शरीयत कानून का एक सच , जो हमारे-आपके बीच है...
'मंदसौर' की वीभत्स और बर्बर घटना के बीच भी कुछ लोग दुनिया को ये समझाने में लगें हैं कि ऐसे मामलों पर “शरीयत कानून” ही एकमात्र हल साबित हो सकता है जिसके अंदर बलात्कारी को क्रूरता से सजा देने का प्रावधान है और हमेशा ही तरह इस प्रचार से कुछ मूर्ख हिंदू बल्लियों उछल रहें हैं कि बिलकुल शरीयत के मुताबिक ही सजा हो तो मज़ा आ जाये।
जिस "शरीया कानून" की इतनी तरफदारी हो रही है उसके बारे में थोड़ी सी तस्दीक कर ली जाये...
इसी भारत में कुछ साल पहले “इमराना” नाम की एक मुस्लिम महिला के साथ उसके ससुर ने बलात्कार किया था और बलात्कार के बाद उसके समाज में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई थी कि इमराना का अब क्या होगा? मसलन अब वो अपने शौहर के साथ जायेगी या ससुर के साथ रहेगी? बहस ये भी थी कि क्या अब इमराना अपने शौहर के लिये बीबी न रहकर “माँ” हो गई है? अब सीधी बात है कि ऐसी शर्मनाक घटना किसी और समाज में हुई होती तो अपराधी ससुर को सजा मिलती और बलत्कृता को उसके पति के साथ ही समाज रहने को कहता पर वहां ऐसा नहीं हुआ? वहां बहस छिड़ गई!
बहस क्यों छिड़ गई? इसकी वजह है शरीयत में ...उसी शरीयत में जिसके आप सब मुरीद हुये जा रहें हैं. बहस क्या छिड़ी? बहस ये छिड़ी कि चूँकि इमराना के ससुर उसके साथ जिस्मानी-ताअल्लुकात बना चुका है तो फिर वो अपने पति के लिये हराम हो गई है और अब उसका पति अधिक से अधिक उसका पुत्र हो सकता है. इस झगड़े के जड़ में कुरान के अंदर सूरह निसा की एक आयत है जिसमें कहा है कि “आप उनके साथ “निकाह” नहीं कर सकते जिनके साथ आपके पिता "निकाह" कर चुके हैं”
इस आयत में प्रयुक्त शब्द ‘निकाह’ के अरबी में दो अर्थ हैं, एक अर्थ है “वैवाहिक संबंध” और दूसरा संबंध है “जिस्मानी-ताअल्लुकात” यानि मौलानाओं ने इस आयत की तफ्सीर ये पकड़ी कि चूँकि अब उसके ससुर के जिस्मानी-ताअल्लुकात इमराना के साथ हो चुके हैं तो अब वो इस आयत के अनुसार अपने पति के लिये जिस्मानी-ताअल्लुक बनाने लायक नहीं रही। इस फतवे और इस सोच के समर्थन में “दारूल-उलूम देबबंद” और "दारूल-नदवा" समेत कई संस्थानें थी वहीं कुछ दबी हुई आवाजें ये भी थी कि "निकाह" का अर्थ यहाँ शादी से लिया जाये और इस आधार पर इमराना अपने शौहर के लिये हराम नहीं हुई।
जिस शरीयत कानून को महिला रक्षण की गारंटी बताकर बेचने की कोशिश की जा रही है उसका एक सच तो ये है जो हमारे-आपके बीच की ये घटना है।
इमराना अपने ससुर की बीबी बने या बहू बने या फिर अपने शौहर की माँ बने या बीबी बनकर रहे इसकी वेदना केवल इमराना महसूस कर सकी थी उसके समाज के ठेकेदार या शरीयत के रखवाले नहीं.
किसी मुस्लिम विद्वान ने बड़ा सही कहा था कि शरीयत कानून ने सबसे अधिक अपने मानने वालों को ही सताया है मगर अफ़सोस जो लोग इस कालबाह्य कानून से वाकिफ नहीं हैं उन्हें यह शरीयत स्वर्गिक न्याय वाले विधान का एहसास करा रहा है।
इस कालबाह्य कानून के कई रोचक किस्से और भी हैं जिसे आगे सांझा करूँगा। इस झूठ प्रचार से कोई गुमराह न हो.....मेरी कोशिश बस इतनी ही है।--- Abhijeet Singh
'मंदसौर' की वीभत्स और बर्बर घटना के बीच भी कुछ लोग दुनिया को ये समझाने में लगें हैं कि ऐसे मामलों पर “शरीयत कानून” ही एकमात्र हल साबित हो सकता है जिसके अंदर बलात्कारी को क्रूरता से सजा देने का प्रावधान है और हमेशा ही तरह इस प्रचार से कुछ मूर्ख हिंदू बल्लियों उछल रहें हैं कि बिलकुल शरीयत के मुताबिक ही सजा हो तो मज़ा आ जाये।
जिस "शरीया कानून" की इतनी तरफदारी हो रही है उसके बारे में थोड़ी सी तस्दीक कर ली जाये...
इसी भारत में कुछ साल पहले “इमराना” नाम की एक मुस्लिम महिला के साथ उसके ससुर ने बलात्कार किया था और बलात्कार के बाद उसके समाज में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई थी कि इमराना का अब क्या होगा? मसलन अब वो अपने शौहर के साथ जायेगी या ससुर के साथ रहेगी? बहस ये भी थी कि क्या अब इमराना अपने शौहर के लिये बीबी न रहकर “माँ” हो गई है? अब सीधी बात है कि ऐसी शर्मनाक घटना किसी और समाज में हुई होती तो अपराधी ससुर को सजा मिलती और बलत्कृता को उसके पति के साथ ही समाज रहने को कहता पर वहां ऐसा नहीं हुआ? वहां बहस छिड़ गई!
बहस क्यों छिड़ गई? इसकी वजह है शरीयत में ...उसी शरीयत में जिसके आप सब मुरीद हुये जा रहें हैं. बहस क्या छिड़ी? बहस ये छिड़ी कि चूँकि इमराना के ससुर उसके साथ जिस्मानी-ताअल्लुकात बना चुका है तो फिर वो अपने पति के लिये हराम हो गई है और अब उसका पति अधिक से अधिक उसका पुत्र हो सकता है. इस झगड़े के जड़ में कुरान के अंदर सूरह निसा की एक आयत है जिसमें कहा है कि “आप उनके साथ “निकाह” नहीं कर सकते जिनके साथ आपके पिता "निकाह" कर चुके हैं”
इस आयत में प्रयुक्त शब्द ‘निकाह’ के अरबी में दो अर्थ हैं, एक अर्थ है “वैवाहिक संबंध” और दूसरा संबंध है “जिस्मानी-ताअल्लुकात” यानि मौलानाओं ने इस आयत की तफ्सीर ये पकड़ी कि चूँकि अब उसके ससुर के जिस्मानी-ताअल्लुकात इमराना के साथ हो चुके हैं तो अब वो इस आयत के अनुसार अपने पति के लिये जिस्मानी-ताअल्लुक बनाने लायक नहीं रही। इस फतवे और इस सोच के समर्थन में “दारूल-उलूम देबबंद” और "दारूल-नदवा" समेत कई संस्थानें थी वहीं कुछ दबी हुई आवाजें ये भी थी कि "निकाह" का अर्थ यहाँ शादी से लिया जाये और इस आधार पर इमराना अपने शौहर के लिये हराम नहीं हुई।
जिस शरीयत कानून को महिला रक्षण की गारंटी बताकर बेचने की कोशिश की जा रही है उसका एक सच तो ये है जो हमारे-आपके बीच की ये घटना है।
इमराना अपने ससुर की बीबी बने या बहू बने या फिर अपने शौहर की माँ बने या बीबी बनकर रहे इसकी वेदना केवल इमराना महसूस कर सकी थी उसके समाज के ठेकेदार या शरीयत के रखवाले नहीं.
किसी मुस्लिम विद्वान ने बड़ा सही कहा था कि शरीयत कानून ने सबसे अधिक अपने मानने वालों को ही सताया है मगर अफ़सोस जो लोग इस कालबाह्य कानून से वाकिफ नहीं हैं उन्हें यह शरीयत स्वर्गिक न्याय वाले विधान का एहसास करा रहा है।
इस कालबाह्य कानून के कई रोचक किस्से और भी हैं जिसे आगे सांझा करूँगा। इस झूठ प्रचार से कोई गुमराह न हो.....मेरी कोशिश बस इतनी ही है।--- Abhijeet Singh
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