"किसी भी गलती को सुधारे जाने के लिए उसका स्वीकार किया जाना आवश्यक है ..पर जब तक तर्कों के आधार पर गलती को सही ठहराने का प्रयास किया जाता रहेगा, समस्याओं का जटिल होना स्वाभाविक है।
जब कभी भी भारत के संघीय प्रणाली कि एकात्मक-ता को आतंरिक खतरों ने अस्थिर किया है, राष्ट्र विदेशियों का गुलाम बना है। परिवर्तन के क्रम ने प्रक्रिया भले ही बदल दी हो पर परिणाम हमेशा यही रहा है, मुग़ल हों या फिर अँगरेज़ , उन्होंने इसी सिद्धांत को यथार्थ में उदाहरण के माध्यम से चरितार्थ किया है।
सवाल ये है, कि क्या हमने अपनी गलतियों से कुछ नहीं सिखा?
अतीत का महत्व अनुभव से है पर अगर वर्त्तमान अतीत कि गलतियां दोहराने लगे तो निश्चय ही भविष्य कुंठित हो जाएगा।
शायद समय के अनुकूलन कि प्रक्रिया ने हमें इतना संवेदनहीन बना दिया है कि वर्त्तमान कि इस चुनौती को हम महसूस नहीं कर रहे ? .....और अगर सवाल ये उठता है कि वर्त्तमान की चुनातियाँ क्या है ....तो मुझे बिल्कुल भी आश्चर्य नहीं होगा ....क्यों की वर्त्तमान कि स्वचालित मशीनी जीवन शैली ने स्वाभाविक रूप से समाज को इस चुनौती कि अनुभूति से प्रतिरक्षित कर दिया है।
पूंजीवाद के इस युग में धन ने संसाधनो को उनके उद्देश्य से अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है परिणाम स्वरुप जीवन का औचित्य ही ग़ुम है। उपनिवेश आज बाज़ार निर्धारित करता है और अर्थशास्त्र ने जीवन को अर्थहीन बना दिया है शायद इसीलिए लाभ और हानि के समीकरण ने आवश्यकताओं और उपयोग को बौना बना दिया है।
और विवशता ये है कि समाज का कोई भी पहलु इस संक्रमण से अछूता नहीं है अतः संक्रमण ही बहुमत है। ऐसी परिस्थिति में गणतंत्र , जिसका आधार ही बहुमत हो , अपनी विशिस्ट-ता से सीमित हो गया है और उसके निर्णय लेने कि क्षमता पर समझ को संदेह है।
उदाहरण के तौर पर भारत के वर्त्तमान राजनैतिक परिदृश्य को देखकर ही बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा ;
समाज के वर्त्तमान व्यवस्था की प्रणाली में एक राजनैतिक दल ही जनता का प्रतिनिधित्व करता है , इसलिए, ये उनकी जिम्मेदारी और जवाबदारी है की व्यवस्था तंत्र के संसाधनो को उपयोग उचित उद्देश्य के लिए करें। आखिर , आवश्यकता ही संसाधनो की उपयोगिता निर्धारित करती है और सत्ता का संसाधन तो स्वाभाविक रूप से अत्यंत प्रभावशाली है , ऐसे में , राजनैतिक दलों का नेतृत्व महत्वपूर्ण हो जाता है।
समाज में अगर व्यवस्था तंत्र के लिए व्यक्ति विशेष के लाभ का महत्व समाज के समग्र विकास से अधिक है तो इसका यही तात्पर्य है की कहीं न कहीं त्रुटि नेतृत्व की मानसिकता में है क्योंकि उसे ही निर्णय का अधिकार प्राप्त है; इसलिए, महत्व की प्राथमिकताओं की इस त्रुटि का दोषी सामाजिक नेतृत्व को ही माना जाएगा।
संविधान ने भारत के नागरिकों को मतदान के माध्यम से सत्ता परिवर्तन का अधिकार तो दिया परन्तु समाज अगर व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता महसूस करता है तो प्रावधान निकलना भी समाज का ही दायित्व होगा क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
मुश्किल नहीं है व्यवस्था परिवर्तन , बस अगर व्यवस्था के आधार को बदलने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो व्यवस्था परिवर्तन बिल्कुल भी असंभव नहीं।
आखिर, व्यवस्था तंत्र भी समाज का ही हिस्सा है जिसका उद्देश्य समाज में व्यवस्था और सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रयास मात्र से नैतिक गुणो कि स्थापना करना है जो एक अयोग्य नेतृत्व के अधीन भ्रष्ट व्यवस्था तंत्र के माध्यम से हो ही नहीं सकता; ऐसे में, क्या हमें मूकदर्शक बने रहना चाहिए, परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करनी चाहिए या अपने पौरुष से व्यवस्था परिवर्तन के चमत्कार को भी संभव करने का प्रयास करना चाहिए, फिर उसके लिए चाहे जो कुछ भी करना पड़े;
आज बहुमत संक्रमित है अतः उनसे समस्या तो अपेक्षित है पर समाधान कि उम्मीद करना मूर्खता होगी ऐसे में क्या सामाजिक संघटनो के उच्च पदों पर पदस्थापित व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्व कि अवहेलना कर पाएंगे ??"
No comments:
Post a Comment