Monday, 2 July 2018

आचार्य चाणक्य की मौत कैसे हुई थी?
आचार्य चाणक्य ने न सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा पूरी की बल्कि उन्होंने एक साधारण सी महिला मुरा के पुत्र को मगध की गद्दी पर बैठा दिया। कहते हैं कि मुरा के कारण ही चंद्रगुप्त का उपनाम मौर्य पड़ा। इस चंद्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार था और बिंदुसार का पुत्र ही महान सम्राट अशोक था। अब सवाल यह उठता है कि अखंड भारत का निर्माण करने के बाद आचार्य चाणक्य की मौत कैसे हुई?
चंद्रगुप्त के मरने के बाद आचार्य के अनुशासन तले राजा बिंदुसार सफलतापूर्वक शासन चला रहे थे। लेकिन इसी काल में वे पारिवारिक संघर्ष, षड़यंत्र का सामना भी कर रहे थे। कहते हैं कि परिवार और राज दरबार के कुछ लोगों को आचार्य चाणक्य की राजा के प्रति इतनी करीबी पसंद नहीं थी। उनमें से एक नाम राजा बिंदुसार का मंत्री सुबंधु का था जो कुछ भी करके आचार्य चाणक्य को राजा से दूर कर देना चाहता था।
सुबंधु ने चाणक्य के विरुद्ध कई षड्यंत्र रचे। राजा बिंदुसार के मन में यह गलतफहमी भी उत्पन्न की गई कि उनकी माता की मृत्यु का कारण कोई और नहीं वरन् स्वयं आचार्य चाणक्य ही हैं। ऐसा करने में सुबंधु कुछ सफल भी हो गया। इस कारण धीरे-धीरे राजा और आचार्य में दूरियां बढ़ने लगीं। यह दूरियां इतनी बढ़ गईं कि आचार्य चाणक्य ने महल छोड़कर जाने का फैसला कर लिया और एक दिन वे चुपचाप महल से निकल गए।
उनके जाने के बाद, एक दाई ने राजा बिंदुसार को उनकी माता की माताजी का रहस्य बताया। उस दाई के अनुसार आचार्य "सम्राट चंद्रगुप्त" के खाने में रोजाना थोड़ा-थोड़ा विष मिलाते थे ताकि वे विष को ग्रहण करने के आदी हो जाएं और यदि कभी शत्रु उन्हें विष का सेवन कराकर मारने की कोशिश भी करे तो उसका राजा पर कोई असर ना हो।
लेकिन एक दिन वह विष मिलाया हुआ खाना गलती से राजा की पत्नी ग्रहण कर लेती है जो उस समय गर्भवती थीं। विष से पूरित खाना खाते ही उनकी तबियत बिगड़ने लगती है। और जब आचार्य को इस बात का पता चला तो वे तुरंत रानी के गर्भ को काटकर उसमें से शिशु को बाहर निकाल लेते हैं और इस तरह राजा के वंश की रक्षा करते हैं। दाई आगे कहती है कि यदि चाणक्य ऐसा नहीं करते तो आज आप मगथ के राजा नहीं होते।
_अब बिन्दुसार ने अपराधियों, षडयंत्रकारियों को उचित दंड दिया, और आचार्य की तलाश में जगह जगह अपने सैनिकों को भेजा। यहाँ से कई मत प्राप्त होते हैं इतिहास में। एक यह कि आचार्य घने जंगलों में चले गए थे, और सैनिकों से वापस आने को मना कर दिया। तथा वहीँ जंगल में अन्न जल का त्याग करके अपने प्राण त्याग दिया, लेकिन राजमहल वापस नहीं लौटे।
कहीं कहीं ये भी लिखा मिलता है कि,.. वो जंगल में तो गए, लेकिन किसी भी सैनिक को मिले नहीं। और अपना देह त्याग, अन्न जल त्याग कर ही किया। ...यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि जीवन के सभी लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद, आर्यावर्त के अधिकतर विज्ञजन, ऋषि, महर्षि लोग खुद से अपनी देह त्याग कर देते थे।
_सवाल यहाँ से उठता है। एक बार घनानंद से अपमानित होने के बाद, उन्होंने उसके सम्पूर्ण राज्य का विनाश कर देने का संकल्प लिया और उसे पूरा भी किया। ..लेकिन राज्य के एक अति सम्मानित पद पर होते हुए भी, बिन्दुसार द्वारा अपमानित करके राज्य से बाहर निकाल देने के बाद भी,.. आचार्य ने बिन्दुसार के खिलाफ कुछ भी गलत क्यों नहीं किया ? क्यों नहीं वे जाकर दुश्मन की गोद में बैठ गए ?
मौर्य साम्राज्य की हर सुरक्षा व्यवस्था, सारे गुप्त मार्ग, सारी शासन व्यवस्था उन्होंने अपने हाथों से बनाया था। उसके सारे कमजोर पक्षों को भी उनसे ज्यादा अच्छी तरह से कोई भी नहीं जानता था !!.. उनके विश्वासपात्र भी, बिदुसार की संख्या में कहीं बहुत अधिक होंगे। फिर भी आचार्य ने ऐसा कुछ गलत क्यों नहीं किया?? एक उच्च कोटि का ब्राह्मण, बिना अपनी गलती के, एक "मौर्य" से अपमानित हुआ,.. फिर भी उस व्यक्ति ने कुछ बदला क्यों नहीं लिया?? जबकि उस व्यक्ति के बदला लेने की क्षमता से उस वक़्त पूरा संसार परिचित था, आज भी है,. और कल भी संसार उनको याद रखेगा। फिर भी आचार्य ने कुछ भी नहीं किया,.. क्यों ?
__क्योंकि वो एक ब्राह्मण से पहले, एक राष्ट्रभक्त थे। जिस राष्ट्र को उन्होंने अपने हाथों से रचा, प्रजा को अपनी व्यवस्था से "निर्भय" किया। ये सुनिश्चित किया कि,.. राजा जो भी हो, वो घनानंद की तरह अत्याचारी ना हो। तो उसी राष्ट्र के खिलाफ कैसे वो कुछ गलत करते। वो भी सिर्फ अपने अपमान की खातिर उन्होंने अपने जीवन का त्याग स्वीकार किया, परन्तु "राष्ट्र" के हितों के खिलाफ नहीं ही गए !!
आचार्य ने अपने जीवन से दिखाया है कि एक असल का ब्राह्मण कैसा होना चाहिए। अगर देश में अन्याय है, तो उसका विरोध करो। लेकिन विरोध सिर्फ इस वजह से कि,.. वो "हमारी जाति" के लोगों को सम्मान नहीं दे रहा है,.. तो ये गलत है, ये स्वार्थ है। सबसे पहले राष्ट्र है, फिर धर्म है और फिर जाति है।
अगर मोदी ने किसी ब्राह्मण को राष्ट्रपति नहीं बनाया, तो मैं वामियों की गोद में जाकर बैठ जाऊं? या फिर गाँधी के मरने के बाद हजारों ब्राह्मणों की हत्यारी कांग्रेस की गोद में बैठ जाऊं?? या फिर चौराहे पर बीफ पार्टी करने वालों के साथ खड़ा हो जाऊं?? नहीं मुझसे नहीं होगा यह। आप शुक्राचार्य बन जाइये, या आर्यावर्त के किसी पश्चिमी राज्य के प्रधानमंत्री बन जाइये, जिसने अपनी पत्नी के अपमान के बदले में,.. मुस्लिम आक्रान्ताओं को निमंत्रण देकर, पूरे राज्य के स्त्री पुरुषों का कत्लेआम अपनी आँखों से देखा था।
या फिर आप वामपंथी बन जाइये, जो ब्राह्मण होते हुए भी अपने ही धर्म को अश्लीलता की हद तक जाकर गाली देते हैं, हिन्दू धर्म का विनाश ही उनकी हर कुचेष्टा का उद्देश्य होता है। या फिर आप "सतीश मिश्रा" बन जाइये,.. जो बहन जी की गोद में बैठ कर "तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार" वाले नारे लिखता है।
मैं, हाँ मुझे अपने ब्राह्मण होने पर गर्व है, हो सकता है कि मैंने पिछले जन्म में कुछ अच्छे कर्म किया होऊं। लेकिन मेरे लिए राष्ट्र सर्वप्रथम है, और द्वितीय मैं हिन्दू हूँ, सारे हिन्दू मेरे भाई हैं। जाति इत्यादि मेरे लिए इन सबसे बाद में आती है।

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