तुंबा ..पानी बोतले ....!
बस्तर के आदिवासियों का यदि कोई सच्चा दोस्त था वो है तुम्बा, हरदम कंधे पर लटकता हुआ तुंबा अब कंधो के बजाय घर की खुंटी पर लटकता मिलता है। आदिवासी युवक युवतियों के कंधो पर अब तुंबे की जगह बैग लटकता हुआ दिखाई देता है उन बैग से प्लास्टिक की पानी बोतले अक्सर झांकते हुये दिखाई पड़ती है। तुंबा जो सदियों से पेय पदार्थ को ताजा एवं शीतल रखता था वो अब दुर्लभ हो चला है। तुंबा लटकाये हुये आदिवासी अब तो ढूंढने से भी नहीं मिलते है। तुंबा को बोरका भी कहा जाता है।
विशेष तौर पर ठंड के मौसम में तुंबा बनाया जाता है। तुंबा बनाने के लिये गोल गोल पेट वाली लौकी को चुना जाता है। उस लौकी के मुंह पर छुरी से छेद किया जाता है। उस छेद से लौकी के अंदर का सारा मटेरियल बाहर निकाल दिया जाता है। लौकी का बस मोटा बाहरी आवरण ही शेष रहता है। आग में तपाने के कारण लौकी का बाहरी आवरण कठोर हो जाता है।
उसमे दो चार दिनो तक पानी भरकर रखा जाता है ज़िससे वह अन्दर से पुरी तरह से स्वच्छ हो जाता है। यह तुंबा बनाने का यह काम सिर्फ ठंड के मौसम में किया जाता है। ज़िससे तुम्बा बनाते समय लौकी की फटने की संभावना कम रहती है।
तुम्बा के उपर चाकु या कील को गरम कर विभिन्न चित्र या ज्यामितिय आकृतियां भी बनायी जाती है। इस पर अधिकांशतः पक्षियो का ही चित्रण किया जाता है। आखेट में रूचि होने के कारण तीर धनुष की आकृति भी बनायी जाती है।
इन तुम्बों की सहायता से मुखौटे भी बनाये जाते है। इन मुखौटो का प्रयोग नाटय आदि कार्यक्रमों मे किया जाता है। तुम्बे को कलात्मक बनाने के लिये उस पर रंग बिरंगी रस्सी भी लपेटी जाती है। तुंबे से विभिन्न वाद्ययंत्र भी बनते है।तुम्बा आदिवासियों की कला के प्रति रूचि को प्रदर्शित करता है।
तुंबा मे रखा हुआ पानी भी अमृत के समान मीठा और शीतल हो जाता है। मटके और फ्रिज में रखा पानी इसके सामने पानी भरने के लायक भी नहीं है। तुंबा पानी को उसका मुल स्वाद देता है।
तुंबा में रखी हुई सुरा भी बहुत पावरफूल हो जाती है। उसको पीने के बाद जो मदहोशी आ जाती है तो बस वारे न्यारे हो जाते है। आज बस इतना ही बाकी फिर कभी..
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