Thursday, 16 March 2017

भारतीयों की ताकत का राज़ उनकी उन्नत कृषि और गाय है जिसे वे गौमाता कह कर पुकारते है     - रोबर्ट क्लाइव

हमारा देश लम्बे समय तक अंग्रेंजो का गुलाम रहा ,सेकड़ो वर्षो तक इस देश को अंग्रेंजो ने गुलाम बनाने की काफी तैयारी की थी, सन 1813 में अंग्रेंजो की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में एक बहस चली 24 जुन 1813 को वो बहस पूरी हुई और वहाँ से एक प्रस्ताव पारित किया, भारत में गरीबी पैदा करनी है भुखमरी लानी है भारत की समृदि को तोडन है इनको यदि शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर करना है तो भारत की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करना पड़ेगा इसे बरबाद करना पड़ेगा इसके लिय भारत का केन्द्र बिन्दु भारत की कृषि पद्धति को भी बरबाद करना पड़ेगा । भारत की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर टिकी हुई है इनकी कृषि गाय पर टिकी हुई है गाय के बिना भारतीय कृषि हो नहीं सकतीदूसरा इनको ये पता चला के भारत के कोने कोने में गाय की पूजा होती है इनके 33 करोड़ देवी देवता इसमें वास करते है तब उन्होंने एक बढ़ा फैसला लिया यदि भारतीय कृषि को बरबाद करना है भारतीय संस्कृति का नाश करना है तो गाय का नाश करना चाहिये
भारत मे पहला गौ का कत्लखाना 1707 ईस्वी में रॉबर्ट क्लाएव ने खोला था जिसमें गाय को काट कर उसके मॉस को अंग्रेंजी फोज़ को खिलाया जाने लगा गो वंश का नाश शुरू हो गया। बीच दौर में अंग्रेंजो को एक और महत्वपूर्ण बात पता चली के यदि गो वंश का नाश करना है तो उसके लिये जहाँ से इसकी उत्पति होती है उस नन्दी को मरवाना होगा तो अग्रेंजो ने गाय से ज्यादा नन्दी का कत्ल करवाना शुरू किया। 
1857 में मंगल पाण्डे को जब फांसी सजा हुई थी इसका मूल प्रश्न गाय का ही था इसी मूल प्रश्न से हिन्दुस्तान में क्रांति की शुरुआत हुई थी. उस जमाने में अंग्रेंजो ने पुरे भारत में लगभग 350 कत्लखाने खुलवाये|


 आज अज़ादी के 67 साल में पुरे भारत में लगभग 36000 कत्लखाने है जिसमें कुछ कत्लखाने ऐसे है जिसमें 10 हज़ार पशु रोज़ काटे जाते है भारत वर्तमान में विश्व का 3 नम्बर गो मॉस निर्यात करने वाला देश बन गया है भविष्य में इन कत्ल खानो को हाई टेक किया जाना है अंग्रेंजो ने 1910 से 1940 तक लगभग 10 करोड़ से ज्यादा गो वंश को खत्म किया गया ।
अज़ादी के  बाद  करोड़ गो वंश का नाश किया जा चूका है  अगर भारत में इन  गो वंश को यदि बचा लिया गया होता तो भारत में सम्पति और सम्पदा कितनी होती पैसा कितना होता ...






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