Sunday, 7 January 2018

सिकन्दर न महान था,
न विश्वविजेता !!!
यह ऐतिहासिक सत्य है कि भारत के उत्तर पश्चिम
का क्षेत्र,पितृहन्ता सिकंदर के आक्रमण से पूर्व भारत
की संस्कृति,दर्शन,विज्ञान तथा चिकित्सा प्रणाली से
परिचित था।
पोकोक नामक विद्वान ने तो अपने ग्रंथ 'इंडिया इन
ग्रीस' में ग्रीस को बिहार के प्रसिद्ध राजगृह के लोगों
द्वारा बसाया क्षेत्र माना है।
अर्थात् राजगृह से लोग आये जो 'गृहिक' कहलाये
और बाद में 'ग्रीक' या ग्रीस बन गए।
मैक्समूलर दार्शनिकों सुकरात (469-399) ई.पू.
अफलातून (428-347) ई.पू. अरस्तू (384-322)
ई.पू. से भारतीय विद्वानों से भेंट का भी वर्णन
किया है।
उल्लेखनीय है कि फिलिप (359-336) ई.पू.
मेसीडोनिया का शासक रहा था न कि ग्रीक या
यूनान का।
यह छोटा सा राज्य यूनान के उत्तर में था।
सिकंदर का असली नाम था एलेक्जेण्डर,
(अलक्ष्येंद्र) तथा सिकंदर नाम उसे मिस्र
पर आक्रमण के बाद वहां के लोगों ने दिया था।
सिकंदर एक धोखेबाज,क्रूर तथा हिंसात्मक
प्रवृत्ति का युवक था।
उसने चारों ओर आक्रमण की योजना बनाई थी।
उसने थेब्स कबीले से संघर्ष करते हुए भयंकर
लूटमार तथा हत्याकांड किया था।
यूनानी इतिहासकार डियोडोरस के अनुसार
शहर का प्रत्येक कोना लोगों के शवों के ढेर
से ढक गया था।
2000 मुसलमानों की बिक्री की गई थी।
600 सैनिक मारे गए तथा शेष की हत्या
कर दी गई थी।
यूनान के लोग उससे भयभीत थे तथा उससे
घृणा करते थे।
334 ई.पू. वर्ष में उसने एशिया के लिए अभियान
शुरू किया।
उसने ईरान के अंतिम शासक डेरियस तृतीय को
पराजित कर उसकी हत्या करवा दी थी तथा सूसा
के राजमहल को आग लगा दी थी,अनेक नगरों
को ध्वंस कर किया।
326 ई.पू. में सिकंदर ने अपनी विश्वविजय की
आकांक्षा पूरी करने के लिए भारत पर आक्रमण
किया,जहां उसका स्वप्न चकनाचूर हो गया।
साधनों का अभाव भारत पर सिकंदर के आक्रमण
का अध्ययन करते समय यह जानना नितांत
आवश्यक है कि इस संदर्भ में प्राप्त साधनों
की छानबीन की जाये क्योंकि सिकन्दर का
जीवन अनेक कपोल कल्पित गाथाओं तथा
भ्रांतियों से जुड़ा है।
भारत की पराधीनता के काल में विदेशी
इतिहासकारों ने सिकंदर की घटनाओं को
इस ढंग से तोड़-मरोड़ कर तथा मनमाने
तरीके से प्रस्तुत किया कि वास्तविकता
पर रहस्य का पर्दा पड़ गया है।
स्वतंत्रता के पश्चात भी भारतीय इतिहास के
ग्रन्थों में उन भ्रामक तथा तथ्यहीन वर्णनों को
ज्यों का त्यों पढ़ाया जा रहा है।
यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सिकंदर के
बारे में एक भी तत्कालीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं है
जो उसके भारत आक्रमण तथा उसकी पराजय
की कहानी बताये।
सिकन्दर के बारे में सर्वप्रथम ग्रन्थ उसकी मृत्यु
के लगभग 300 वर्षों के पश्चात अतिरंजनापूर्ण
भाषा में लिखे गए।
एरियन,कर्टियस,रुक्स,डियोडोरस,जस्टिन आदि
ने सिकन्दर के बारे में जो भी जानकारी दी,उसके
बारे में स्वयं इन लेखकों ने स्वीकार किया कि उन्हें
बहुत तथ्यपरक जानकारी नहीं थी।
बाद में इन विद्वानों के संगृहीत कथनों को
ऐतिहासिक प्रमाण मानकर इसका प्रचार
किया गया।
इतना ही नहीं भारत के किसी भी वैदिक,बौद्ध,जैन
या अन्य किसी ग्रन्थ में सिकन्दर के आक्रमण पर
एक भी पंक्ति नहीं है।
इसके सन्दर्भ में कोई भी पुरातत्व सामग्री या
साहित्य साधन ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं।
प्रमुख ब्रिटिश इतिहासकारों वी.ए. स्मिथ तथा एच.
एच. डाडवैल जिन्होंने सिकन्दर को महिमा मंडित
करने में कोई कसर न रखी।
यह स्वीकार किया है कि भारत में भी सिकन्दर
पर कोई ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त नहीं है।
जर्मन विद्वान विलियम वान पोकहेमर ने लिखा
कि किसी भी भारतीय ग्रन्थ में सिकन्दर का
नाम नहीं है।
सिकन्दर महान कब ?
गंभीर प्रश्न है कि जब सिकंदर के बारे में कोई
साधन सामग्री ही नहीं है तो सिकंदर महान का
नियम कब और क्यों गढ़ा गया?
उल्लेखनीय है कि 1857 के भारत के महासंग्राम
तक भारत की किसी भी पुस्तक में सिकंदर को
महान नहीं कहा गया है।
मैकक्रिंडल ने 1877-1901 के दौरान छह राज्यों
में लिखे पुराने यूनानी तथा रोमन इतिहासकारों के
वर्णन में सिकन्दर के भारत आक्रमण को कहीं-कहीं
प्रसंगानुसार वर्णन किया है।
परन्तु सिकन्दर को महिमामंडित करने का
योजना पूर्वक प्रयास सर्वप्रथम वी.ए. स्मिथ ने
1904 में प्रकाशित 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया'
में किया जो शीघ्र ही भारत के विश्वविद्यालयों
में पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने लगी।
वी.ए. स्मिथ (1848-1920) पहला इतिहासकार,
प्रशासक तथा ईसाइयत का महान पोषक था जिसने
सिकंदर के भारत अक्रमण तथा उसके क्रियाकलापों
का वर्णन विस्तार से किया।
उसने उपरोक्त पुस्तक में सिकन्दर का वर्णन 63
पृष्ठों में किया है।
उसने साम्राज्यवादी दृष्टिकोण तथा पूर्वाग्रहों से
ग्रसित हो,भारत में सिकन्दर की सफलताओं को
शानदार तथा अतुलनीय लिखा।
सिकन्दर की सेना में फैली बगावत को भी एक
वरदान माना।
स्मिथ ने अपनी दूसरी पुस्तक (देखें द ऑक्सफोर्ड
हिस्ट्री ऑफ इंडिया)में सिकन्दर के मामूली आक्रमण
को भी बढ़ा-चढ़ाकर लिखा।
उसने सिकन्दर महान की तुलना सम्राट अकबर
से की जबकि भारतीय दृष्टि से दोनों ही महान
नहीं थे।
स्मिथ ने अहंकारयुक्त भाषा में सिकन्दर को,सिवाय
मृत्यु के अपने समस्त शत्रुओं के लिए कहा अजेय तथा
उसे 'ब्रिटिश का पूर्वगामी' लिखा।
वी.ए. स्मिथ की भांति बाद के प्राय: सभी इतिहासकारों
ने सिकन्दर को महान कहने का क्रम बनाए रखा।
ब्रिटिश लेखकों ने राजनीति से प्रेरित हो सिकन्दर
के भारत-आक्रमण को वास्कोडिगामा के भारत
में आने से जोड़ा तथा इस ढंग से सिकन्दर को
भारत की धरती पर पहला यूरोपीय विजेता,
'भारत के राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भकर्ता'
कहा।
इतना ही नहीं,ब्रिटिश इतिहासकार हेरिंगटन वर्नेय
लावेट ने अपनी पुस्तक (इंडिया) पृ. 51 में सिकन्दर
महान को तक्षशिला में एक वैदिक विश्वविद्यालय
का संस्थापक भी लिख डाला।
उत्तर-पश्चिम भारत पर आक्रमण 326 ईं.पू.
सिकन्दर ईरान को कुचलता,रौंदता हुआ भारत
की ओर बढ़ा।
उसका पहला टकराव अटक के उस पार ही हुआ।
कुंवार की घाटी तथा चित्राल नदी पर वह पहली
बार कन्धे पर चोट लगने से परेशान हो गया।
(देखें डॉ. डी.सी. सरकार, ईरानियन्स एण्ड
ग्रीक्स इन एंशियट, पंजाब पृ. 20)
बदले में वहां के समस्त नागरिकों की हत्या कर
वह आगे बढ़ा।
रास्ते में उसने निन्यासी यूनानी बस्ती को भी
नहीं छोड़ा।
(वहां के लोगों द्वारा पराधीनता मानने तथा 300
घुड़सवारों की सहायता देने पर वह वहां से चला।)
मस्सग में सिकन्दर का भयंकर संघर्ष हुआ।
यहां दूसरी बार सिकन्दर घायल हुआ।
(वही पृ. 21)
अटक से16 मील दूर ओहिन्द नामक स्थान
को पार कर वह पंचनद (पंजाब) के मैदानी
इलाकों तक पहुंचा।
तक्षशिला के राजा आम्भी से दोस्ती की।
झेलम नदी पार करना कठिन था।
झेलम के पार राजा पुरु (यूनानी शब्द पोरस)
का शक्तिशाली राज्य था।
उसने धोखे से एक तूफानी रात्रि में नदी पार की।
कुछ विदेशी इतिहासकारों का कथन है कि
सिकन्दर को युद्ध में सफलता मिली।
परन्तु भारतीय विद्वानों, डा. हरिश्चन्द्र सेठ,एम.
एल. बोथनकर जैसे विद्वानों ने इसे पूर्णत: नकारा है।
यह निश्चित है कि इसमें सिकन्दर के सैनिकों की
बड़ी हानि हुई तथा सैनिकों के हौसले पस्त हो गए।
हजारों घायल तथा घबराए यूनानी सैनिकों को
वापस भेजा गया।
रोमन इतिहासकार एरियन के अनुसार इस युद्ध के
पश्चात राजा पुरु का राज्य पहले से अधिक विस्तृत
हो गया।
यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार इस संघर्ष
में मैसोडोनिया के वीर हीनभावना से ग्रस्त हो गए
थे तथा वे आगे बढ़ने को तैयार न थे।
(उद्धरित आर.सी. मजूमदार, द क्लासिकल एकांउट्स
ऑफ इंडिया, पृ. 198)
विभिन्न स्थानों पर स्थानीय लोग यूनानी सेना के
दुश्मन बन गए थे।
मालवों पर परकीय सिकन्दर को आक्रमण करना
भारी पड़ा।
यद्यपि इसमें हजारों मालव मारे गए।
अनेकों ने अपनों को अग्नि के हवाले किया।
बचे हुओं ने पुन: शक्ति एकत्रित कर नदी के पार
किलेबन्दी की।
यहां संघर्ष में सिकन्दर तीसरी बार घायल हो खून
से लथपथ हो गया।
(डी.सी. सरकार पूर्वोक्त पृ. 30)
बड़ी मुश्किल से वह बच सका।
आखिर सिकन्दर को मालवों के साथ युद्धविराम
करना पड़ा।
युद्धविराम के लिए सिकन्दर ने लगभग 100
मालव प्रतिनिधियों का एक विशाल कक्ष में
स्वागत किया।
इस समय तक सिकन्दर की सेना व्यास नदी
तक बढ़ चुकी थी,लेकिन भारतीयों के सतत्
प्रतिरोध के कारण तथा उनका सामना करने
में असमर्थ यूनानी सेनाओं ने आगे बढ़ने से
साफ इंकार कर दिया।
(देखें, डॉ. बुद्ध प्रकाश,ग्लिंप्सेज ऑफ एंशियंट
पंजाब, पृ. 28)
सेना ने व्यास नदी के किनारे डेरे डाल दिए।
क्रूर,अन्धविश्वासी,वह भी ज्योतिषियों पर
अत्यधिक विश्वास रखने वाले सिकन्दर के
सपने चकनाचूर हो गए।
सेना ने हड़ताल कर दी।
यह इतिहास में अनूठे ढंग की बगावत थी।
विश्व के इतिहास में सैनिकों की ऐसी दयनीय
दशा पहले कभी न सुनी और न पढ़ी थी।
सिकन्दर तीन दिनों तक अपने सैनिकों के
सम्मुख संघर्ष करने के लिए तथा आगे बढ़ने
के लिए गिड़गिड़ाता रहा।
सैनिकों को सिकन्दर प्यारा था परन्तु उससे अधिक अपने प्राणों का भय था। अत: उसे सेना की वापसी के आदेश देने पड़े। उसने व्यास के किनारे 12 स्तम्भ यूनान के बारह देवताओं की स्मृति में खड़े किए थे। यूनानी ढंग से देवताओं को बलि दी गई थी,पर ये स्तम्भ सिकन्दर के वापस लौटते ही भारतीयों ने व्यास नदी में फेंक दिए।
सिकन्दर की वापसी भी सरल व सहज न थी। रास्ते में अनेक छोटे-छोटे राज्यों से जान बचाते, सिकन्दर की सेनाए सिंध के मुहाने पर पहुंची थीं। भावी कठिनाइयों को देखते हुए उसने अपनी सेनाओं को दो भागों में बांटा-एक को समुद्र मार्ग से तथा दूसरी को बलूचिस्तान के रास्ते स्थल मार्ग से भेजा। तीसरी बार घायल हुए। घाव के ठीक न होने से 323 वर्ष ईं. पू. रास्ते में बेवीलोन में उसकी मृत्यु हो गई।
संक्षेप मेंे सिकन्दर यूरोप (मैसीडोनिया) में जन्मा उसने एशिया (भारत के उत्तर पश्चिम) में संघर्ष किया तथा वह अफ्रीका (बेबीलोन) में मर गया। बेचारा सिकन्दर न महान बन सका और न ही भारत विजेता ही।
ग्रीस के लोग तो पहले ही उससे घृणा करते थे। भारत में भी उसका कोई स्थायी प्रभाव न हुआ। सिकन्दर के भारत से लौटते ही सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में बचे-खुचे यूनानियों को खदेड़ कर भारत की सीमाएं अफगानिस्तान तक पुन: स्थापित कीं।
प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने माना कि सिकन्दर के आक्रमणों से छोटे-मोटे राज्यों की समाप्ति से भारत में विशाल राज्य स्थापित करने का मार्गप्रशस्त हुआ। (देखें, द. क्लासिकल एकाउन्ट्स ऑफ इंडिया पृ. 193) राजनीति में एकता तथा दृढ़ता स्थापित हुई।
आखिर कब तक भारतीय चिंतक,विचारक,लेखक विदेशी इतिहासकारों के मिथकों,गल्प कथाओं,राजनीतिक प्रेरित गंदे तथा तथ्यहीन प्रसंगों तथा क्षुद्र भावनाओं से कथित महिमा मंडित घटनाओं का मानसिक गुलामी के पात्र बने रहेंगे? आवश्यकता है कि विश्व के सन्दर्भ में तथ्य पर आधारित भारतीय दृष्टिकोण से इतिहास लिखा जाए, पढ़ाया जाए तथा समझा जाय।

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