Monday 23 July 2018

गोरक्षा महाभियान

क्या आप जानते हैं कि मुस्लिमों को खुश करने के लिए 7 नवंबर 1966 ई को इंदिरा गांधी ने गौवध-निषेध हेतु संसद भवन के घेराव कर रहे 5000 हिन्दू साधु-संतों को गोलियों से भुनवा डाला था तथा हजारों सन्तों को गोली चलवाकर घायल भी कर दिया था । इतनी बड़ी नृशंश हत्या आज़ाद भारत मे पहले कभी नही हुई थी । लोगों को इतिहास में जलियांवाला बाग की कहानी तो पढ़ाई जाती है लेकिन संसद भवन के समक्ष मारे गए इन हजारों सन्तों की कहानी लोगों को मालूम तक नही है ।
देश के त्याग, बलिदान और राष्ट्रीय ध्वज में मौजूद भगवा रंग से पता नहीं कांग्रेस को क्या एलर्जी है कि वह आजाद भारत में संतों के हर आंदोलन को कुचलती रही है। आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी की सरकार भगवा वस्त्रधारी संतों पर गोलियां तक चलवा चुकी है! गो-रक्षा के लिए कानून बनाने की मांग लेकर जुटे हजारों साधु-संत इस गांलीकांड में मारे गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए उस खूनी इतिहास को कांग्रेस ने ठीक उसी तरह दबा दिया, जिस कारण आज की युवा पीढ़ी उस दिन के खूनी कृत्य से आज भी अनजान है!
गोरक्षा महाभियान समिति के तत्कालीन मंत्रियों में से एक मंत्री और पूरी घटना के गवाह, प्रसिद्ध इतिहासकार एवं लेखक आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, “7 नवंबर 1966 की सुबह आठ बजे से ही संसद के बाहर लोग जुटने शुरू हो गए थे। उस दिन कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि थी, जिसे हम-आप गोपाष्ठमी नाम से जानते हैं। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्री जी महाराज ने चांदनी चैक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया। करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठ के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, मध्व संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पंडित लक्ष्मीनारायण जी ने चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लालकिला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चैक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरंभ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गया था।”
आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, “यह हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था। इतने विवाद और अहं की लड़ाई होते हुए भी सभी शंकराचार्य और पीठाधिपतियों ने अपने छत्र, सिंहासन आदि का त्याग किया और पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे। उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चैक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहा था। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गो हत्या बंद कराने के लिए कानून बनाने की मांग लेकर संसद के समक्ष जुटे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी और गुलजारी लाल नंदा गृहमंत्री। गो हत्या रोकने के लिए इंदिरा सरकार केवल आश्वासन ही दे रही थी, ठोस कदम कुछ भी नहीं उठा रही थी। सरकार के झूठे वादे से उकता कर संत समाज ने संसद के बाहर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया था।”
रामरंग जी के अनुसार, “दोपहर एक बजे जुलूस संसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब तीन बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा, ‘यह सरकार बहरी है। यह गो हत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींच कर बाहर ले आओ, तभी गो हत्या बंदी कानून बन सकेगा।'”
“इतना सुनना था कि नौजवान संसद भवन की दीवार फांद-फांद कर अंदर घुसने लगे। लोगों ने संसद भवन को घेर लिया और दरवाजा तोड़ने के लिए आगे बढ़े। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। नहीं भी तो कम से कम, 10 हजार लोग उस गोलीबारी में मारे गए थे।”
“बड़ी त्रासदी हो गई थी और सरकार के लिए इसे दबाना जरूरी था। ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई। हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कफ्र्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा। उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।”
रामरंग जी के अनुसार,”शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गई। 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया। नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी। नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्निचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया। उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुलजारीलाल नंदा पर इस पूरे गोलीकांड की जिम्मेवारी डालते हुए उनका इस्तीफा ले लिया। जबकि सच यह था कि गुलजारीलाल नंदा गो हत्या कानून के पक्ष में थे और वह किसी भी सूरत में संतों पर गोली चलाने के पक्षधर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गांधी को तो बलि का बकरा चाहिए था! गुलजारीलाल नंदा को इसकी सजा मिली और उसके बाद कभी भी इंदिरा ने उन्हें अपने किसी मंत्रीमंडल में मंत्री नहीं बनाया। तत्काल महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व चीन से हार के बाद देश के रक्षा मंत्री बने यशवंत राव बलवतंराव चैहान को गृहमंत्री बना दिया गया। तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पाद की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंत राव बलवतंराव चैहान खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिए लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है। लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए।”
रामरंग जी के मुताबिक,”करीब एक महीने बाद लोगों को जेल से छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। करपात्री जी महाराज को भी एक महीने बाद छोड़ा गया। जेल से निकल कर भी उनका सत्याग्रह जारी था। पुरी के शंकराचार्य और प्रभुदत्त ब्रहमचारी जी का आमरण अनशन महीनों चला। बाद में इंदिरा सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए धोखे का सहारा लिया। यशवंत राव बलवतंराव चैहान ने करपात्री जी महाराज से भेंट कर यह आश्वासन दिया कि अगले संसद सत्र में गो हत्या बंदी कानून बनाने के लिए अध्यादेश लाया जाएगा और इसे कानून बना दिया जाएगा, लेकिन आज तक यह कानून का रूप नहीं ले सका।”
रामरंग जी कहते हैं, “कांग्रेस शुरु से ही भारत के सनातन धर्मी संतों से नफरत प्रदर्शित करती रही है। 7 नवंबर 1966 को उसका चरम रूप देखने को मिला। बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया, जिसकी वजह से गो रक्षा के लिए किए गए उस बड़े आंदोलन और सरकार के खूनी कृत्य से आज की युवा पीढ़ी अनजान है।”

No comments:

Post a Comment