Tuesday, 2 January 2018

. अरब, शेष मुस्लिम विश्व और मुस्लिम मानस का अंतर्द्वंद

करीब दो साल पहले मित्र Abhijeet Singh की टुकड़ों में लिखी पोस्ट को साझा कर रहा हूँ। जिसमें अभिजीत भाई ने आज के इरान के भावी उथल पुथल की भविष्यवाणी कर दी थी। यह लेख, सिर्फ लेख नहीं दस्तावेज है। भविष्य की दृष्टि है। सहेज कर रखें। इत्मीनान से पढ़ें। मनन करें।
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अरब, शेष मुस्लिम विश्व और मुस्लिम मानस का अंतर्द्वंद
इस्लाम का उद्भव अरब के लिए काल विभाजन रेखा है. 570 ईसवी में मक्का के कुरैश कबीले के बनी-हाशिम घराने में हजरत मुहम्मद साहब की विलादत हुई. अपने उम्र के चालीसवें साल में उन्होंने अपने नबी होने का ऐलान किया और बहुदेवतावादी तथा मुर्तिपूजक अरबों को एकेश्वरवाद की तरफ बुलाया. मुहम्मद साहब लगभग तेरस वर्षों तक मक्का में अपने दीन की तबलीग करते रहे पर अपनी मान्यताओं पर दृढ़ मक्का वालों के बीच उन्हें अपेक्षित सफलता न मिली. यहाँ तक कि उनके अपने चाचा तथा संरक्षक अबू तालिब ने भी उनके लाये मजहब को तस्लीम न किया. विरोध इतना बढ़ा कि मुहम्मद साहब को मक्का से हिजरत कर मदीना जाना पड़ा. मदीने में उन्हें अपेक्षित सफलता मिली और वहां जाकर उन्होंने सैन्य संगठन कर मक्के वालों से बद्र और ऊहद की जंग लड़ी.
बद्र की लड़ाई में मुहम्मद साहब की जीत हुई तो ऊहद की जंग में मक्का वाले जीते. रसूल साहब के कुशल नेतृत्व में मदीने वालों ने ताकत संचित किया और फतह-मक्का के दिन हजारों मुस्लिमों के साथ रसूल ने मक्का में प्रवेश किया. इस अप्रत्याशित हमले का मक्का वाले प्रतिकार न कर सके और जिंदा रहने की शर्त इस्लाम थी, इसलिए उस एक दिन में पूरा मक्का इस्लाम में आ गया.
मजहब परिवर्तन किसी जादू की छड़ी से नहीं होता, अगर कोई अपना मजहब तब्दील करता है तो उसे एक बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है. ये महज एक रात में हो जाने वाली घटना नहीं है. फतह-मक्का के दिन एक साथ हजारों लोग मुसलमान बने. कल तक जो लोग इस्लाम और उसके लाने वाले से बेंइतेहा नफरत करते थे, क्या एक ही दिन में उनका हृदय परिवर्तन हो गया?
कल दिन जिनके लिए मुस्लिम उनके अपने बाप-दादों के कातिल थे वो एक दिन में ही भाई हो गये? जो लोग रात-दिन मुस्लिमों के बर्बादी की योजनायें बनाते थे, उनलोगों ने एक ही दिन में अपने ऐसे शत्रुओं को अपना सगा और खैरख्वाह तस्लीम कर लिया? इतिहास तो कहता है, हाँ ऐसा हुआ पर यहाँ सवाल ये है कि अगर ऐसा हुआ तो क्या ये डर और दबाब में था या उस एक दिन में हुआ आश्चर्यजनक मानसिक परिवर्तन था? अगर मानसिक परिवर्तन था फिर तो उस दिन इस्लाम लाने वालों और आज के उनके वंशजों के मन में किसी प्रकार का द्वन्द नहीं होगा और अगर ऐसा नहीं था तो फिर तो अरब की बहुसंख्यक आबादी आज उसी मानसिक द्वन्द में है जिससे आज दुनिया के हर हिस्से का मुसलमान जूझ रहा है.
Islam in its origin is an Arab religion. Everyone not an Arab who is a Muslim is a convert. Islam is not simply a matter of conscience or private belief. It makes imperial demands. A convert‟s world view alters. His holy places are in Arab lands; his sacred language is Arabic. His idea of history alters. He rejects his own; he becomes whether he likes it or not, a part of the Arab story. The convert has to run away from everything that is his. The disturbance for societies is immense, and even after a thousand years can remain unresolved; the turning away has to be done again and again. People develop fantasies about who and what they are; and in the Islam of converted countries there is an element of neurosis and nihilism. These countries can be easily set on the boil.
यह उद्धरण प्रसिद्ध लेखक और नोबेल विजेता वी0 एस0 नायपॉल की किताब Beyond Belief: Islamic Excursions among the Converted Peoples से लिया गया है. संक्षेप में समझें तो नायपॉल साहब बता रहे हैं कि " एक गैर-अरब मतांतरित मुसलमान की मानसिकता उसे उसके गैर-अरबी होने की कमी को पूरा करने के लिये और भी पक्का मुसलमान बनने या दिखने की कोशिश करने पर मजबूर करता है. यह उसके मजहब की उस विशिष्ट प्रेरणा
के कारण होता है, जिसके अनुसार विश्व की सबसे पवित्र व महान भूमि अरब है. बाकी विश्व जाहिलिया है जिसे आज नहीं तो कल या तो नष्ट होना है अथवा इस्लाम कबूल करना है. अतः एक मतांतरित गैर-अरब मुसलमान अपने को हर जाहिलिया से इतर दिखाने की जिद में अपने ही पूर्व के इतिहास, संस्कृति व पूवजों को खारिज करता है. यह एक ही साथ एक प्रकार की गहरी हीन भावना व इस्लामी अहंकार का मिश्रण है".
नायपॉल साहब ने ये बात यूं ही नहीं कह दी. उनका उपरोक्त निष्कर्ष दुनिया के अलग-अलग इस्लामी मुल्कों में उनके भ्रमण और मुस्लिम मानसिकता को करीब से देखने के उनके अनुभवों का निष्कर्ष है. नायपॉल साहब की बातों से मुझे थोड़ी सी असहमति है और उनके बात को थोड़ा विस्तार भी देना है. नायपॉल साहब ने लिखा है Everyone not an Arab who is a Muslim is a convert जबकि मेरा मत ये है कि हर मुस्लिम चाहे वो अरब हो या गैर-अरब मतांतरित ही है, एक अरब मुस्लिम भी मतांतरित ही है, बाकियों की तरह उसने भी तो मजहब तब्दील किया था, बाप-दादों के दीन को छोड़ा था और बतौर नए मजहब इस्लाम को चुना था. उपरोक्त कथन के साथ नायपॉल साहब ने जो बात नहीं कही कि वो ये है कि दुनिया के हर मुस्लिम का मस्तिष्क एक जंग का मैदान बना हुआ रहता है, जिसमें अरब की सभ्यता और उसके अपने देश की सभ्यता में तथा मजहबे-इस्लाम और उसके अपने बाप-दादों के दीन में संघर्ष चलता रहता है. ऊपरी तौर पर मेरे इस कथन से असहमति हो सकती है पर वैश्विक स्तर पर मुस्लिम मन का अध्यनन इसी को साबित करता है.
मुस्लिम मन के इस द्वंद के कई उदाहरण दिए जा सकतें हैं. इस मानसिक द्वन्द के नतीजे में ही तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा जन्मे, जिन्होंने इस्लाम के नाम पर अरब सभ्यता को स्वीकारने से मना कर दिया. सन् 1920 में ग्रैण्ड नेशनल असेम्बली का प्रथम अधिवेशन मुस्तफा कमाल पाशा की अध्यक्षता में अंकारा में हुआ. इस असेंबली ने 3 मार्च 1924 को तुर्की का संविधान पारित किया, इस संविधान की धारा 2 में इस्लाम को राजकीय मजहब घोषित किया गया था, 1928 में संविधान से यह धारा निकाल दी गई यानि इस्लाम अब राजकीय मजहब नहीं रहा. इसके बाद पान-इस्लामिज्म के स्थान पर पान-तुर्कीइज्म शब्द का प्रयोग होने लगा. सन् 1925 में शरीयत के अनुसार की जाने वाली शादियों को अवैध घोषित कर किया गया और उसकी जगह युगानुकुल कानून लाये गये. पर्दा प्रथा भी खत्म की गई. मजे की बात तो ये है कि सन् 1928 में अरबी लिपि को भी अवैध घोषित कर दिया गया जो पवित्र कुरान की भाषा थी और उसकी जगह रोमन लिपि को स्वीकार कर लिया गया. कमालपाशा ने भाषा शुद्धिकरण अभियान चलाते हुए अपनी भाषा में से चुन-चुन कर अरबी शब्दों को निकाल दिया, अजान, कुरान और नमाज़ें तुर्की भाषा में होने लगी. 1934 में महिलाओं को मताधिकार का हक दिया गया और तो और सन् 1935 में शुक्रवार के स्थान पर रविवार की छुट्टी शुरू की गई. अब जाहिर है कि ये सारी बातें इस्लामी शरीयत से मेल खाने वाली नहीं थी. विरोध के स्वर उभरे तो कमाल पाशा ने बड़ा स्पष्ट कहा कि हम तुर्क पहले हैं मुस्लिम बाद में और हम व्यक्तिगत रुप से उपासना में इस्लाम को पूरा सम्मान देंगें मगर इसका यह कदापि मतलब नहीं कि हम इस्लाम के नाम पर तुर्की की अपनी मूल राष्ट्रीय संस्कृति के ऊपर अरबी संस्कृति के आक्रमण को भी सहन कर लें इसलिए हम हम तुर्की की अपना भाषा, अपने रिवाज और अपनी विरासत पर अरबी का आक्रमण बर्दाश्त नहीं कर सकतें .
कमालपाशा का मनोद्वंद तुर्की के बहुसंख्यक युवकों का भी मनोद्वंद था इसलिए इस्ताम्बुल की सड़कों पर कट्टरपंथी मुल्लाओं और इन युवकों में संघर्ष चला पर जीत नैसर्गिक मानव मन यानि अपना मुल्क, अपनी संस्कृति, अपने रिवाज की अवधारणा की हुई. इस मनोद्वंद का विस्तार तुर्की की सीमाओं तक ही नहीं रहा बल्कि दुनिया के हर इस्लामिक मुल्क के मुस्लिम मानस को कमाल पाशा के कदम ने झकझोर कर रख दिया. अगला नंबर ईरान और मिश्र का था ...
ईरान एशिया का एक बड़ा मुल्क है जहाँ इस्लाम सातवीं सदी में पहुंचा. ईरान के लोग जरथ्रुस्त के धर्म के अनुयायी थे, जब इस्लाम वहां आया तो वहां के बहुसंख्यक लोगों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा और जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया उन्हें यातनाएं दी गई. अंतहीन यातनाओं से बचने और अपने धर्म को बचाने के लिए कुछ लोग वहां से भागकर भारत आ गये.
ईरान दुनिया के उन चंद मुल्कों में शुमार है जिसके पास अपना एक अत्यंत समृद्ध इतिहास, सभ्यता और अतीत है. ईरान के पास जेंदा-अवेस्ता जैसा ग्रन्थ है ; जिसके बारे में कहा जाता है कि वह काफी हद तक अथर्ववेद की तरह है. इतने गौरव वाले ईरान पर जब अरब आक्रान्ता आये तो उन्होंने ईरानियों का सबकुछ लील लिया और आक्रमण की इस आंधी ने ईरान के गौरवशाली अतीत को अरबी मरुभूमि के गर्दो-गुबार के तले ढँक दिया. जिन लोगों की सुबह अग्नि जलाकर अवेस्ता के पवित्र पाठ से होती थे वो अब अग्नि-पूजन को शैतानी काम समझने लगे, जो अवेस्ता उन्हें दिशा दिखाता था वो उनके लिए ऐसी किताब हो गई थे जिसको इलाही कलाम समझना ही कुफ्र था. उनके अपने बाप-दादा अब उनके लिए कुफ्र के वो सरगना थे जो हमेशा-हमेशा के लिए जहन्नम की आग में दहकने वाले थे. मतांतरित ईरानियों में विस्मृति का ये कालखंड काफी लंबा चला और तब तक वो उसी अज्ञान-लोक में विचरते रहे जब तक वहां रजा शाह पहलवी का उदय नहीं हो गया.
रजा शाह पहलवी बेशक मुस्लिम थे पर अरब सभ्यता के गुलाम नहीं थे. उन्हें ये एहसास हो गया था कि मेरे मुल्क को अरब ने या इस्लाम ने नहीं गढ़ा बल्कि ये तो तब से वजूद में है जब इस्लाम का उद्भव भी नहीं हुआ था, कुरान तो 1300 पहले नाजिल हुआ इलाही कलाम है पर हम भी जाहिल नहीं थे, हमारे पास भी एक आसमानी किताब थी जिसका कलाम शायद दुनिया में वेदों के बाद सबसे सशक्त और मुकद्दस है. हमारे अपने पूर्वज भी थे जो पैदा तो इस्लाम से पूर्व हुए थे पर जिनकी कीर्ति-पताका सारी दुनिया में फ़ैली हुई थी. इस गौरवबोध को लेकर नवजागृत रजा शाह ने ईरान में एक इंकलाब बरपा कर दिया, खुद को उसने मुस्लिम से पहले एक आर्य कहा और इसलिए उसने सदियों से चले आ रहे अपने मुल्क का नाम फारस से बदलकर ईरान कर दिया क्योंकि ईरान (या एरान) शब्द आर्य मूल के लोगों के लिए प्रयुक्त शब्द एर्यनम से निकला है, जिसका अर्थ है आर्यों की भूमि. यानि रजा शाह ने ईरान को इस्लाम की भूमि नहीं बल्कि आर्यों की भूमि घोषित किया. 1930 का उसका पूरा दशक ईरान में इसी गौरव-बोध को जागृत करने में गुजरा. उसने शिक्षा में अभूतपूर्व सुधार किये, उन्मादी मजहबी शिक्षा को कड़ाई से रोका और कट्टरपंथी उलेमाओं को या तो जेल में डाल दिया या फिर देश से निकाल दिया. समाज और राष्ट्र जीवन के हर काम से उसने इस्लाम को अलग कर ईरान को बिलकुल पश्चिमी मुल्कों की तर्ज़ पर संवारा.अतीत का गौरव जागृत करने और पूर्वजों की स्मृति सहेजने और संजोने के लिए उसने स्कूल, कॉलेज, सड़क और अस्पतालों के नाम रुस्तम, सोहराब, जमशेद जैसे अपने महान पारसी पूर्वजों के नाम पर रखवाए .
ये मुस्लिम मानस का द्वन्द ही था जिसके चलते अरब साम्राज्यवाद के कारण अपनी पहचान खो चुका ईरान अब पुनः जागृत होकर अपने स्वर्णिम अतीत का अभिमान लेकर खड़ा था (हालांकि खुमैनी के उद्भव ने इस पर विराम लगा दिया पर इसकी वजह दूसरी है
इस मानसिक द्वन्द से मिस्र भी बचा न रह सका, वहां की खुदाई के बाद जब पिरामिड मिलने शुरू हुए तो मुल्ला-मौलवियों ने उसे कुफ्र से जोड़ते हुआ कहा कि फ़राओ राजाओं के इन मकबरों को जमींदोज कर दो क्योंकि ये लोग हमारे अंबिया (खासकर हजरत मूसा) के दुश्मन थे. मौलवियों के इस फतवे ने इस द्वन्द को जमीन पर उतरने का आधार दे दिया. अरब संस्कृति की जकड़न में कसमसा रहा मिश्री मानस उद्वेलित हो उठा. लोग उठ खड़े हुए और कट्टरपंथी उलेमाओं की गिरेबान थाम कर उनसे पूछा कि जो हज़रत मुहम्मद साहब से पहले पैदा हुआ उसके मुसलमान या काफिर होने का फैसला तुम कैसे कर सकते हो? फ़राओ राजा चाहे जैसे भी हों पर वो हमारे पूर्वज थे और उनकी स्मृति चिन्हों को सहेज कर सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है. अरबी गुलामी से बाहर निकले इन नवजागृतों ने इतिहास से ढूँढ-ढूँढ कर फ़राओ राजाओं की यशगाथाएं सामने लाई. अपने पूर्वजों की स्मृति में कई कार्यक्रम किये, स्मारिकाएं निकाली गई, नई पीढ़ी को बताया जाने लगा कि खलीफाओं के द्वारा मिश्र को विजित किये जाने के पूर्व भी हम थे, हमारा स्वर्णिम अतीत था, हमारे महान पूर्वज थे. मिश्र का गौरवशाली शहर काहिरा महीनों तक इन नवजागृतों और मजहबी उन्मादियों के द्वन्द को देखता रहा पर जीत उनकी हुई जो अपने राष्ट्रीय गौरव के साथ थे. उनकी कोशिश के नतीजे में ही आज मिश्र के पिरामिड बचे हुए हैं.
इंडोनेशिया के बारे में कहें तो आज से सात-आठ सौ साल पहले वो लघु भारत ही था फिर वहां इस्लाम आया और वहां के बाली जैसे कुछेक द्वीपों को छोड़कर लगभग पूरा इंडोनेशिया इस्लाम की गोद में चला गया. परन्तु तुर्की, ईरान की तरह इंडोनेशिया इस्लाम को अपनाकर भी सुप्त नहीं हुआ बल्कि उसने इस्लाम से केवल उपासना पद्धति ही ली, अपने ऊपर अरब संस्कृति को शुरू से ही हावी होने नहीं दिया. आज इंडोनेशिया बेशक दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामी मुल्क है पर आज भी उसने अपनी हिन्दू संस्कृति को तिलांजलि नहीं दी है, हमारे यहाँ के लोगों की तरह उन्होंने खुद को अपने पूर्वज, परंपरा व संस्कृति से काटा नहीं है.
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी जब विश्व सिंधी सम्मेलन में भाग लेने के लिये इंडोनेशिया गये थे तो वो विश्व के इस सबसे बड़े इस्लामी मुल्क में हिंदुत्व का प्रभाव देखकर चकित रह गये थे. वहां से आने के बाद उन्होंने बताया था कि वहां के स्थलों, संस्थानों और लोगों के नामों पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव झलकता है, वहां के लोग रामायण और महाभारत के कथानक से भलीभांति परिचित हैं, अपनी इस यात्रा में आडवाणी जी बाली की राजधानी डेनपासर भी गये थे, वहां एक मूर्ति की तरफ इशारा करते हुये उनके ड्राइवर ने उन्हें बताया कि ये घटोत्कच की मूर्ति है. आडवाणी स्तब्ध रह गये क्योंकि घटोत्कच को तो हिंदुस्तान के बहुत सारे लोग नहीं जानते पर मुस्लिम इंडोनेशिया का एक सामान्य ड्राइवर भी उससे भलीभांति परिचित है और सिर्फ परिचित ही नहीं है वरन् अपने देश में धूमने आने वाले पर्यटकों को गर्व से अपनी प्राचीन विरासत और धरोहर दिखाता है.
इसी तरह की एक धटना और है. प्रख्यात साहित्यकार विधानिवास मिश्र एक बार इंडोनेशिया की यात्रा पर थे. वहां इंडोनेशिया के कला विभाग के निदेशक सुदर्शन के साथ जब वो इंडोनेशिया के प्राचीन स्थलों का निरीक्षण कर रहे थे तो रास्ते में उन्होनें देखा कि कुछ संगतराश पथ्थरों पर कुछ अक्षर उकेर रहें हैं. विधानिवास मिश्र ने सुर्दशन से जानना चाहा कि इन पथ्थरों पर क्या उकेरा जा रहा है? तो सुर्दशन ने (जो इस्लाम मत के मानने वाले थे) ने बताया कि यहां के मुस्लिमो में रामायण और महाभारत के प्रति अतिशय भक्ति भावना है इसलिये कुछ लोग अपने कब्र पर लगाये जाने वाले पथ्थर पर जावाई भाषा में महाभारत और रामायण की कोई पंक्ति खुदवातें हैं. यह सुनकर विधानिवास मिश्र स्तंभित रह गये कि एक ऐसे मुल्क में जहां 98 फीसदी से अधिक मुसलमान हैं पर फिर भी अपने पूर्वजों की विरासत के प्रति इतना सम्मान भाव है. यह कहानी केवल इंडोनेशिया के आम जनों की नहीं है वरन् वहां की राज्यव्यवस्था और राजकीय प्रतीकों में भी पूर्वजों के प्रति सम्मान झलकता है. इंडोनेशिया के मिलिट्री इंटिलेजेंस का आधिकारिक शुभंकर वीर बजरंग वली हैं, वहां के एयरवेज का नाम गरुड़ है जो भगवान बिष्णु का वाहन हैं. दुनिया की इस सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश में बुद्ध पूर्णिमा के मौक़े पर राष्ट्रीय छुट्टी होती है जिसे यहां हरि राया वैसाख कहा जाता है, हर बर्ष रामनवमी के अवसर पर वहां रामलीला का मंचन होता है जिसमें सारी भूमिकाएं मुस्लिम ही संपादित करतें हैं. इंडोनेशिया में एक बार अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई थी तब वहाँ के आर्थिक चिंतको ने बहुत विचार मंथन कर बीस हजार का एक नया नोट जारी किया, जिस पर विघ्न हर्ता "गणेश जी" का चित्र छापा गया, जिसके बाद आश्चर्यजनक रूप से वहां की अर्थव्यवस्था मजबूत हो गई. वहां के लोगों के नाम आज भी हिन्दू ही होतें हैं.
इंडोनेशिया के मुस्लिमों का सच सारी दुनिया के मुस्लिमों का सच है कि मजहब की तबदीली पूर्वजों की तब्दीली नहीं है, उपासना पद्धति की तब्दीली संस्कृति और संस्कारों का परिवर्तन नहीं है, औरों के सुधार के लिये भेजे गये नबियों का अनुशरण अपने महान पूर्वजों को ठुकराना नहीं है, दूसरे मुल्क में स्थित उपासना केद्रों के प्रति आदर अपने मुल्क के आस्था केन्द्रों का अनादर करने का आधार नहीं हो सकता.
इस सच को दुनिया के मुसलमान समझें और तद्नुरुप व्यवहार करे तो निश्चित रुप से मजहबों के बीच के आपसी मतभेद दूर होगें और परस्पर एकात्म भाव सुढ़ृढ़ होगा.

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