सन्यास आतंरिक अवस्था है, इसका बाहर से सम्बन्ध नहीं है, कपड़ो से सम्बन्ध नहीं है. मुक्त होकर, निरपेक्ष होकर राष्ट्र की आराधना करने वाला ही सन्यासी है.बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए स्वामी विवेकानंद सारे देश में घूम-घूम कर अकाल पीड़ितों के लिए आनाज और धन एकत्रित कर रहे थे,इसी क्रम में वे ढाका पहुंचे । वहां कुछ पंडित उन से मिलने और शास्त्रार्थ के लिए आये किन्तु स्वामीजी वहां अकाल पीड़ितों की चर्चा करने लगे, वे कहने लगे, ‘जब मैं अकाल से लोगों को मरते हुए देखता हूँ तो मुझे बहूत दुख होता है, आँखों में आंसू आ जाते हैं । मन में विचार करता हूँ की आखिर प्रभु की इच्छा क्या है ?’ उनकी इन बातों को सुन कर सभी पंडित एक दुसरे से नजरे मिला कर मुस्कुराने लगे ।उनकी ऐसी प्रतिक्रिया देख कर स्वामीजी ने पूछा ‘आप लोग मुझ पर हंस रहे हैं? उनमें से एक पंडित ने हँसते हुए कहा, ‘स्वामीजी ! हम तो समझते थे कि आप वीतरागी संन्यासी हैं। अत: सांसारिक सुख-दुख से परे हैं। किन्तु आप तो इस नश्वर शरीर के लिए रोते हैं.स्वामीजी उनके तर्क को सुनकर हैरान रह गए, फिर डंडा उठाते हुए उस पंडित की और बढ़े और बोले, ‘आज तुम्हारी परीक्षा है। यह डंडा तुम्हारी आत्मा को नहीं मरेगा, मात्र नश्वर शरीर को ही मारेगा। यदि सच में पंडित हो, ज्ञानी हो तो अपने स्थान से मत हिलना । अब उस पंडित की समझ में आ गया।संन्यासी हो जाने का मतलब मानवीयता से नाता तोड़ना नहीं है बल्कि पीड़ित मानव के लिए अपने हित को पड़े रखकर काम करने वाला ही सच्चा सन्यासी है।
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