Saturday 14 July 2018

चर्च की आक्रामक पृष्ठभूमि
ईसा की मृत्यु के लगभग 300 साल में उनके कुछ तथा कथित अनुयायियों ने स्वयं को संगठित कर लिया था और उन्होंने अपने इस संगठन के बल पर विश्व विजय के साम्राज्यवादी सपने देखने शुरू कर दिये थे। उन्हें अपने इस प्रयास में सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने रोम के तात्कालिक बादशाह कोन्स्टेन्टाईन को ईसाई मजहब में दीक्षित कर लिया और राजा ने ईसाई मत को सरकारी मजहब घोषित कर दिया। पादरियों के प्रभाव में रोम संस्ड्डति को समाप्त किया जाने लगा और मन्दिरों व देव मूर्तियों को नष्ट किया जाने लगा। राजा ने अपने पुत्र एवं महारानी को भी मरवा दिया। रोम साम्राज्य की वंश परम्परा समाप्त हो गई और पोप का राज्य स्थापित होने का रास्ता खुल गया। अब चर्च ने इससे उत्साहित होकर दुनिया भर में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये। इसमें उसे सफलता भी मिली लेकिन ‘‘चर्च द्वारा ईसाई रीलिजन की स्थापना के लिए डेढ सौ करोड़ से अधिक लोगोें की हत्या की गई। पश्चिम के अंग्रेज इतिहासकारों ने अति परिश्रमपूर्वक इन हत्याओं को विवरण उपलब्ध किया है। चर्च द्वारा सौ से अधिक संस्ड्डतियों -सभ्यताओं, पन्द्रह सौ से अधिक विशिष्ट पहचान वाली जातियों तथा एक करोड़ से अधिक महिलाओं का सामूहिक कत्ल किया गया। विश्व के इतिहास में किसी भी पंथ अथवा सम्प्रदाय द्वारा सुव्यवस्थित रूप से इतनी हत्याएं नहीं की गई। हत्याओं का यह सिलसिला पहली शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक चला है। ”;शिवदत त्रिपाठी, कामेश्वर उपाध्याय, सम्पादक, इसाईयत का इतिहास वाराणसी, संवाद प्रकाशन 2008, पृष्ठ ग्टद्ध
भारत में चर्च की अमानवीय भूमिका
पोप ने जब विश्व भर में ईसाई मत का प्रचार करने के लिए पुर्तगाल और स्पेन को अधिकार दे दिये तो भारत में इस आंदोलन की शुरूआत के लिए पुर्तगाल ने प्रयास किये। जब पुर्तगाल ने गोवा पर अधिकार जमा लिया तो वहां भयंकर नरसंहार प्रारम्भ हुआ और मंदिरों को गिराया जाने लगा। पुर्तगालियों के लिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। क्योंकि ईस्वी सन की शुरूआत की शताब्दियों में स्थापित रोम और यूनान की संस्ड्डति को नष्ट करने के लिए चर्च ने इसी कार्य पद्धति का सहारा लिया था। यूरोपीय देशों की मूल संस्ड्डति को नष्ट करके पोप की सत्ता स्थापित करने के लिए चर्च ने सर्वत्र इसी प्रणाली को अपनाया था। दरअसल ईसा मसीह की निर्मम हत्या के बाद उनके नाम को आधार बनाकर चर्च और पोप जिस साम्राज्य की रचना कर रहे थे उसमें आध्यात्मिकता नहीं थी। चर्च के असली स्वरूप को पहचानते हुए महात्मा गांधी ने कालांतर में कहा था कि आधुनिक चर्च में ईसा मसीह नहीं है, बाकी सब कुछ है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज के चर्च का ईसा मसीह और उन द्वारा सत्य और न्याय की रक्षा के लिए दिये जाने वाले बलिदान से कोई ताल्लुक नहीं है। कालांतर में तो यह चर्च अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय साम्राज्यवादी हवस का हरावल दस्ता सि( होने लगा। अफ्रीका और एशिया में लोगों का ईसाई मत में मतान्तरण वहां के सांस्ड्डतिक आधार को नष्ट करने के लिए किया जाने लगा ताकि चर्च द्वारा स्थापित नये सांस्ड्डतिक परिवेश में इन देशों के लोग यूरोप के शासन और वहां के सांस्ड्डतिक प्रवाह को सहज भाव से मानसिक रूप में स्वीकार कर लें। यूरोप की साम्राज्यवादी लिप्सा की पूर्ति के लिए चर्च अफ्रीका और एशिया के देशों में एकरूपता स्थापित करने के कार्य में जुट गया। मध्य काल में और उसके बाद भी अफ्रीका और एशिया में यूरापीय देशों के सेना करती थी, व्यावहारिक स्थितियां बदल जाने के कारण कालांतर में वही कार्य चर्च ने शुरू कर दिया।
पुर्तगाल द्वारा भारत में लाये जा रहे ईसाई आंदोलन के उपरान्त 19वीं शताब्दी में भारत में अंग्रेजी राज्य के साथ ही चर्च एक हरावल दस्ते के रूप में भारत में आया। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि जिस प्रकार भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं के लिए अनुकूल मानसिक वातावरण तैयार करने के लिए सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वही भूमिका चर्च अंग्रेजी शासन के लिए भारत में निभा रहा था। प्रसि( उपन्यासकार मुंशीप्रेम चन्द ने अपने उपन्यास रंग भूमि में इसका यथार्थ चित्रण किया है। 1947 में अंग्रेजों को परिस्थिति वश भारत से जाना पड़ा। इंगलैंड और चर्च दोनों के लिए ही यह चिन्ता का विषय था कि उसके उपरान्त भारत में चर्च की गतिविधियां किस प्रकार अबाध रूप से चलती रहें। क्योंकि इंगलैंड ने भारत से अपना प्रत्यक्ष शासन तो समेट लिया था परन्तु चर्च अपने उस साम्राज्यवादी आंदोलन को किसी प्रकार भी त्याग नहीं सकता था, जिसके परिणामस्वरूप उसने कुल मिलाकर दो हजार साल में यूरोप, अफ्रीका और अधिकांश एशिया की संस्ड्डति, इतिहास, विरासत और पूजा प्रणाली को समाप्त कर उसे चर्च साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया था। इंगलैंड का हित भी चर्च के इसी हित से जुड़ा हुआ था। अब तक चर्च के इस आंदोलन में सहायक के रूप में अमेरिका भी कूद पड़ा था। क्यांेकि द्वितीय विश्व यु( के बाद विश्व राजनीति में इंग्लैंड का रूतबा कहीं कम हो गया था और अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया था। चर्च और ब्रिटिश शासन की तमाम कोशिशों के वावजूद भारत की मुख्य संास्ड्डतिक धारा अक्षुण्ण ही नहीं रही बल्कि भारत के साधु संतों और योगियों ने विश्व भर में हिन्दु धर्म के मूल्यों की पताका फहराना भी प्रारम्भ कर दिया है।

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