पिछले सौ साल का प्रामाणिक रिकार्ड है कि दलितों, अछूतों को बराबरी और सम्मान देने का विरोध हिन्दू पण्डितों से अधिक ईसाई नेताओं ने किया। पहले वे साफ कहते भी थे कि इससे उन्हें 'हरिजनों को ईसाई बनाने के प्रयासों में कठिनाई होगी।' यह स्वयं कैंटरबरी के सर्वोच्च आर्कबिशप ने कहा था, जब 1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने मन्दिरों के द्वार सबके लिए खोल दिये थे।
जब गांधी जी ने अस्पृश्यता खत्म करने का अभियान चलाया तो सबसे तीव्र विरोध ब्राह्मणों ने नहीं, चर्च-नेताओं ने किया था। उन्होने यह दलील दी कि 'गांधी जी हिन्दू धर्म के साथ छेड़-छाड़ कर रहे हैं। यह सन्दर्भ याद रखना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह प्रवृत्ति आज भी पूरी ताकत से सक्रिय है। तभी तो न केवल दलित-मुक्ति को उनका संगठित धर्मान्तरण कराने, गोमांस खिलाने आदि से जोड़ा जाता है, बल्कि यह भी छिपाया जाता है कि स्वतंत्रता पूर्व और बाद भी, निम्न जातियों को सम्मान और बराबरी देने का कार्य हिन्दू समाज ने स्वयं किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, गांधी जी, सरदार पटेल, हेगड़ेवार, अम्बेडकर आदि अनगिन महापुरुषों ने यह कार्य बढ़चढ़ कर किया। इस कार्य में दोगलापन कांग्रेसी सवर्णों ने ही किया और आज भी कर रहे हैं। -
प्रा. शंकर शरण
साभार
चारूमित्र पाठक
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