन्होंने घोषणा की कि मुसलमानों और सिखों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिये जाते समय मैं भारतीय राजनीति का अंग नहीं था और उसे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं था, किन्तु इस समय अपनी आंखों के सामने हिन्दू समाज को विभाजित करने के किसी भी प्रयास का मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी विरोध करूंगा।
गांधी जी ने कहा कि छुआछूत और ऊंच-नीच की समस्या हिन्दू समाज की आन्तरिक सामाजिक समस्या है, जिसका अंतिम चिरस्थायी हल हिन्दू समाज के भीतर प्रबल सामाजिक आंदोलन खड़ा करके ही हो सकता है। उसी सामाजिक आंदोलन को खड़ा करने के संकल्प की घोषणा करके मैं राउंड टेबिल कान्फ्रेंस से भारत लौटा था किन्तु ब्रिटिश सरकार ने मुझे भारत पहुंचते ही जेल में बंद कर दिया। अब आमरण अनशन पर जाने के सिवाय मेरे सामने कोई रास्ता नहीं बचा है। हिन्दू समाज की एकता को बचाने के लिए मैं अपने प्राणों की आहूति देना स्वीकार करूंगा।
20 सितम्बर, 1932 को अनशन प्रारंभ करने के पूर्व और अनशन के दौरान भी गांधी जी ने बार-बार दोहराया कि विधान मंडलों में आरक्षण इस समस्या का हल नहीं है, क्योंकि आरक्षण की व्यवस्था आरक्षण पाने वाले को कमजोर बनाती है, अपनी क्षमता के बल पर खड़ा होने का आत्मबल नहीं देती और साथ ही सवर्णों (गैर दलितों) को प्रायश्चित करने एवं छूआछूत व ऊंचनीच की खाई को और बढ़ा देती हैं संकलन
#अजय_कर्मयोगी

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