सनातन धर्म ही हिन्दू धर्म है, सनातन धर्म अनुसार आचरण करना ही हिंदुत्व है !
सनातन धर्म अनादिकाल से है, शाश्वत है, निरंतर है, यही हिंदू धर्म है।
जिन धर्मों का जन्म विगत 3500 वर्षों के अंतराल में हुआ है वे "हिन्दू" की पुरातनता के विषय में क्या जानें !
सनातन धर्म ही हिंदू धर्म है।
हिंदू हमारा धर्म है और हिंदुत्व हमारी राष्ट्रीयता।
हिंदू शब्द को अनेक विश्लेषकों ने विदेशियों द्वारा दिया गया बताया है।
इसके अर्थ को स्वार्थवश संकुचित करके सम्प्रदायवादी बताया जा रहा है।
शब्द कल्पद्रुम:
जो कि लगभग दूसरी शताब्दी
में रचित है, में मन्त्र है........
जो कि लगभग दूसरी शताब्दी
में रचित है, में मन्त्र है........
"हीनं दुष्यति इतिहिंदू जाति विशेष:"
--अर्थात हीन कर्म का त्याग करने वाले को हिंदू कहते है।
इसी प्रकार अदभुत कोष में मन्त्र आता है ...
"हिंदू: हिन्दुश्च प्रसिद्धौ दुष्टानाम च विघर्षने"
--अर्थात हिंदू और हिंदु दोनों शब्द दुष्टों को नष्ट करने वाले अर्थ में प्रसिद्द है।
वृद्ध स्मृति (छठी शताब्दी) में मंत्र है...
"हिंसया दूयते यश्च सदाचरण
तत्पर: वेद् हिंदु मुख शब्द भाक्"
तत्पर: वेद् हिंदु मुख शब्द भाक्"
अर्थात जो सदाचारी वैदिक मार्ग पर चलने वाला, हिंसा से दुख मानने वाला है,वह हिंदु है।
बृहस्पति आगम (समय ज्ञात नही है) में उल्लेख है....
"हिमालय समारभ्य यवाद इंदु सरोवरं,
तं देव निर्वितं देशम हिंदुस्थानम प्रचक्षते।"
तं देव निर्वितं देशम हिंदुस्थानम प्रचक्षते।"
अर्थात हिमालय पर्वत से लेकर इंदु (हिंद) महासागर तक देव पुरुषों द्बारा निर्मित इस क्षेत्र को हिन्दुस्थान कहते है।
हिन्दू धर्म
भारत का सर्वप्रमुख धर्म हिन्दू धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है।
ईसाई, इस्लाम, बौद्ध,जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा
स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है।
स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है।
एक विकासशील धर्म होने के कारण विभिन्न कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये।
वास्तव में हिन्दू धर्म इतने विशाल परिदृश्य वाला धर्म है कि उसमें आदिम ग्राम देवताओं, भूत-पिशाची, स्थानीय देवी-देवताओं,
झाड़-फूँक, तंत्र-मत्र से लेकर त्रिदेव एवं अन्य
देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़ दर्शन तक- सभी बिना किसी अन्तर्विरोध के समाहित हैं और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी की आराधना होती है।
झाड़-फूँक, तंत्र-मत्र से लेकर त्रिदेव एवं अन्य
देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़ दर्शन तक- सभी बिना किसी अन्तर्विरोध के समाहित हैं और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी की आराधना होती है।
वास्तव में हिन्दू धर्म लघु एवं महान परम्पराओं का उत्तम समन्वय दर्शाता है।
एक ओर इसमें वैदिक तथा पुराणकालीन देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती है, तो दूसरी ओर कापलिक और अवधूतों द्वारा भी अत्यंत
भयावह कर्मकांडीय आराधना भी की जाती है।
भयावह कर्मकांडीय आराधना भी की जाती है।
एक ओर भक्ति रस से सराबोर भक्त हैं, तो दूसरी ओर अनीश्वर अनात्मवादी और यहाँ तक कि नास्तिक भी दिखाई पड़ जाते हैं।
देखा जाय, तो हिन्दू धर्म सर्वथा विरोधी सिद्धान्तों का भी उत्तम एवं सहज समन्वय है।
यह हिन्दू धर्मावलम्बियों की उदारता, सर्वधर्म समभाव, समन्वयशीलता तथा धार्मिक
सहिष्णुता की श्रेष्ठ भावना का ही परिणाम और परिचायक है।
सहिष्णुता की श्रेष्ठ भावना का ही परिणाम और परिचायक है।
हिन्दू धर्म के स्रोत।
हिन्दू धर्म की परम्पराओं का अध्ययन करने हेतु हज़ारों वर्ष पीछे वैदिक काल पर दृष्टिपात
करना होगा।
करना होगा।
हिन्दू धर्म की परम्पराओं का मूल वेद ही हैं।
वैदिक धर्म प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी तथा अनुष्ठान परक धर्म था।
यद्यपि उस काल में प्रत्येक भौतिक तत्त्व का अपना विशेष अधिष्ठातृ देवता या देवी की
मान्यता प्रचलित थी, परन्तु देवताओं में वरुण, पूषा, मित्र, सविता, सूर्य, अश्विन, उषा, इन्द्र
रुद्र, पर्जन्य, अग्नि, वृहस्पति, सोम आदि प्रमुख थे।
मान्यता प्रचलित थी, परन्तु देवताओं में वरुण, पूषा, मित्र, सविता, सूर्य, अश्विन, उषा, इन्द्र
रुद्र, पर्जन्य, अग्नि, वृहस्पति, सोम आदि प्रमुख थे।
इन देवताओं की आराधना यज्ञ तथा मंत्रोच्चारण के माध्यम से की जाती थी।
मंदिर तथा मूर्ति पूजा का अभाव था।
उपनिषद काल में हिन्दू धर्म के दार्शनिक पक्ष का विकास हुआ।
साथ ही एकेश्वरवाद की अवधारणा बलवती हुई।
ईश्वर को अजर-अमर, अनादि, सर्वत्रव्यापी कहा गया है।
इसी समय योग, सांख्य, वेदांत आदि षड दर्शनों का विकास हुआ।
निर्गुण तथा सगुण की भी अवधारणाएं उत्पन्न हुई।
विभिन्न पुराणों की रचना हुई।
पुराणों में पाँच विषयों (पंच लक्षण) का वर्णन है-
सर्ग--(जगत की सृष्टि),
प्रतिसर्ग--(सृष्टि का विस्तार,
लोप एवं पुन: सृष्टि),
वंश--(राजाओं की वंशावली),
मन्वंतर--(भिन्न-भिन्न मनुओं
के काल की प्रमुख घटनाएँ)
तथा वंशानुचरित--(अन्य
गौरवपूर्ण राजवंशों का
विस्तृत विवरण)।
प्रतिसर्ग--(सृष्टि का विस्तार,
लोप एवं पुन: सृष्टि),
वंश--(राजाओं की वंशावली),
मन्वंतर--(भिन्न-भिन्न मनुओं
के काल की प्रमुख घटनाएँ)
तथा वंशानुचरित--(अन्य
गौरवपूर्ण राजवंशों का
विस्तृत विवरण)।
इस प्रकार पुराणों में मध्य युगीन
धर्म,ज्ञान-विज्ञान तथा इतिहास
का वर्णन मिलता है।
धर्म,ज्ञान-विज्ञान तथा इतिहास
का वर्णन मिलता है।
पुराणों ने ही हिन्दू धर्म में
अवतारवाद की अवधारणा
का सूत्रपात किया।
अवतारवाद की अवधारणा
का सूत्रपात किया।
इसके अलावा मूर्तिपूजा,
तीर्थयात्रा,व्रत आदि इसी
काल के देन हैं।
तीर्थयात्रा,व्रत आदि इसी
काल के देन हैं।
पुराणों के पश्चात् भक्तिकाल का
आगमन होता है,जिसमें विभिन्न
संतों एवं भक्तों ने साकार ईश्वर
की आराधना पर ज़ोर दिया
तथा जनसेवा,परोपकार और
प्राणी मात्र की समानता एवं
सेवा को ईश्वर आराधना का
ही रूप बताया।
आगमन होता है,जिसमें विभिन्न
संतों एवं भक्तों ने साकार ईश्वर
की आराधना पर ज़ोर दिया
तथा जनसेवा,परोपकार और
प्राणी मात्र की समानता एवं
सेवा को ईश्वर आराधना का
ही रूप बताया।
फलस्वरूप प्राचीन दुरूह
कर्मकांडों के बंधन कुछ
ढीले पड़ गये।
कर्मकांडों के बंधन कुछ
ढीले पड़ गये।
दक्षिण भारत के अलवार
संतों,गुजरात में नरसि मेहता,
महाराष्ट्र में तुकाराम,पश्चिम
बंगाल में चैतन्य,उत्तर में तुलसी,
कबीर,सूर और गुरुनानक
के भक्ति भाव से ओत-प्रोत
भजनों ने जनमानस पर
अपनी अमिट छाप छोड़ी।
संतों,गुजरात में नरसि मेहता,
महाराष्ट्र में तुकाराम,पश्चिम
बंगाल में चैतन्य,उत्तर में तुलसी,
कबीर,सूर और गुरुनानक
के भक्ति भाव से ओत-प्रोत
भजनों ने जनमानस पर
अपनी अमिट छाप छोड़ी।
हिन्दू धर्म की अवधारणाएँ
एवं परम्पराएँ:-💐
एवं परम्पराएँ:-💐
हिन्दू धर्म की प्रमुख
अवधारणाएं निम्नलिखित हैं-
अवधारणाएं निम्नलिखित हैं-
ब्रह्म- ब्रह्म को सर्वव्यापी,
एकमात्र सत्ता,निर्गुण
तथा सर्वशक्तिमान
माना गया है।
एकमात्र सत्ता,निर्गुण
तथा सर्वशक्तिमान
माना गया है।
वास्तव में यह एकेश्वरवाद
के 'एकोऽहं,द्वितीयो नास्ति'
(अर्थात् एक ही है,दूसरा कोई
नहीं) के 'परब्रह्म' हैं,जो अजर,
अमर,अनन्त और इस जगत
का जन्मदाता,पालनहारा व
कल्याणकर्ता है।
के 'एकोऽहं,द्वितीयो नास्ति'
(अर्थात् एक ही है,दूसरा कोई
नहीं) के 'परब्रह्म' हैं,जो अजर,
अमर,अनन्त और इस जगत
का जन्मदाता,पालनहारा व
कल्याणकर्ता है।
आत्मा- ब्रह्म को सर्वव्यापी
माना गया है अत: जीवों में
भी उसका अंश विद्यमान है।
माना गया है अत: जीवों में
भी उसका अंश विद्यमान है।
जीवों में विद्यमान ब्रह्म का
यह अशं ही आत्मा कहलाती
है,जो जीव की मृत्यु के बावजूद
समाप्त नहीं होती और किसी
नवीन देह को धारण कर लेती
है।
यह अशं ही आत्मा कहलाती
है,जो जीव की मृत्यु के बावजूद
समाप्त नहीं होती और किसी
नवीन देह को धारण कर लेती
है।
अंतत: मोक्ष प्राप्ति के पश्चात्
वह ब्रह्म में लीन हो जाती है।
वह ब्रह्म में लीन हो जाती है।
पुनर्जन्म- आत्मा के अमरत्व
की अवधारणा से ही पुनर्जन्म
की भी अवधारणा पुष्ट होती है।
की अवधारणा से ही पुनर्जन्म
की भी अवधारणा पुष्ट होती है।
एक जीव की मृत्यु के पश्चात्
उसकी आत्मा नयी देह धारण
करती है अर्थात् उसका पुनर्जन्म
होता है।
उसकी आत्मा नयी देह धारण
करती है अर्थात् उसका पुनर्जन्म
होता है।
इस प्रकार देह आत्मा
का माध्यम मात्र है।
का माध्यम मात्र है।
योनि- आत्मा के प्रत्येक जन्म
द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि
कहते हैं।
द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि
कहते हैं।
ऐसी 84 लाख योनियों की
कल्पना की गई है,जिसमें
कीट-पतंगे,पशु-पक्षी,वृक्ष
और मानव आदि सभी
शामिल हैं।
कल्पना की गई है,जिसमें
कीट-पतंगे,पशु-पक्षी,वृक्ष
और मानव आदि सभी
शामिल हैं।
योनि को आधुनिक वैज्ञानिक
भाषा में जैव प्रजातियाँ कह
सकते हैं।
भाषा में जैव प्रजातियाँ कह
सकते हैं।
कर्मफल- प्रत्येक जन्म के दौरान
जीवन भर किये गये कृत्यों का
फल आत्मा को अगले जन्म में
भुगतना पड़ता है।
जीवन भर किये गये कृत्यों का
फल आत्मा को अगले जन्म में
भुगतना पड़ता है।
अच्छे कर्मों के फलस्वरूप
अच्छी योनि में जन्म होता है।
अच्छी योनि में जन्म होता है।
इस दृष्टि से मनुष्य सर्वश्रेष्ठ
योनि है।
योनि है।
परन्तु कर्मफल का अंतिम लक्ष्य
मोक्ष प्राप्ति अर्थात् आत्मा का
ब्रह्मलीन हो जाना ही है।
मोक्ष प्राप्ति अर्थात् आत्मा का
ब्रह्मलीन हो जाना ही है।
स्वर्ग-नरक- ये कर्मफल
से सम्बंधित दो लोक हैं।
से सम्बंधित दो लोक हैं।
स्वर्ग में देवी-देवता अत्यंत
ऐशो-आराम की ज़िन्दगी
व्यतीत करते हैं,जबकि नरक
अत्यंत कष्टदायक,अंधकारमय
और निकृष्ट है।
ऐशो-आराम की ज़िन्दगी
व्यतीत करते हैं,जबकि नरक
अत्यंत कष्टदायक,अंधकारमय
और निकृष्ट है।
अच्छे कर्म करने वाला प्राणी
मृत्युपरांत स्वर्ग में और बुरे कर्म
करने वाला नरक में स्थान पाता
है।
मृत्युपरांत स्वर्ग में और बुरे कर्म
करने वाला नरक में स्थान पाता
है।
मोक्ष- मोक्ष का तात्पर्य है-
आत्मा का जीवन-मरण के
दुष्चक्र से मुक्त हो जाना
अर्थात् परमब्रह्म में लीन
हो जाना।
आत्मा का जीवन-मरण के
दुष्चक्र से मुक्त हो जाना
अर्थात् परमब्रह्म में लीन
हो जाना।
इसके लिए निर्विकार भाव से
सत्कर्म करना और ईश्वर की
आराधना आवश्यक है।
सत्कर्म करना और ईश्वर की
आराधना आवश्यक है।
चार युग- हिन्दू धर्म में काल
(समय)को चक्रीय माना गया है।
(समय)को चक्रीय माना गया है।
इस प्रकार एक कालचक्र में चार
युग-कृत (सत्य),सत,त्रेता,द्वापर
तथा कलि-माने गये हैं।
युग-कृत (सत्य),सत,त्रेता,द्वापर
तथा कलि-माने गये हैं।
इन चारों युगों में कृत सर्वश्रेष्ठ
और कलि निकृष्टतम माना गया
है।
और कलि निकृष्टतम माना गया
है।
इन चारों युगों में मनुष्य की
शारीरिक और नैतिक शक्ति
क्रमश: क्षीण होती जाती है।
शारीरिक और नैतिक शक्ति
क्रमश: क्षीण होती जाती है।
चारों युगों को मिलाकर
एक महायुग बनता है,
जिसकी अवधि 43,20,000
वर्ष होती है,जिसके अंत में
पृथ्वी पर महाप्रलय होता है।
एक महायुग बनता है,
जिसकी अवधि 43,20,000
वर्ष होती है,जिसके अंत में
पृथ्वी पर महाप्रलय होता है।
तत्पश्चात् सृष्टि की नवीन
रचना शुरू होती है।
रचना शुरू होती है।
चार वर्ण- हिन्दू समाज चार
वर्णों में विभाजित है-ब्राह्मण,
क्षत्रिय,वणिक तथा सेवक।
वर्णों में विभाजित है-ब्राह्मण,
क्षत्रिय,वणिक तथा सेवक।
ये चार वर्ण प्रारम्भ में कर्म
के आधार पर विभाजित थे।
के आधार पर विभाजित थे।
ब्राह्मण का कर्तव्य विद्यार्जन,
शिक्षण,पूजन,कर्मकांड
सम्पादन आदि है,क्षत्रिय
का धर्मानुसार शासन करना
तथा देश व धर्म की रक्षा हेतु
युद्ध करना,वणिकों का कृषि
एवं व्यापार द्वारा समाज की
आर्थिक आवश्यकताएँ पूर्ण
करना तथा सेवकों का अन्य
तीन वर्णों की सेवा करना एवं
अन्य ज़रूरतें पूरी करना।
शिक्षण,पूजन,कर्मकांड
सम्पादन आदि है,क्षत्रिय
का धर्मानुसार शासन करना
तथा देश व धर्म की रक्षा हेतु
युद्ध करना,वणिकों का कृषि
एवं व्यापार द्वारा समाज की
आर्थिक आवश्यकताएँ पूर्ण
करना तथा सेवकों का अन्य
तीन वर्णों की सेवा करना एवं
अन्य ज़रूरतें पूरी करना।
कालांतर में वर्ण व्यवस्था
जटिल होती गई और यह
वंशानुगत तथा शोषणपरक
हो गई।
जटिल होती गई और यह
वंशानुगत तथा शोषणपरक
हो गई।
सेवकों को अछूत माना
जाने लगा।
जाने लगा।
बाद में विभिन्न वर्णों के
बीच दैहिक सम्बन्धों से
अन्य मध्यवर्ती जातियों
का जन्म हुआ।
बीच दैहिक सम्बन्धों से
अन्य मध्यवर्ती जातियों
का जन्म हुआ।
वर्तमान में जाति व्यवस्था
अत्यंत विकृत रूप में
दृष्टिगोचर होती है।
अत्यंत विकृत रूप में
दृष्टिगोचर होती है।
चार आश्रम- प्राचीन हिन्दू
संहिताएँ मानव जीवन को
100 वर्ष की आयु वाला
मानते हुए उसे चार चरणों
अर्थात् आश्रमों में विभाजित
करती हैं-
-- ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ
और संन्यास।
संहिताएँ मानव जीवन को
100 वर्ष की आयु वाला
मानते हुए उसे चार चरणों
अर्थात् आश्रमों में विभाजित
करती हैं-
-- ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ
और संन्यास।
प्रत्येक की संभावित अवधि
25 वर्ष मानी गई।
25 वर्ष मानी गई।
ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति
गुरु आश्रम में जाकर
विद्याध्ययन करता है,
गृहस्थ आश्रम में विवाह,
संतानोत्पत्ति,अर्थोपार्जन,
दान तथा अन्य भोग विलास
करता है,वानप्रस्थ में व्यक्ति
धीरे-धीरे संसारिक उत्तरदायित्व
अपने पुत्रों को सौंप कर उनसे
विरक्त होता जाता है और
अन्तत: संन्यास आश्रम में
गृह त्यागकर निर्विकार होकर
ईश्वर की उपासना में लीन हो
जाता है।
गुरु आश्रम में जाकर
विद्याध्ययन करता है,
गृहस्थ आश्रम में विवाह,
संतानोत्पत्ति,अर्थोपार्जन,
दान तथा अन्य भोग विलास
करता है,वानप्रस्थ में व्यक्ति
धीरे-धीरे संसारिक उत्तरदायित्व
अपने पुत्रों को सौंप कर उनसे
विरक्त होता जाता है और
अन्तत: संन्यास आश्रम में
गृह त्यागकर निर्विकार होकर
ईश्वर की उपासना में लीन हो
जाता है।
चार पुरुषार्थ- धर्म,अर्थ,काम
और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ ही
जीवन के वांछित उद्देश्य हैं।
और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ ही
जीवन के वांछित उद्देश्य हैं।
उपयुक्त आचार-व्यवहार और
कर्तव्य परायणता ही धर्म है।
कर्तव्य परायणता ही धर्म है।
अपनी बौद्धिक एवं शरीरिक
क्षमतानुसार परिश्रम द्वारा धन
कमाना और उनका उचित
तरीके से उपभोग करना अर्थ
है,शारीरिक आनन्द भोग ही
काम है तथा धर्मानुसार आचरण
करके जीवन-मरण से मुक्ति
प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है।
क्षमतानुसार परिश्रम द्वारा धन
कमाना और उनका उचित
तरीके से उपभोग करना अर्थ
है,शारीरिक आनन्द भोग ही
काम है तथा धर्मानुसार आचरण
करके जीवन-मरण से मुक्ति
प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है।
धर्म व्यक्ति का जीवन भर
मार्गदर्शक होता है,जबकि
अर्थ और काम गृहस्थाश्रम
के दो मुख्य कार्य हैं और मोक्ष
सम्पूर्ण जीवन का अंति लक्ष्य।
मार्गदर्शक होता है,जबकि
अर्थ और काम गृहस्थाश्रम
के दो मुख्य कार्य हैं और मोक्ष
सम्पूर्ण जीवन का अंति लक्ष्य।
चार योग-
ज्ञानयोग,भक्तियोग,कर्मयोग
तथा राजयोग- ये चार योग
हैं,जो आत्मा को ब्रह्म
से जोड़ने के मार्ग हैं।
ज्ञानयोग,भक्तियोग,कर्मयोग
तथा राजयोग- ये चार योग
हैं,जो आत्मा को ब्रह्म
से जोड़ने के मार्ग हैं।
जहाँ ज्ञान योग दार्शनिक एवं
तार्किक विधि का अनुसरण
करता है,वहीं भक्तियोग
आत्मसमर्पण और सेवा
भाव का,कर्मयोग समाज
के दीन दुखियों की सेवा
का तथा राजयोग शारीरिक
एवं मानसिक साधना का
अनुसरण करता है।
तार्किक विधि का अनुसरण
करता है,वहीं भक्तियोग
आत्मसमर्पण और सेवा
भाव का,कर्मयोग समाज
के दीन दुखियों की सेवा
का तथा राजयोग शारीरिक
एवं मानसिक साधना का
अनुसरण करता है।
ये चारों परस्पर विरोधी नहीं,
बल्कि सहायक और पूरक हैं।
बल्कि सहायक और पूरक हैं।
चार धाम-उत्तर,दक्षिण,पूर्व और
पश्चिम- चारों दिशाओं में स्थित
चार हिन्दू धाम क्रमश: बद्रीनाथ,
रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और
द्वारका हैं,जहाँ की यात्रा प्रत्येक
हिन्दू का पुनीत कर्तव्य है।
पश्चिम- चारों दिशाओं में स्थित
चार हिन्दू धाम क्रमश: बद्रीनाथ,
रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और
द्वारका हैं,जहाँ की यात्रा प्रत्येक
हिन्दू का पुनीत कर्तव्य है।
प्रमुख धर्मग्रन्थ- हिन्दू धर्म के
प्रमुख ग्रंथ हैं- चार वेद (ॠग्वेद,
सामवेद,यजुर्वेद और अथर्ववेद)
प्रमुख ग्रंथ हैं- चार वेद (ॠग्वेद,
सामवेद,यजुर्वेद और अथर्ववेद)
तेरह उपनिषद,अठारह पुराण,
रामायण,महाभारत,गीता,
रामचरितमानस आदि।
रामायण,महाभारत,गीता,
रामचरितमानस आदि।
इसके अलावा अनेक कथाएँ,
अनुष्ठान ग्रंथ आदि भी हैं।
अनुष्ठान ग्रंथ आदि भी हैं।
--सोलह संस्कार:-
मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु
तक सोलह अथवा सत्रह पवित्र
संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं-
१) गर्भाधान,
२) पुंसवन (गर्भ के तीसरे माह
तेजस्वी पुत्र प्राप्ति हेतु किया
गया संस्कार),
३) सीमोन्तोन्नयन (गर्भ के चौथे
महीने गर्भिणी स्त्री के सुख और
सांत्वना हेतु),
४) जातकर्म (जन्म के समय),
५) नामकरण,
६) निष्क्रमण (बच्चे का सर्वप्रथम
घर से बाहर लाना),
७) अन्नप्राशन (पांच महीने की
आयु में सर्वप्रथम अन्न ग्रहण
करवाना),
८) चूड़ाकरण (मुंडन),
९) कर्णछेदन,
१०) उपनयन (यज्ञोपवीत धारण
एवं गुरु आश्रम को प्रस्थान),
११) केशान्त अथवा गौदान
(दाढ़ी को सर्वप्रथम काटना),
१२) समावर्तन (शिक्षा समाप्त
कर गृह को वापसी),
१३) विवाह,
१४) वानप्रस्थ,
१५) संन्यास,
१६) अन्त्येष्टी
मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु
तक सोलह अथवा सत्रह पवित्र
संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं-
१) गर्भाधान,
२) पुंसवन (गर्भ के तीसरे माह
तेजस्वी पुत्र प्राप्ति हेतु किया
गया संस्कार),
३) सीमोन्तोन्नयन (गर्भ के चौथे
महीने गर्भिणी स्त्री के सुख और
सांत्वना हेतु),
४) जातकर्म (जन्म के समय),
५) नामकरण,
६) निष्क्रमण (बच्चे का सर्वप्रथम
घर से बाहर लाना),
७) अन्नप्राशन (पांच महीने की
आयु में सर्वप्रथम अन्न ग्रहण
करवाना),
८) चूड़ाकरण (मुंडन),
९) कर्णछेदन,
१०) उपनयन (यज्ञोपवीत धारण
एवं गुरु आश्रम को प्रस्थान),
११) केशान्त अथवा गौदान
(दाढ़ी को सर्वप्रथम काटना),
१२) समावर्तन (शिक्षा समाप्त
कर गृह को वापसी),
१३) विवाह,
१४) वानप्रस्थ,
१५) संन्यास,
१६) अन्त्येष्टी
इस प्रकार हिन्दू धर्म की विविधता,
जटिलता एवं बहु आयामी प्रवृत्ति
स्पष्ट है।
जटिलता एवं बहु आयामी प्रवृत्ति
स्पष्ट है।
इसमें अनेक दार्शनिकों ने अलग
-अलग प्रकार से ईश्वर एवं सत्य
को समझने का प्रयास किया,
फलस्वरूप अनेक दार्शनिक
मतों का प्रादुर्भाव हुआ।।
💐💐💐💐💐💐💐
#साभार_संकलित★💐
-अलग प्रकार से ईश्वर एवं सत्य
को समझने का प्रयास किया,
फलस्वरूप अनेक दार्शनिक
मतों का प्रादुर्भाव हुआ।।
💐💐💐💐💐💐💐
#साभार_संकलित★💐
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