"मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति के आभाव में अपनी भौतिक आवश्यकताओं को भी पूर्णतः संतुष्ट नहीं कर सकता।
क्योंकि, आध्यात्मिक ज्ञान ही एक मात्र ऐसी शक्ति है जो हमारे कष्टों को हमेशा के लिए नष्ट करने की क्षमता रखती है; अन्य कोई भी ज्ञान हमारी आकांक्षाओं को एक निश्चित समय के लिए ही संतुष्ट कर सकता है।
आध्यात्मिक ज्ञान विद्या का ऐसा संकाय है जो अभाव, अपेक्षा और आकांक्षाओं के कष्ट का स्थाई समाधान है। अतः मानवता के विकास और कल्याण के लिए अध्यात्म ज्ञान के दान को चेतना का श्रेष्तम योगदान कहना गलत न होगा; इसलिए भारत को आज अपनी विशिष्टता को यथार्थ में जीने के लिए हिन्दू राष्ट्र के रूप में अपनी वास्तविकता का बोध होना आवश्यक है।
भारत ने समय समय पर विभिन्न परिस्थितियों में विश्व के विविध मान्यताओं, जीवन शैली और धर्म को स्वीकार किया है पर चूँकि सभी 'आयातित' धर्म अथवा मान्यताओं पर उनके उद्गमस्थल के तात्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है, इसलिए, उनका भारतीय संस्कृति और परम्पराओं से घर्षण भी संभव है, ऐसे में, यदि हम भारतीय परिपक्वता से काम लें तो विश्व के समक्ष यथार्थ में आदर्श का एक ऐसा व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे जो संभवतः वर्त्तमान में विश्व के अधिकाँश समस्याओं का समाधान होगा; विशेष कुछ नहीं करना, बस, अपनी राष्ट्रीयता को सर्वोपरि मानकर राष्ट्रधर्म निभाना है।
हो सकता है की भारत भूमि में आज प्रचलित कई धर्म व् मान्यताएं विश्व से आयातित हों , ऐसे में, भारत की अपेक्षा आयातित धर्मं से नहीं बल्कि उनके स्वदेशी धर्मावलम्बियों से हैं, जिनके धर्म का जन्मस्थल जो भी हो उनकी जन्म व् कर्म भूमि तो भारत ही है।
विवधताओं से परिपूर्ण इस देश के लिए भाषा से अधिक आज भाव को महत्वपूर्ण बनाने की आवश्यकता है, फिर बात चाहे 'भारत माता की जय' कहने की हो या 'मादर -ए-वतन ज़िंदाबाद' कहने की। वास्तव में भारत की विविधताओं के संरक्षण , संवर्धन और यहाँ के सभी धर्म और धर्मावलम्बियों की सुरक्षा के लिए आज भारत का हिन्दू राष्ट्र बनना ही एक मात्र विकल्प है।
तपस्या द्वारा ज्ञान की प्राप्ति भले ही कठिन हो पर उसकी स्वीकृति तथा प्रचार व् प्रसार तपस्या कठिन नहीं ; बस, श्रम को सतत प्रयास के दृढ़ निर्णय की आवश्यकता होती है।
भक्ति और ज्ञान एक दुसरे के पूरक हैं , ज्ञान के आभाव में भक्ति ही पाखंड बन जाती है और भक्ति के आभाव में ज्ञान महत्वहीन, फिर धर्म चाहे जो हो।
हिन्दू धर्म में 1280 बुनियादी धार्मिक ग्रन्थ हैं ; इन ग्रंथों की नीव 10,000 टिप्पणियां, एक लाख से अधिक उप टिप्पणियों, देवताओं के प्रारूप में सैंकड़ों इष्ट, असंख्य आचार्य, हजारों ऋषियों के ज्ञान के समावेश पर आधारित है, यही कारन है की आज सैकड़ों भाषाओँ द्वारा विभाजित हिन्दू एक है; सभी एक दुसरे की आस्था और धार्मिक स्थलों का सम्मान करते हैं और किसी को भी किसी के मंदिर में जाने से कोई शिकायत नहीं !
इसके विपरीत, विश्व के कई दुसरे धर्म एक ईश्वर पर आधारित , एक धर्मग्रन्थ द्वारा परिभिसित और एक पैगम्बर द्वारा प्रचारित फिर भी आज अंदर से एक नहीं; अतः कलह से ग्रषित हैं। उनके अंदर न ही एक दुसरे की आस्था और धार्मिक स्थलों का सम्मान है और न ही वो एक दुसरे के मंदिर में जाने में सहमति !
हमारा समाज इस महान समभ्यता और संस्कृति का वंसज है और अगर वर्त्तमान को अपने अस्तित्व के इस विशिष्ट पहचान से शिकायत हो तो एक राष्ट्र के रूप में हमारा भविष्य निसंदेह एक चिंता का विषय होगा।
विविधताओं को एक सूत्र में पिरोना ही हिंदुत्व की विशिष्टता रही है क्योंकि हिंदुत्व जानता है की विविधता ही श्रिष्टि में प्राकृतिक रचना की शैली है। विशिष्टता को निखारना और महत्व देना न की सामान्यकरण के प्रक्रिया से साधारण बनाना हिंदुत्व की शैली रही है।
सूरज के सामने आँखें बंद कर लेने से रात नहीं होती, हाँ, अपनी समझ और मूर्खता का प्रदर्शन अवश्य होता। अब अगर सूरज को सत्य मान लें और बंद आँखों को अनभिज्ञता का निर्णय ....तो समझदारी मुश्किल नहीं रहेगी ,
भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और यही कारन है की यहाँ का संविधान सभी धर्मो को सामान महत्व देता है। क्योंकि हिंदुत्व को ईश्वर के एकांतम् अस्तित्व का ज्ञान है, अतः उसे एक ही गंतव्य के विभिन्न मार्ग से कोई मतभेद नहीं;
हिंदुत्व की शुद्धि और एक राष्ट्र के रूप में हमारी वास्तविकता की स्वीकृति के लिए भारत का 'हिन्दू राष्ट्र' होना आज समय की आवश्यकता है। ऐसे में, यदि आज भारतियों को भारत के 'हिन्दू राष्ट्र' होने पर अप्पत्ति है तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा; क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?"
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