#.... देश की स्वतंत्रता के संदर्भ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पंक्तियां ध्यान आती हैं. उन्होंने कहा था,
"आजादी सहज उपलब्ध हो जाए, तो न उसका महत्व होता है न मूल्यांकन! "
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भारतीय स्वतंत्रता किसी तश्तरी में परोसकर नहीं दी गई. उसके पीछे बलिदानों और देशवासियों की शौर्यकथाओं का लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से १९४७ तक सैकड़ों वीरों का स्मरण और उनकी वीरता तथा दृढ़ संकल्पों के दस्तावेज एक नए रक्त का संचार करते हैं. उन्हीं वीर पुत्रों में एक थे खुदीराम बोस.
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#.......खुदीराम बोस का जन्म 03 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर में हुआ था। पिता लैलोक्यनाथ बसु राजा नारनौल के यहां नौकरी करते थे। उनकी तीन पुत्रियां थीं—अपरूपा, सरोजनी और ननीबाला। परंतु जब खुदीराम बोस का बचपन खेलने कूदने योग्य भी नहीं हो पाया था कि उनके सर से मां-बाप का साया उठ गया। बड़ी बहिन अपरूपा ने खुदीराम बोस को संभाला। खुदीराम बोस बचपन से उग्र स्वभाव के थे। उनमें सामाजिक-न्याय की तड़प और कुछ कर गुजरने की तमन्ना करवटें लेने लगी थीं। जब वे मात्र 13-14 वर्ष के रहे होंगे उनकी मुलाकात प्रमुख क्रांतिकारी बाबू सत्येंद्रनाथ से हुई। और वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलने वाली गुप्त मंत्रणाओं में शामिल होने लग गए। मुकदमा चला और अंत में खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
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#..क्या बंदेमातरम कहने से फांशी की सजा सुनाई गयी। ......पूरा लेख जरूर पढ़े
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यह एक ऐसे वीर की जीवन गाथा है, जिसने भारत को रौदने वाले अँग्रेजों पर 'पहला" बम फेंका था। अपने विद्यार्थी जीवन में ही वह ' वन्देमातरम ' की ओर आकर्षित हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा। यह सोलह वर्षीय किशोर पुलिस की आज्ञा को ठुकराता उन्नीसवें वर्ष में ही, हाथ में भगवतगीता लेकर 'वन्देमातरम' कहते हुए, हुतात्मा बना ।
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#.....बंकिमचंद्र के विचार थे, "हम भारत - माता के बच्चे उनके सामने नतमस्तक हैं।" उसी समय उनके मन में 'वन्देमातरम' यह शब्द गूँजे। बंकिमचंद्र ने इस 'वन्देमातरम' शीर्षक से एक बहुत बड़ा गीत लिखा।
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#.....इस प्रकार 'वन्देमातरम ' से प्रेरणा लेकर हजारों भारतीयों ने अंग्रेजो के विरुद्ध लोहा लिया।
इस स्थिति से अब भारत में अपना साम्राज्य अधिक दिन नहीं रहेगा इसका भय अंग्रेज राज्यकर्ताओ को होने लगा।
इसलिए उन्होंने हिन्दू ततः मुसलमानों को अलग करने का प्रयास किया। पश्चिम बंगाल में हिन्दू और पूर्व बंगाल में मुसलमानों की संख्या अधिक थी। इसे देखकर अंग्रेजों ने एक नयी योजना बनाई। सन १९०५ में लार्ड कर्जन भारत के गवर्नर जनरल थे। उन्होंने बंगाल का पूर्व तथा पश्चिम में विभाजन किया। किन्तु अंग्रेजों का यह उद्देश्य भारतीय जान गये। अनेक देशभक्तों ने एक स्वर से इस विभाजन का विरोध किया। अनेक स्थान पर जुलूस, बैठकें तथा सत्याग्रह आयोजित किये गये। प्रत्येक व्यक्ति के ओठों पर 'वन्देमातरम' यह शब्द थे।
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#.....खुदीराम ने अपने मित्रों को 'वन्देमातरम ' पढाना शुरू किया।उसने उसका पूर्ण अर्थ बताया।उसने अपने मित्रों को 'आनंदमठ ' पढ़ने के लिए उत्साहित किया।
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#.....खुदीराम के गुट के क्रांतिकारियों ने उसकी 'वन्देमातरम ' के प्रति भक्ति को पहचाना।उन्होंने 'वन्देमातरम ' छपे हुए परचे बाँटने का निश्चय किया।खुदीराम ने इसमें महत्वपूर्ण कार्य किया। मेदिनीपुर की प्रदर्शनी की घटना की पार्श्वभूमि यही थी।
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#.....इधर 'वन्देमातरम ' का प्रचार बढ़ने लगा और उधर अंग्रेजों की क्रूरता बढ़ने लगी। 'वन्देमातरम' कहना राजद्रोह है - घोषित हुआ। इस अपनी मातृभूमि को प्रणाम करना भी अंग्रेजों की दृष्टि से राजद्रोह बना।
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#.....अंग्रेज सरकार ने देशभक्तों को हर प्रकार की यातना देना शुरू किया। किन्तु देशभक्तों में इन यातनाओं की उपेक्षा कर आगे बढ़ने का धैर्य था। अनेक बैठकों तथा जुलूसों में 'वन्देमातरम' के नारे लगाये गए, जिससे अंग्रेजों को धक्का पहुँचा।
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#.....यदि दो देशभक्त कहीं मिलते तो नमस्कार न करते हुए 'वन्देमातरम' कहते। जहाँ भी पुलिस सिपाही यह नारा सुनता, बुरी तरह से देशभक्तों को पीटता। किन्तु भारतीयों को 'वन्देमातरम' कहने से अंग्रेज नहीं रोक सके। अंग्रेज जितने ही कठोर बनते उतना ही भारतीयों का अभिमान बढ़ता था। लोगों ने विदेशी कपड़ों का त्याग कर दिया। विदेशी स्कूल और कोलेज छोड़े। 'स्वदेशी ' यह स्वराज्य का मन्त्र हुआ।
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#.....सन १९०७ में अंग्रेजों ने 'वन्देमातरम' पत्रिका पर राजद्रोह का अभियोग चलाया।उसकी कार्यवाही कलकत्ता के लाल बाजार के पुलिस कोर्ट में चल रही थी। प्रतिदिन हजारों युवक कोर्ट के सामने उपस्थित होते और एक आवाज में 'वन्देमातरम ' कहते हुए अपनी पत्रिका का गौरव बढ़ाते। इस तरह उन्होंने अपना समर्थन प्रकट किया। लौहटोप पहने हुए पुलिस सिपाहियों द्वारा अमानवीय ढंग से उस भीड़ पर लाठी - प्रहार किये जाते।
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#.....कुछ अंतर पर खड़ा हुआ १५ वर्षीय सुशीलकुमार सेन यह दृश्य सहन नहीं कर पाया।आगे आकर उसने पुलिस अधिकारी से पूछा '' आप बिना किसी कारण लोगों को क्यों मार रहे हैं?'' उसने उसे रोकने का प्रयास किया।
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#....."तुम कौन हो ? निकल जाओ !" अंग्रेज चिल्लाया और उसने सुशील को भी मारा। क्रुद्ध सुशील ने कहा, "मैं कौन हूँ अभी बताता हूँ।" उसने अपने से चार गुना बड़े उस अंग्रेज की नाक पर अचानक एक जोरदार मुक्का मारा।पुलिस सिपाही के हाथ से लाठी खीच ली और उसे पीटना शुरू किया।" एक भारतीय लड़के के प्रहार देखो, "उस लड़के ने कहा और जब तक उस अंग्रेज सिपाही के शरीर से खून नहीं निकला, उसे पीटता रहा।उस सिपाही को तो केवल नि:शस्त्र व्यक्तियों को मरने का अनुभव था, किन्तु मार भी खानी पड़ती है, यह ज्ञान नहीं था। पीड़ा के कारण वह चिल्लाने लगा। बाद में दूसरे सिपाहियों ने आकर सुशील को पकड़ा और उसे कोर्ट ले गए ।
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#.....इस घटना के बहुत दिन पहले ही क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड से - जो एक राक्षस ही था - बदला लेने का निश्चय कर लिया था। सुशील कुमार को दिए गए दंड से उनका क्रोध बढता गया। जब तक किंग्जफोर्ड जिन्दा है देशभक्तों के लिए परेशानी रहेगी, यह सोचकर उन्होंने उसे मारने का निश्चय किया ।
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#.....अंग्रेज सरकार को क्रांतिकारियों के इस निर्णय की गंध पहुची। किंग्जफोर्ड का जीवन खतरे में है, इसकी उन्हें निश्चित खबर थी सरकार के जासूसों ने उसे इंग्लैंड वापस भेजने की सलाह दी। किन्तु सरकार ने उसका विरोध किया। अंत में किंग्जफोर्ड को डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज बनाकर मुजफ्फ़रपुर भेज दिया गया
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#.....किंग्जफोर्ड की हत्या की तैयारी
मुजफ्फ़रपुर जाने के बाद भी किंग्जफोर्ड ने अपनी निर्दयता नहीं छोड़ी। १९०८ में क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या की योजना बना ली। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में युगांतर गुट के क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के एक घर में बैठक निश्चित की। सुशील पर हुए अन्याय के बारे में चर्चा होनेवाली थी। अरविन्द घोष, सुबोध मलिक, चारुदत्त और अन्य व्यक्ति वहाँ आये थे।
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#.....किंग्जफोर्ड की हत्या करने का निश्चय हुआ। किन्तु उस दल के प्रमुख को यह चिंता थी कि किसे यह काम सौंपा जाय। कुछ लोग इस काम के लिए उत्सुक थे।किन्तु गुट का प्रमुख उन में से किसी का भी चुनाव नहीं करना चाहता था।
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एक कोने में बैठे खुदीराम पर उसकी दृष्टि गयी। "क्या तुम यह काम कर सकते हो," मानो वह दृष्टि यही प्रश्न कर रही थी। खुदीराम इसे समझ गया। उसकी आखें चमक उठीं ।
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"क्या तुम यह कठोर कार्य कर सकते हो", गुट के नेता ने आखिर पूछ ही लिया ।
"आपका आशीर्वाद रहा तो असंभव कुछ भी नहीं है।" खुदीराम बोला ।
"कारागृह में जाने लायक यह कार्य सरल नहीं है। क्या तुम्हें पता है कि पकड़े जाने पर तुम्हारा क्या होगा?"
"मुझे ज्ञात है," खुदीराम शांति से किन्तु निश्चिंत होकर बोला।" अधिक से अधिक यही होगा न मुझे फाँसी होगी। यह तो मुझ पर अनुग्रह होगा। भारत माता ही मेरे लिए माता-पिता और सब कुछ है। उसके लिये मेरा जीवन समर्पित करना मेरे लिए गौरव का विषय होगा।मेरी एकमात्र इच्छा यही है -अपने देश को स्वाधीनता मिलते तक मैं पुन: पुन: यही जन्म लूं और पुन: पुन: जीवन को बलिवेदी पर चढ़ाऊँ।"
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"मुझे बहुत हर्ष हुआ है। अपने प्रवास की तैयारी करो, प्रफुल्ल चाकी तुम्हारे साथ रहेगा।"
प्रफुल्ल चाकी जो बहुत बलवान और खुदीराम की ही आयु का था, उसके साथ खड़ा हुआ।
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प्रफुल्लकुमार पूर्व बंगाल के रंग पुर ग्राम का निवासी था। बंगाल के विभाजन के समय वह अपने साथ आठ लड़कों को लेकर 'वन्देमातरम ' कहते हुए स्कूल से बाहर निकल आया था।
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क्रांतिकारियों के प्रमुख ने, दोनों लड़कों - खुदीराम और प्रफुल्लकुमार को पिस्तौल, बम, कुछ पैसे दिये और आशीर्वाद भी दिये। किंग्जफोर्ड की हत्या का संकल्प लिये दोनों लड़के वहाँ से रवाना हुए।
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#.....शिकार चूक गया
३० अप्रैल १९०८ की रात थी। खुदीराम और प्रफुल्लकुमार मुजफ्फ़रपुर के यूरोपियन क्लब के पास पहुँचे।किंग्जफोर्ड की प्रतीक्षा करते हुए बम और पिस्तौल लेकर दोनों एक जगह छिपकर बैठ गये।
कुछ देर बाद एक घोड़ा गाड़ी किंग्जफोर्ड के बंगले से बाहर आयी।एक हाथ में बम लिये खुदीराम ने प्रफुल्लकुमार से कहा, "मैं बम फेंकता हूँ। बम फेंकते ही तुम भाग़ जाओ। मेरी चिंता न करो।यदि मैं जीवित रहा तो अपने आदरणीय शिक्षक को प्रणाम करने आऊँगा। भागने की तैयारी करो। वन्देमातरम!'
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#.....गाड़ी सामने आई। घोडा गाड़ी खुदीराम की विरुद्ध दिशा में आते ही उसने बम गाड़ी में फेंका ।
एक भारतीय युवक द्वारा अंग्रेजों पर फेंका गया यह पहला बम था। बम गाड़ी में पड़ते ही धमाके से फूटा। उसी समय चिल्लाने की आवाज़ भी आई। आगे क्या होता है यह ना देखते हुए खुदीराम और प्रफुल्ल दोनों अलग अलग दिशा में भाग गये ।
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#.....किंग्जफोर्ड सौभाग्यशाली था। जिस गाड़ी पर बम फेंका गया था, उसमे किंग्जफोर्ड के अतिथि केनेडी, उनकी पत्नी, लड़की और उनका एक नौकर था। लड़की और नौकर उसी जगह पर मर गये। श्रीमती केनेडी बुरी तरह से घायल हुई थी, जिसकी दो दिन बाद मृत्यु हो गई।
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#.....बम फेंक कर खुदीराम भाग गया।बिना रुके रात भर वह रेलवे लाइन के साथ दौड़ता रहा। सुबह होने पर वह रुका। इस समय तक वह २५ मील दौड़ चुका था। वह वेनी रेलवे स्टेशन के पास लाख नामक स्थान पर पहुँचा। लगातार दौड़ने से वह बिलकुल थक गया था। साथ ही साथ भूख भी लगी थी। भूंजी लाई लेकर उसने खाना शुरू किया।
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#.....इस समय तक मुजफ्फरपुर की घटना चरों दिशाओं में फ़ैल चुकी थी। जहाँ खुदीराम बैठे थे, लोगों की चर्चा इसी विषय पर हो रही थी। उत्सुकता से उसने चर्चा सुनी। केवल दो महिलाओं की मृत्यु हुई, यह सुनकर वह अपने आप को भूल गया और उसने पूछा ,"क्या किंग्जफोर्ड नहीं मरे?"
खुदीराम के इन शब्दों से दुकान में बैठे लोगों की दृष्टि उस पर गई। वह लड़का वहाँ नया दीख रहा था।उसके चेहरे पर बहुत थकान दीख रही थी। दुकान का मलिक उसके प्रति सशंक हो उठा। उसने विचार किया कि अपराधी को पकड़ने में सहायता करने पर उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने खुदीराम को पानी दिया और सामने जा रहे पुलिस सिपाही को खबर दी। पानी पीने के लिये ग्लास उठाते समय ही पुलिस सिपाही ने उसे पकड़ लिया। खुदीराम अपनी जेब से पिस्तौल नहीं निकाल सका। दोनों पिस्तौलें पुलिस सिपाहियों ने छीन ली, किन्तु खुदीराम नहीं घबराया।
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#.....मैं अच्छी तरह जानता हूँ की मुझे फांशी मिलने बाली हे
खुदीराम के विरुद्ध एक अभियोग चलाया गया। सरकार के पक्ष में दो वकील थे। मुजफ्फ़रपुर शहर में खुदीराम के पक्ष में कोई भी न था। अंत में कालिदास बोस नामक वकील खुदीराम की सहायता हेतु आये।
यह मुकदमा दो मास तक चला। अंत में खुदीराम को मृत्यु दंड मिला। मृत्यु दंड का निर्णय सुनते समय भी खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी।
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न्यायाधीश को आश्चर्य हुआ कि मृत्युदंड होते हुए भी यह उन्नीस वर्षीय लड़का शांत कैसे हो सकता है। "क्या तुम इस निर्णय का अर्थ जानते हो ?" न्यायाधीश ने पूछा ।
खुदीराम हंसकर बोले ,"इसका अर्थ मैं आपसे अधिक अच्छी तरह जानता हूँ।"
"तुम्हे कुछ कहना है? "
"हाँ। बम किस प्रकार से बनता है, यह मै स्पष्ट करना चाहता हूँ।"
न्यायाधीश को डर था कि कोर्ट मैं बैठे सारे लोगों को बम तैयार करने की जानकारी यह खुदीराम देगा। इसलिए उसने खुदीराम को बोलने की अनुमति नहीं दी।
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खुदीराम को अंग्रेजों के न्यायलय से न्याय की आशा थी ही नहीं।किन्तु कालिदास बोस की खुदीराम को बचाने की इच्छा थी। उन्होंने खुदीराम की ओर से कलकत्ता हायकोर्ट में याचिका दाखिल की। कलकता हायकोर्ट के न्यायधीश भी खुदीराम के स्वभाव को जानते थे। निर्भय आँखोंवाले दृढ निश्चयी खुदीराम को देख कर उन्हें भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने भी खुदीराम को मृत्युदंड ही दिया जो कनिष्ठ कोर्ट ने दिया था।
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किन्तु उन्होंने खुदीराम के फांसी का दिन ६ अगस्त से १९ अगस्त १९०८ तक बढ़ा दिया ।
"तुम्हे कुछ कहने की इच्छा है?" पुन: पूछा गया ।
खुदीराम ने कहा ,"राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता के लिये मैं मरना चाहता हूँ। फाँसी के विचार से मुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दुःख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके अपराध का दंड नहीं मिला।"
कारागृह में भी उसे चिंता नहीं थी। जब मृत्यु उसके पास पहुँची, तो भी उसके मुख पर चमक थी। उसने सोचा कि ' जितनी जल्दी मैं मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी मेरा पुन: जन्म होगा ।' यह कोई पौराणिक कथा नहीं है ।
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#.....माँ की गोद में वापसी
मृत्युदंड के निर्णय के अनुसार १९ अगस्त १९०८ को सुबह ६ बजे खुदीराम को फाँसी के तख्ते के पास लाया गया। उस समय भी उसके चेहरे की मुस्कान कायम थी। शांति से वह उस स्थान पर गया। उसके हाथ में भगवद्गीता थी। अंत में एक ही बार उसने 'वन्देमातरम ' कहा और उसे फाँसी लगी। अंत में खुदीराम ने अपना ध्येय प्राप्त किया। उसने अपना जीवन मातृभूमि की चरणोंपर समर्पित कर दिया। भारत के इतिहास में वह अमर है।
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#.....खुदीराम का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उसका फेंका हुआ बम किंग्जफोर्ड पर नहीं दूसरों पर पड़ा। किन्तु उस बम से किंग्जफोर्ड के मन में भय अवश्य निर्माण हुआ। जिस दिन खुदीराम हुतात्मा बना, उस दिन से ही किंग्जफोर्ड को शांतिनहीं मिली थी। प्रत्येक क्षण उसे अपनी मृत्यु दिखती थी। अंत में वह इतना डर गया कि उसने अपनी नौकरी छोड़ दी और मसूरी जाकर रहा।जिस किंग्जफोर्ड ने निष्कलंक, निरपराध लोगों को धमकाया, यातनाएँ दी थीं, वह खुद भयग्रस्त होकर मरा ।
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#.....एक प्रेरणा
पर खुदीराम मर कर भी अमर हुआ। उसने दूसरों को भी इसी प्रकार अमर होने की प्रेरणा दी। थोड़े ही समय में हजारों स्त्री-पुरुषों ने खुदीराम के मार्ग का अनुसरण कर भारत में अंगेजों की सता नष्ट कर दी। जहाँ, किंग्जफोर्ड को अपना पद छोड़ना पड़ा, वहीँ अंग्रेजों को भारत ही छोड़ना पड़ा।
इस अमर शहीद को को सम्मानित करते हुए १९९० में भारतीय डाक-तार विभाग ने एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट प्रकाशित किया जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है।
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#.....प्राण दण्ड की सज़ा
मुक़दमा केवल पाँच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें प्राण दण्ड की सज़ा सुनाई गई। इतना संगीन मुक़दमा और केवल पाँच दिन में समाप्त। यह बात न्याय के इतिहास में एक मज़ाक बना रहेगा। 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी को फाँसी पर चढा़ दिया गया। उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्यौछावर कर दिया
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#.....दासता से बड़ा रोग नहीं
एकबार खुदीराम मंदिर में गया।कुछ लोग वह मंदिर के सामने खुली जमीन पर लेटे थे। खुदीराम ने एक व्यक्ति से पूछा, "ये लोग यहाँ इस प्रकार क्यों लेटे हैं?" उत्तर मिला, "ये लोग किसी ना किसी रोग से पीड़ित हैं। उनका प्रश्न है कि भगवान उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर रोग-मुक्ति का वचन दें, तभी वे अन्न - जल ग्रहण करेंगें। इसलिये ऐसे पड़े हैं।"
खुदीराम ने एक क्षण विचार किया और कहा, "क्या एक दिन मुझे भी इनकी तरह लेटना पड़ेगा?"
"तुम्हे कौन सा रोग हुआ है?" एक व्यक्ति ने पूछा।
खुदीराम हँसकर बोले, "दासता से अधिक बुरा कौनसा रोग है। मुझे किसी दिन उसे हटाना ही पड़ेगा।"
अपनी बाल्यावस्था में भी खुदीराम अपने देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा करता था। यही समस्या उसके मन को घेरे हुए थी ।
जब खुदीराम इस प्रकार की चिंता में था कि उसने 'वन्देमातरम', 'भारत माता कि जय ' के नारे सुने। इन शब्दों से उसके मन में उत्साह निर्माण हुआ, उसकी आँखे चमकने लगीं।
"आजादी सहज उपलब्ध हो जाए, तो न उसका महत्व होता है न मूल्यांकन! "
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भारतीय स्वतंत्रता किसी तश्तरी में परोसकर नहीं दी गई. उसके पीछे बलिदानों और देशवासियों की शौर्यकथाओं का लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से १९४७ तक सैकड़ों वीरों का स्मरण और उनकी वीरता तथा दृढ़ संकल्पों के दस्तावेज एक नए रक्त का संचार करते हैं. उन्हीं वीर पुत्रों में एक थे खुदीराम बोस.
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#.......खुदीराम बोस का जन्म 03 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर में हुआ था। पिता लैलोक्यनाथ बसु राजा नारनौल के यहां नौकरी करते थे। उनकी तीन पुत्रियां थीं—अपरूपा, सरोजनी और ननीबाला। परंतु जब खुदीराम बोस का बचपन खेलने कूदने योग्य भी नहीं हो पाया था कि उनके सर से मां-बाप का साया उठ गया। बड़ी बहिन अपरूपा ने खुदीराम बोस को संभाला। खुदीराम बोस बचपन से उग्र स्वभाव के थे। उनमें सामाजिक-न्याय की तड़प और कुछ कर गुजरने की तमन्ना करवटें लेने लगी थीं। जब वे मात्र 13-14 वर्ष के रहे होंगे उनकी मुलाकात प्रमुख क्रांतिकारी बाबू सत्येंद्रनाथ से हुई। और वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलने वाली गुप्त मंत्रणाओं में शामिल होने लग गए। मुकदमा चला और अंत में खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
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#..क्या बंदेमातरम कहने से फांशी की सजा सुनाई गयी। ......पूरा लेख जरूर पढ़े
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यह एक ऐसे वीर की जीवन गाथा है, जिसने भारत को रौदने वाले अँग्रेजों पर 'पहला" बम फेंका था। अपने विद्यार्थी जीवन में ही वह ' वन्देमातरम ' की ओर आकर्षित हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा। यह सोलह वर्षीय किशोर पुलिस की आज्ञा को ठुकराता उन्नीसवें वर्ष में ही, हाथ में भगवतगीता लेकर 'वन्देमातरम' कहते हुए, हुतात्मा बना ।
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#.....बंकिमचंद्र के विचार थे, "हम भारत - माता के बच्चे उनके सामने नतमस्तक हैं।" उसी समय उनके मन में 'वन्देमातरम' यह शब्द गूँजे। बंकिमचंद्र ने इस 'वन्देमातरम' शीर्षक से एक बहुत बड़ा गीत लिखा।
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#.....इस प्रकार 'वन्देमातरम ' से प्रेरणा लेकर हजारों भारतीयों ने अंग्रेजो के विरुद्ध लोहा लिया।
इस स्थिति से अब भारत में अपना साम्राज्य अधिक दिन नहीं रहेगा इसका भय अंग्रेज राज्यकर्ताओ को होने लगा।
इसलिए उन्होंने हिन्दू ततः मुसलमानों को अलग करने का प्रयास किया। पश्चिम बंगाल में हिन्दू और पूर्व बंगाल में मुसलमानों की संख्या अधिक थी। इसे देखकर अंग्रेजों ने एक नयी योजना बनाई। सन १९०५ में लार्ड कर्जन भारत के गवर्नर जनरल थे। उन्होंने बंगाल का पूर्व तथा पश्चिम में विभाजन किया। किन्तु अंग्रेजों का यह उद्देश्य भारतीय जान गये। अनेक देशभक्तों ने एक स्वर से इस विभाजन का विरोध किया। अनेक स्थान पर जुलूस, बैठकें तथा सत्याग्रह आयोजित किये गये। प्रत्येक व्यक्ति के ओठों पर 'वन्देमातरम' यह शब्द थे।
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#.....खुदीराम ने अपने मित्रों को 'वन्देमातरम ' पढाना शुरू किया।उसने उसका पूर्ण अर्थ बताया।उसने अपने मित्रों को 'आनंदमठ ' पढ़ने के लिए उत्साहित किया।
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#.....खुदीराम के गुट के क्रांतिकारियों ने उसकी 'वन्देमातरम ' के प्रति भक्ति को पहचाना।उन्होंने 'वन्देमातरम ' छपे हुए परचे बाँटने का निश्चय किया।खुदीराम ने इसमें महत्वपूर्ण कार्य किया। मेदिनीपुर की प्रदर्शनी की घटना की पार्श्वभूमि यही थी।
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#.....इधर 'वन्देमातरम ' का प्रचार बढ़ने लगा और उधर अंग्रेजों की क्रूरता बढ़ने लगी। 'वन्देमातरम' कहना राजद्रोह है - घोषित हुआ। इस अपनी मातृभूमि को प्रणाम करना भी अंग्रेजों की दृष्टि से राजद्रोह बना।
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#.....अंग्रेज सरकार ने देशभक्तों को हर प्रकार की यातना देना शुरू किया। किन्तु देशभक्तों में इन यातनाओं की उपेक्षा कर आगे बढ़ने का धैर्य था। अनेक बैठकों तथा जुलूसों में 'वन्देमातरम' के नारे लगाये गए, जिससे अंग्रेजों को धक्का पहुँचा।
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#.....यदि दो देशभक्त कहीं मिलते तो नमस्कार न करते हुए 'वन्देमातरम' कहते। जहाँ भी पुलिस सिपाही यह नारा सुनता, बुरी तरह से देशभक्तों को पीटता। किन्तु भारतीयों को 'वन्देमातरम' कहने से अंग्रेज नहीं रोक सके। अंग्रेज जितने ही कठोर बनते उतना ही भारतीयों का अभिमान बढ़ता था। लोगों ने विदेशी कपड़ों का त्याग कर दिया। विदेशी स्कूल और कोलेज छोड़े। 'स्वदेशी ' यह स्वराज्य का मन्त्र हुआ।
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#.....सन १९०७ में अंग्रेजों ने 'वन्देमातरम' पत्रिका पर राजद्रोह का अभियोग चलाया।उसकी कार्यवाही कलकत्ता के लाल बाजार के पुलिस कोर्ट में चल रही थी। प्रतिदिन हजारों युवक कोर्ट के सामने उपस्थित होते और एक आवाज में 'वन्देमातरम ' कहते हुए अपनी पत्रिका का गौरव बढ़ाते। इस तरह उन्होंने अपना समर्थन प्रकट किया। लौहटोप पहने हुए पुलिस सिपाहियों द्वारा अमानवीय ढंग से उस भीड़ पर लाठी - प्रहार किये जाते।
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#.....कुछ अंतर पर खड़ा हुआ १५ वर्षीय सुशीलकुमार सेन यह दृश्य सहन नहीं कर पाया।आगे आकर उसने पुलिस अधिकारी से पूछा '' आप बिना किसी कारण लोगों को क्यों मार रहे हैं?'' उसने उसे रोकने का प्रयास किया।
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#....."तुम कौन हो ? निकल जाओ !" अंग्रेज चिल्लाया और उसने सुशील को भी मारा। क्रुद्ध सुशील ने कहा, "मैं कौन हूँ अभी बताता हूँ।" उसने अपने से चार गुना बड़े उस अंग्रेज की नाक पर अचानक एक जोरदार मुक्का मारा।पुलिस सिपाही के हाथ से लाठी खीच ली और उसे पीटना शुरू किया।" एक भारतीय लड़के के प्रहार देखो, "उस लड़के ने कहा और जब तक उस अंग्रेज सिपाही के शरीर से खून नहीं निकला, उसे पीटता रहा।उस सिपाही को तो केवल नि:शस्त्र व्यक्तियों को मरने का अनुभव था, किन्तु मार भी खानी पड़ती है, यह ज्ञान नहीं था। पीड़ा के कारण वह चिल्लाने लगा। बाद में दूसरे सिपाहियों ने आकर सुशील को पकड़ा और उसे कोर्ट ले गए ।
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#.....इस घटना के बहुत दिन पहले ही क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड से - जो एक राक्षस ही था - बदला लेने का निश्चय कर लिया था। सुशील कुमार को दिए गए दंड से उनका क्रोध बढता गया। जब तक किंग्जफोर्ड जिन्दा है देशभक्तों के लिए परेशानी रहेगी, यह सोचकर उन्होंने उसे मारने का निश्चय किया ।
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#.....अंग्रेज सरकार को क्रांतिकारियों के इस निर्णय की गंध पहुची। किंग्जफोर्ड का जीवन खतरे में है, इसकी उन्हें निश्चित खबर थी सरकार के जासूसों ने उसे इंग्लैंड वापस भेजने की सलाह दी। किन्तु सरकार ने उसका विरोध किया। अंत में किंग्जफोर्ड को डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज बनाकर मुजफ्फ़रपुर भेज दिया गया
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#.....किंग्जफोर्ड की हत्या की तैयारी
मुजफ्फ़रपुर जाने के बाद भी किंग्जफोर्ड ने अपनी निर्दयता नहीं छोड़ी। १९०८ में क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या की योजना बना ली। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में युगांतर गुट के क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के एक घर में बैठक निश्चित की। सुशील पर हुए अन्याय के बारे में चर्चा होनेवाली थी। अरविन्द घोष, सुबोध मलिक, चारुदत्त और अन्य व्यक्ति वहाँ आये थे।
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#.....किंग्जफोर्ड की हत्या करने का निश्चय हुआ। किन्तु उस दल के प्रमुख को यह चिंता थी कि किसे यह काम सौंपा जाय। कुछ लोग इस काम के लिए उत्सुक थे।किन्तु गुट का प्रमुख उन में से किसी का भी चुनाव नहीं करना चाहता था।
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एक कोने में बैठे खुदीराम पर उसकी दृष्टि गयी। "क्या तुम यह काम कर सकते हो," मानो वह दृष्टि यही प्रश्न कर रही थी। खुदीराम इसे समझ गया। उसकी आखें चमक उठीं ।
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"क्या तुम यह कठोर कार्य कर सकते हो", गुट के नेता ने आखिर पूछ ही लिया ।
"आपका आशीर्वाद रहा तो असंभव कुछ भी नहीं है।" खुदीराम बोला ।
"कारागृह में जाने लायक यह कार्य सरल नहीं है। क्या तुम्हें पता है कि पकड़े जाने पर तुम्हारा क्या होगा?"
"मुझे ज्ञात है," खुदीराम शांति से किन्तु निश्चिंत होकर बोला।" अधिक से अधिक यही होगा न मुझे फाँसी होगी। यह तो मुझ पर अनुग्रह होगा। भारत माता ही मेरे लिए माता-पिता और सब कुछ है। उसके लिये मेरा जीवन समर्पित करना मेरे लिए गौरव का विषय होगा।मेरी एकमात्र इच्छा यही है -अपने देश को स्वाधीनता मिलते तक मैं पुन: पुन: यही जन्म लूं और पुन: पुन: जीवन को बलिवेदी पर चढ़ाऊँ।"
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"मुझे बहुत हर्ष हुआ है। अपने प्रवास की तैयारी करो, प्रफुल्ल चाकी तुम्हारे साथ रहेगा।"
प्रफुल्ल चाकी जो बहुत बलवान और खुदीराम की ही आयु का था, उसके साथ खड़ा हुआ।
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प्रफुल्लकुमार पूर्व बंगाल के रंग पुर ग्राम का निवासी था। बंगाल के विभाजन के समय वह अपने साथ आठ लड़कों को लेकर 'वन्देमातरम ' कहते हुए स्कूल से बाहर निकल आया था।
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क्रांतिकारियों के प्रमुख ने, दोनों लड़कों - खुदीराम और प्रफुल्लकुमार को पिस्तौल, बम, कुछ पैसे दिये और आशीर्वाद भी दिये। किंग्जफोर्ड की हत्या का संकल्प लिये दोनों लड़के वहाँ से रवाना हुए।
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#.....शिकार चूक गया
३० अप्रैल १९०८ की रात थी। खुदीराम और प्रफुल्लकुमार मुजफ्फ़रपुर के यूरोपियन क्लब के पास पहुँचे।किंग्जफोर्ड की प्रतीक्षा करते हुए बम और पिस्तौल लेकर दोनों एक जगह छिपकर बैठ गये।
कुछ देर बाद एक घोड़ा गाड़ी किंग्जफोर्ड के बंगले से बाहर आयी।एक हाथ में बम लिये खुदीराम ने प्रफुल्लकुमार से कहा, "मैं बम फेंकता हूँ। बम फेंकते ही तुम भाग़ जाओ। मेरी चिंता न करो।यदि मैं जीवित रहा तो अपने आदरणीय शिक्षक को प्रणाम करने आऊँगा। भागने की तैयारी करो। वन्देमातरम!'
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#.....गाड़ी सामने आई। घोडा गाड़ी खुदीराम की विरुद्ध दिशा में आते ही उसने बम गाड़ी में फेंका ।
एक भारतीय युवक द्वारा अंग्रेजों पर फेंका गया यह पहला बम था। बम गाड़ी में पड़ते ही धमाके से फूटा। उसी समय चिल्लाने की आवाज़ भी आई। आगे क्या होता है यह ना देखते हुए खुदीराम और प्रफुल्ल दोनों अलग अलग दिशा में भाग गये ।
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#.....किंग्जफोर्ड सौभाग्यशाली था। जिस गाड़ी पर बम फेंका गया था, उसमे किंग्जफोर्ड के अतिथि केनेडी, उनकी पत्नी, लड़की और उनका एक नौकर था। लड़की और नौकर उसी जगह पर मर गये। श्रीमती केनेडी बुरी तरह से घायल हुई थी, जिसकी दो दिन बाद मृत्यु हो गई।
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#.....बम फेंक कर खुदीराम भाग गया।बिना रुके रात भर वह रेलवे लाइन के साथ दौड़ता रहा। सुबह होने पर वह रुका। इस समय तक वह २५ मील दौड़ चुका था। वह वेनी रेलवे स्टेशन के पास लाख नामक स्थान पर पहुँचा। लगातार दौड़ने से वह बिलकुल थक गया था। साथ ही साथ भूख भी लगी थी। भूंजी लाई लेकर उसने खाना शुरू किया।
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#.....इस समय तक मुजफ्फरपुर की घटना चरों दिशाओं में फ़ैल चुकी थी। जहाँ खुदीराम बैठे थे, लोगों की चर्चा इसी विषय पर हो रही थी। उत्सुकता से उसने चर्चा सुनी। केवल दो महिलाओं की मृत्यु हुई, यह सुनकर वह अपने आप को भूल गया और उसने पूछा ,"क्या किंग्जफोर्ड नहीं मरे?"
खुदीराम के इन शब्दों से दुकान में बैठे लोगों की दृष्टि उस पर गई। वह लड़का वहाँ नया दीख रहा था।उसके चेहरे पर बहुत थकान दीख रही थी। दुकान का मलिक उसके प्रति सशंक हो उठा। उसने विचार किया कि अपराधी को पकड़ने में सहायता करने पर उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने खुदीराम को पानी दिया और सामने जा रहे पुलिस सिपाही को खबर दी। पानी पीने के लिये ग्लास उठाते समय ही पुलिस सिपाही ने उसे पकड़ लिया। खुदीराम अपनी जेब से पिस्तौल नहीं निकाल सका। दोनों पिस्तौलें पुलिस सिपाहियों ने छीन ली, किन्तु खुदीराम नहीं घबराया।
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#.....मैं अच्छी तरह जानता हूँ की मुझे फांशी मिलने बाली हे
खुदीराम के विरुद्ध एक अभियोग चलाया गया। सरकार के पक्ष में दो वकील थे। मुजफ्फ़रपुर शहर में खुदीराम के पक्ष में कोई भी न था। अंत में कालिदास बोस नामक वकील खुदीराम की सहायता हेतु आये।
यह मुकदमा दो मास तक चला। अंत में खुदीराम को मृत्यु दंड मिला। मृत्यु दंड का निर्णय सुनते समय भी खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी।
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न्यायाधीश को आश्चर्य हुआ कि मृत्युदंड होते हुए भी यह उन्नीस वर्षीय लड़का शांत कैसे हो सकता है। "क्या तुम इस निर्णय का अर्थ जानते हो ?" न्यायाधीश ने पूछा ।
खुदीराम हंसकर बोले ,"इसका अर्थ मैं आपसे अधिक अच्छी तरह जानता हूँ।"
"तुम्हे कुछ कहना है? "
"हाँ। बम किस प्रकार से बनता है, यह मै स्पष्ट करना चाहता हूँ।"
न्यायाधीश को डर था कि कोर्ट मैं बैठे सारे लोगों को बम तैयार करने की जानकारी यह खुदीराम देगा। इसलिए उसने खुदीराम को बोलने की अनुमति नहीं दी।
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खुदीराम को अंग्रेजों के न्यायलय से न्याय की आशा थी ही नहीं।किन्तु कालिदास बोस की खुदीराम को बचाने की इच्छा थी। उन्होंने खुदीराम की ओर से कलकत्ता हायकोर्ट में याचिका दाखिल की। कलकता हायकोर्ट के न्यायधीश भी खुदीराम के स्वभाव को जानते थे। निर्भय आँखोंवाले दृढ निश्चयी खुदीराम को देख कर उन्हें भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने भी खुदीराम को मृत्युदंड ही दिया जो कनिष्ठ कोर्ट ने दिया था।
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किन्तु उन्होंने खुदीराम के फांसी का दिन ६ अगस्त से १९ अगस्त १९०८ तक बढ़ा दिया ।
"तुम्हे कुछ कहने की इच्छा है?" पुन: पूछा गया ।
खुदीराम ने कहा ,"राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता के लिये मैं मरना चाहता हूँ। फाँसी के विचार से मुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दुःख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके अपराध का दंड नहीं मिला।"
कारागृह में भी उसे चिंता नहीं थी। जब मृत्यु उसके पास पहुँची, तो भी उसके मुख पर चमक थी। उसने सोचा कि ' जितनी जल्दी मैं मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी मेरा पुन: जन्म होगा ।' यह कोई पौराणिक कथा नहीं है ।
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#.....माँ की गोद में वापसी
मृत्युदंड के निर्णय के अनुसार १९ अगस्त १९०८ को सुबह ६ बजे खुदीराम को फाँसी के तख्ते के पास लाया गया। उस समय भी उसके चेहरे की मुस्कान कायम थी। शांति से वह उस स्थान पर गया। उसके हाथ में भगवद्गीता थी। अंत में एक ही बार उसने 'वन्देमातरम ' कहा और उसे फाँसी लगी। अंत में खुदीराम ने अपना ध्येय प्राप्त किया। उसने अपना जीवन मातृभूमि की चरणोंपर समर्पित कर दिया। भारत के इतिहास में वह अमर है।
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#.....खुदीराम का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उसका फेंका हुआ बम किंग्जफोर्ड पर नहीं दूसरों पर पड़ा। किन्तु उस बम से किंग्जफोर्ड के मन में भय अवश्य निर्माण हुआ। जिस दिन खुदीराम हुतात्मा बना, उस दिन से ही किंग्जफोर्ड को शांतिनहीं मिली थी। प्रत्येक क्षण उसे अपनी मृत्यु दिखती थी। अंत में वह इतना डर गया कि उसने अपनी नौकरी छोड़ दी और मसूरी जाकर रहा।जिस किंग्जफोर्ड ने निष्कलंक, निरपराध लोगों को धमकाया, यातनाएँ दी थीं, वह खुद भयग्रस्त होकर मरा ।
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#.....एक प्रेरणा
पर खुदीराम मर कर भी अमर हुआ। उसने दूसरों को भी इसी प्रकार अमर होने की प्रेरणा दी। थोड़े ही समय में हजारों स्त्री-पुरुषों ने खुदीराम के मार्ग का अनुसरण कर भारत में अंगेजों की सता नष्ट कर दी। जहाँ, किंग्जफोर्ड को अपना पद छोड़ना पड़ा, वहीँ अंग्रेजों को भारत ही छोड़ना पड़ा।
इस अमर शहीद को को सम्मानित करते हुए १९९० में भारतीय डाक-तार विभाग ने एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट प्रकाशित किया जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है।
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#.....प्राण दण्ड की सज़ा
मुक़दमा केवल पाँच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें प्राण दण्ड की सज़ा सुनाई गई। इतना संगीन मुक़दमा और केवल पाँच दिन में समाप्त। यह बात न्याय के इतिहास में एक मज़ाक बना रहेगा। 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी को फाँसी पर चढा़ दिया गया। उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्यौछावर कर दिया
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#.....दासता से बड़ा रोग नहीं
एकबार खुदीराम मंदिर में गया।कुछ लोग वह मंदिर के सामने खुली जमीन पर लेटे थे। खुदीराम ने एक व्यक्ति से पूछा, "ये लोग यहाँ इस प्रकार क्यों लेटे हैं?" उत्तर मिला, "ये लोग किसी ना किसी रोग से पीड़ित हैं। उनका प्रश्न है कि भगवान उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर रोग-मुक्ति का वचन दें, तभी वे अन्न - जल ग्रहण करेंगें। इसलिये ऐसे पड़े हैं।"
खुदीराम ने एक क्षण विचार किया और कहा, "क्या एक दिन मुझे भी इनकी तरह लेटना पड़ेगा?"
"तुम्हे कौन सा रोग हुआ है?" एक व्यक्ति ने पूछा।
खुदीराम हँसकर बोले, "दासता से अधिक बुरा कौनसा रोग है। मुझे किसी दिन उसे हटाना ही पड़ेगा।"
अपनी बाल्यावस्था में भी खुदीराम अपने देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा करता था। यही समस्या उसके मन को घेरे हुए थी ।
जब खुदीराम इस प्रकार की चिंता में था कि उसने 'वन्देमातरम', 'भारत माता कि जय ' के नारे सुने। इन शब्दों से उसके मन में उत्साह निर्माण हुआ, उसकी आँखे चमकने लगीं।
Manish Soni
एडिटेड -manish soni ( उनसभी मित्रो को धन्यबाद जिनकी जानकारी से लेख पूरा हुआ )
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