Monday, 2 July 2018

आपने वो आयुष्मान खुराना वाली फिलिम 'हवाईजादा' देखी हैं ???
इसमें वो आधुनिक दुनिया की पहली विमान बनाने वाले महाराष्ट्र के शिवकर बापूजी तलपड़े का रॉल निभाते हैं। इसमें देखियेगा कि वो फ्यूल के लिए बहुत कुछ ट्राय करते है.. सारा डिजाइन वो वैदिक विमान शास्त्र के अनुरूप करते हैं लेकिन ईंधन को ये मिस कर जाते हैं.. जिसके लिए वो बहुत भटकते है.. फिर वो बनारस जाते हैं जहाँ एक साधु मरक्यूरी के लिए कॉर्डवर्ड देते हैं.. और जब वो कॉर्डवर्ड को क्रेक कर लेते हैं और फ्यूल के रूप में मरक्यूरी यूज करते हैं तो विमान उड़ पड़ती है।.. लेकिन ये पश्चिमी गोरों को कहाँ पसंद ? कि एक इंडियन तो केवल कुत्ता होता है,इससे ज्यादा इनकी हैसियत कहाँ ? ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी जो रोथ्स्चाइल्ड चलाता है के माध्यम से सारे दस्तवावेज वो चोरी कर के ले जाता है और उसके आठ साल बाद राइट ब्रदर्स जहाज उड़ाने में कामयाब हो पाते हैं।
जितने भी वैदिक विमान थे सभी मे mercury vortex ion engine थे। Ion Engine को पहली बार प्रदर्शित करने वाले जर्मन मूल के NASA साइंटिस्ट Ernst Stuhlinger थे। और जर्मनी में वैदिक विमान से संबंधित ग्रन्थों को Hermann Gundert ने लाया था जिसे Ernst ने अध्ययन किया था।
Ion Propulsion सिस्टम का अंतरिक्ष प्रोग्राम के लिए नासा ने Space Electric Rocket Test SERT का प्रयोग किया। इसमें मास फ्यूल के तौर पे मरक्यूरी का यूज किया गया।
पहला SERT याने SERT-1 लांच हुआ 20 जुलाई 1964 को और जिस टेक्नोलॉजी को स्पेस प्रोग्राम के लिए यूज करना चाहते थे वो सक्सेसफुल रहा। उसके बाद SERT-2 लांच हुआ 3 फरवरी 1970 को .. और इन दो प्रयोगों ने मरक्यूरी इंजन को हजारों घण्टों तक रन होने वाला प्रूफ कर दिया।
दुनिया भर में मरक्यूरी का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है.. लेकिन भारतीयों के लिए ये 11 हजार साल पुराना है। धरणीधर संहिता मरक्यूरी को शोधित करने का 11 स्टेप्स बताता है जिसके बाद सॉलिड शिवलिंग बनाया जाता है।
और यह शिवलिंग बहुत ही ताकतवर होता है और मष्तिस्क को तीक्ष्ण भी रखता है। महादेव पार्वती से कहते है कि यदि कोई पारा(मरक्यूरी) शिवलिंग की पूजा करता है तो वह कभी भी बीमारियों के संपर्क में नहीं आएगा और चेहरा हमेशा दमकता रहेगा।
सोलोमन के मंदिर में ठोस मरक्यूरी शिवलिंग मिलता है जिसे मूढ़ वेटिकन वाले जला देते हैं।
जितने भी पुराने रहस्यमय जगहें हैं पृथ्वी में सब मे एक चीज कॉमन है और वो है मरक्यूरी। और आर्टिफिशियल या शोधित मरक्यूरी का काम भारतीय करते थे जिसे चिकित्सा और फ्यूल के तौर पर यूज किया जाता था। मोहनजोदड़ो ,अफगानिस्तान,किर्गिस्तान का इलाका इसका केंद्र हुआ करता था। अभी भी अफगानिस्तान में ऐसे ऐसे कई गुफाएं हैं जहाँ मरक्यूरी के भंडार है। अमेरिकी सेनाओं का इनसे बहुत पाला पड़ा हुआ है और रेडिएशन से कितने सैनिक मर भी चुके हैं। इन्हें सख्त निर्देश था कि ऐसी कोई भी गुफा मिलती है तो वहाँ प्रवेश न करें।
एज़्टेक का TEOTIHUACAN पिरामिड, हिमालय का KONGKA-LA और अंटार्टिका ये सभी और कुछ नहीं बल्कि वैदिक विमानों के रिफ्यूलिंग सेंटर्स थे। इन जगहों पे विमान रिफ्यूल होते थे और पूरे ब्रह्मांड में चक्कर काटते थे।.. एज़्टेक तो खैर पब्लिक डोमेन में आ गया लेकिन अंटार्टिका और कोंगका-ला अभी भी रहस्य है। कोंगका-ला भारत और चीन के विवादित हिस्से में है .. वैसे ये भारत में ही था लेकिन चीन ने अक्शाई चीन करके विवादित कर दिया। इनसे जरा दूर बॉर्डर इलाके में भारत और चीन दोनों के सैनिक तैनात रहते हैं। यहाँ किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है। बॉर्डर हिस्से में पोस्टेड होने वाले कई फौजी अक्सर यहाँ UFO को देखे हैं।.. गिज्जा के पिरामिड और एज़्टेक के पिरामिड में उकेरे गए विभिन्न प्रकार के विमान के चित्र भी ये स्पष्ट प्रमाण देते है कि यहाँ विमान उतरते थे और रिफ्यूलिंग होता था।
मरक्यूरी का जितने भी प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली हैं सब में इसका उपयोग है।
और मरक्यूरी शिवलिंग तो स्वयं शिव को भी सबसे प्रिय है।
वैसे ये सब लिख के भी कोई फायदा थोड़े है.. हमारे कूल डूड और इंडियन्स भाय बहिन ये सब थोड़े न मानेंगे .. उन्हें तो टोटली बकवास और फंतासी ही लगेगा.. अगर ये सब था तो सब कहाँ चला गया ?? यूजलेस इंडियन फेलो। जब तक रोथ्स्चाइल्ड के टट्टू साइंटिस्ट इस चीज को कोई बड़के इंटरनेशनल मैग्जीन में नहीं छापेंगे तब तक थोड़े न मानेंगे।
इतना सबकुछ था हमारे पास तो सब कहाँ चला गया??
जैसे माया का चला गया,मिस्र का चला गया वैसे भारत का चला गया तो इसमें इतना सर पीटना क्या ? वैसे हम माया और मिस्र से बहुत जादे जीवित हैं। नासा में जायेंगे तो सबसे ज्यादा मुंडी भारत और चीन के ही मिलेंगे। क्योंकि रोथ्स्चाइल्ड खूब पैसा जो देता है। लेकिन फिर भी हम सबसे गए गुजरे।
और अभी भी हम गए गूजरों का रहस्य इतना गहरा कि ये बड़के सॉ कोल्ड मॉडर्न साइंस बिलियन्स ऑफ डॉलर खर्चा करके पीछे पड़े हुए हैं।
जय बूढ़ा बाबा।
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संघी गंगवा
खोपोली से।
विमान और उस पर शास्त्र
#Aircraftinancientindia
प्राचीन भारत में आकाश में उड़ने वाले विमान थे - यह कल्पना है या वास्तविकता। यह सवाल हमेशा मैं भी सोचता हूं और मित्रगण आज भी पूछते हैं। पुष्पक विमान ने राम को जल्द ही लंका से अयोध्या पहुंचा दिया था. यक्षों के अन्य विमानों के नाम भी मिलते हैं। मगर, यह विवरण महाकाव्यों और पुराणों में ही ज्यादा आया है। कुछ संदर्भ वैदिक साहित्य में भी खोजे गए हैं।
मौर्यकालीन विवरणों में भी इस प्रकार के संदर्भ मिलते हैं। गुप्तकाल में विष्णु शर्मा लिखित पंचतंत्र में एक कामुक के विमान पर सवार होकर राजप्रसाद में पहुंचने का संदर्भ आता है। मगर, सबसे अाश्चर्यजनक वर्णन 1015 ईस्वीे में राजाभोज द्वारा लिखित, संपादित ' समरांगण सूत्रधार' में है जिसमें विमान बनाने की विधि है। राजा भोज ने पारे से विमान के उड़ाने की विधि को लिखा है, जो उस काल में सबसे आश्चर्यमय धातु माना गया था।
एक नहीं, दो प्रकार के विमान बनाए जा सकते थे और ये इतने ऊंचे जाते थे दिखाई नहीं देते। ग्रंथकार नक्षत्रलोक तक उड़ने की कल्पना करता है। इनमें से एक विमान में पारे का एक सिलेंडर लगता था और दूसरे में दो। इन पर पंखे को घूमाया जाता था और वह इतना शोर करता था कि यदि खेतों के ऊपर से गुजरता तो वहां छुपे हुए हाथी भाग खड़े होते।
आश्चर्य है कि यह सारा वर्णन आंखों देखे हाल जैसा लगता है। मैंने जब 'समरांगण सूत्रधार' का अनुवाद किया तो उसके पूरे 31 वें अध्याय को लेकर मैं चकित रहा। सैकड़ों श्लोकों व अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों को पाद टिप्पणियों में देने के लिए मैं परिश्रम करने में जुटा रहा। (समरांगण : संपादक अनुवादक श्रीकृष्ण जुगनू, चौखंबा संस्कृतत सीरिज ऑफिस, वाराणसी, 31, 96-99)
भोजराज कहते हैं क‍ि वह इस विद्या को खुलकर इसलिए नहीं लिख रहे हैं कि यदि यह विद्या आतंकियों के हाथ पड़ गई तो नुकसान ही अधिक होगा। ग्रंथकार की यह आत्म स्वीकारोक्ति है कि इस विद्या पर राम नामक राजाधिराज के 'यंत्र प्रपंच' नामक ग्रंथ में 'यंत्राध्याय' है और उसी से वह यथेष्टं वर्णन उद्धृत कर रहा है। इससे लगता है कि 10वीं सदी से पहले राम नामक राजा का इस विद्या पर कोई ग्रंथ था जो बहुत नहीं तो गुप्तरूप से राजाओं के यहां पठनीय, अनुकरणीय रहा होगा।
बाद के काल के एक कलचुरी अभिलेख में सूत्रधार छीतकू को यंत्र विधान और महाविद्या का विशेषज्ञ कहा गया है।
भोजराज के उक्त निर्देश पर कई वैज्ञानिकों का ध्यान गया है। उनके लिए यह रोचक है कि कैसे वह विमान पीछे भी मुड़ सकता था और यदि पारे से चलता था तो पारा खत्म नहीं होता, ऐसे में उस विमान में बार-बार ईंधन भरवाने की समस्या नहीं रहती थी।
विमान विद्या की बात यहीं पर खत्म नहीं होती। पिछली सदी में मैसूर से एक ग्रंथ का प्रकाशन हुआ, जो विमान बनने व संचालन करने की विधि पर आधारित था। तब भारतीयों से कहीं ज्यानदा दुनिया का ध्यान उस ग्रंथ पर गया। आर्य समाज, नई दिल्ली की ओर से भी इस पर ध्यान दिया गया और 'बृहद् विमानशास्त्र ' का 1977 में प्रकाशन किया गया।
कई खंडित पन्नों के आधार पर इस पाठ तो तैयार किया गया था। इसको महर्षि भारद्वाज की रचना बताया गया। यह ग्रंथ मेरे संग्रह में है और इसमें सैकड़ों प्रकार के विमान, उनके चालकों के शिक्षण प्रशिक्षण सहित योग्यता विमानों के दैनिक और युद्धोपकरणों की जानकारी भी है और आज की तरह ही उनको संजोया गया है।
बड़ौदा के ऑरियंटल इंस्टीट्यूट में इसका पाठ बताया गया। धर्मयुग के 7 जुलाई 1974 के अंक में इस संबंध में एक लेख प्रकाशित हुआ। इसमें यह बताया गया था कि 'भारद्वाज संहिता' पर आधारित विमान को जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक श्री शिवकुमार बापूजी तलपदे ने 1885 ईस्वी में विमान बनाकर चौपाटी पर उड़ाया था। यही जानकारी 'दिनमान' के एक लेख में भी आई। हाल ही उन पर एक किताब आई है जिसमें उनके लिखे दो लेख हैं, विमान बनाने जैसी बात नहीं।
रुस के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने पूर्व प्रधानमंत्री माेरारजी देसाई को 'वैमानिक प्रकरणं' ग्रंथ की जानकारी पत्र लिखकर दी थी, जिस पर 16 मई, 1977 को हिंदुस्तान टाईम्स् में समाचार छपा था। मगर, यह तय कर पाना कठिन ही रहा कि भारद्वाज के शास्त्र की मूल प्रति कितनी पुरानी है...। यह राेचक तथ्य हैं मगर कालक्रम के साथ ही इसके प्रमाणों काे और पुष्ट रूप से खोजा जाना शेष है...।
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