श्री कृष्ण पाल सिंह मामूली से सीमावर्ती व्यापारी थे जो भारत और तिब्बत की सीमाओं के बीच माल लाने, ले जाने का काम करके परिवार चलाते थे। उनकी पत्नी हंसा देवी से उनकी सात संताने थी। इन्हीं बच्चों में से एक 24 मई 1954 को जन्मी थी, तेनजिंग नोर्गे और एडमंड हिल्लेरी के माउंट अवेरेस्ट पर चढ़ने की सालगिरह से ठीक पांच दिन पहले। स्कूल के एक पिकनिक के दौरान ही इस बच्ची को पहाड़ों पर चढ़ने का रोमांच पता चल गया। बारह साल की उम्र में उसने एक 13,123 फीट की पहाड़ी चढ़ ली थी। स्कूल के प्रिंसिपल के ही दबाव पर उसे आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज भेजा गया। अपनी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग के कोर्स के दौरान ही उसने 1982 में माउन्ट गंगोत्री (21900 फीट) फतह कर लिया। वो माउंट रुद्रगरिया (19091 फीट) भी चढ़ चुकी थी।
ऐसे कारनामे करने वाली इस पहली लड़की को नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन में इंस्ट्रक्टर की नौकरी मिल गई। वहां महिलाओं के लिए विशेष ट्रेनिंग की शुरुआत उसी दौर में हुई थी। स्कूल शिक्षिका बन्ने के बदले पहाड़ चढ़ने को अपना पेशा चुनने की वजह से घर से उन्हें काफी विरोध झेलना पड़ा था। दूसरी तरफ पहाड़ चढ़ने में उन्हें एक के बाद एक सफलता मिलती जा रही थी। ऐसी ही कई छोटी-बड़ी कामयाबियों के बाद 1984 में उन्हें पुरुषों-महिलाओं की एक मिश्रित टीम में चुना गया जो माउंट एवेरेस्ट पर चढ़ाई करने वाला था। भारत का माउंट एवेरेस्ट पर ये चौथा अभियान था और इसे एवेरेस्ट 84 नाम दिया गया था। बचेंद्री पाल उन छह महिलाओं और ग्यारह पुरुषों की टीम का हिस्सा थी जो सागरमाथा पर कदम रखने निकला था। सागरमाथा माउंट एवेरेस्ट का स्थानीय, नेपाली नाम है।
ये खबर ही उत्साह भरी थी और अख़बारों ने भी इसे हाथों हाथ लिया। मार्च 1984 में इस टीम को काठमांडू (नेपाल) हवाई जहाज से पहुंचाया गया और वहां से वो लोग आगे बढे। पहाड़ की चढ़ाई मई 1984 में शुरू हुई। शुरुआत में ही टीम को बर्फीले तूफ़ान का सामना करना पड़ा और उनका पूरा कैंप बर्फ से दब गया। आधी से ज्यादा टीम को चोटों की वजह से वापिस लौटना पड़ा। इस बर्फीले तूफ़ान के बारे में बचेंद्री पाल ने बाद में बताया कि 15-16 मई की रात मैं सो रही थी और हम लोग करीब 24000 फीट की ऊंचाई पर थे की अचानक साढ़े बारह बजे जोर के धक्के से मेरी नींद खुल गई, हम ठंडी बर्फ की पर्तों में लिपटते जा रहे थे।
22 मई को अंग दोरजी (शेरपा सरदार) और कुछ और पर्वतारोही उनके दल में शामिल हो गए। अब बचेंद्री पूरी टीम में इकलौती महिला थी। वो साउथ काल पर पहुँच कर रुके और 26000 फीट पर कैंप चार लगाया। अगली सुबह 23 मई को सुबह उन्होंने आगे चढ़ाई शुरू की। अब चढ़ाई बर्फीली दीवारों पर सीधी चढ़ाई थी, हवा वहां करीब सौ किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बह रही थी और तापमान शून्य से तीस से चालीस डिग्री कम। 23 मई 1984 को दोपहर एक बजकर सात मिनट (भारतीय समय) पर बचेंद्री पाल ने एवेरेस्ट पर झंडा फहरा कर इतिहास रच दिया। अपने जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले, और माउंट एवेरेस्ट पर इंसानी फतह के एकत्तीसवें सालगिरह से छह दिन पहले बचेंद्री पाल एवेरेस्ट पर फतह करने वाली पहली भारतीय महिला बन गई।
कई साल बाद 1990 में उन्हें गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में माउंट एवेरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला के तौर पर दर्ज किया गया। बाद में उन्होंने 1993, 1994 और 1997 में भारत-नेपाल की केवल महिलाओं की माउंट एवेरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली टीमों का नेतृत्व किया। और भी कई इसी तरह के अभियानों का वो नेतृत्व कर चुकी हैं। वो अपने गाँव से स्नातक करने वाली पहली महिला ग्रेजुएट थी। एवेरेस्ट से पहले के तैयारी वाले अभियानों में वो 1991 में माउन्ट कामत पर और माउन्ट अबी-गमिन की चढ़ाई की महिला टीमों का भी वो नेतृत्व कर चुकी हैं। उन्हें 1986 में अर्जुन अवार्ड और 1994 में नेशनल एडवेंचर अवार्ड और पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।
कुछ ही साल पहले करीब साठ साल की उम्र में बचेंद्री पाल फिर से नजर आई थी। उत्तर भारत में जब सेना के नौजवान भी बाढ़ और भूस्खलन से फंसे लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे थे तो वो प्रेमलता अग्रवाल और अन्य चोटी के पर्वतारोहियों के साथ उत्तरकाशी जा पहुंची। फंसे हुए कई लोगों को वो बाहर निकाल लायी। भारतीय महिलाओं के लिए सामने मिसाल रखनी हो तो एक नाम बचेंद्री पाल का भी रखा जाना चाहिए।
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