यहां बैलों को दी जा रही है पेंशन...
लखनऊ। राष्ट्रीय दुग्ध अनुसंधान करनाल के वैज्ञानिकों की टीम एक ऐसी परियोजना पर काम कर रहे हैं, जिसमें अब गायें सिर्फ बछिया यानि मादा को ही जन्म देंगी। 55 करोड़ की इस परियोजना पर तेजी से काम हो रहा है। इस परियोजना को सेक्स सीमेन टेक्नोलॉजी का नाम दिया गया है। इसका मकसद है गायों की संख्या बढ़ाना, जिससे दुग्ध उत्पादन बढ़ सके। लेकिन इस परियोजना को लेकर लोगों का विरोध भी है। चिंता इस बात पर जताई जा रही है कि बैलों की संख्या इससे बहुत कम हो जाएगी और जो कृषि और परिस्थिति तंत्र के लिए भी ठीक नहीं होगा। ऐसे में बैलों की संख्या को बढ़ाने के लिए झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक कस्बा पतरातू में बैलों को बचाने के लिए अनूठा प्रयोग किया जा रहा है, जिसमें बैलों को पेंशन दी जा रही है।
तब कम होने लगी बैलों की संख्या
इस योजना को पहली बार सुनकर लोग अचरज में पड़ जाते हैं, मगर इस क्षेत्र में इस योजना ने बैलों की संख्या बढ़ाने के साथ ही कृषि कार्य के लिए उनको उपयोगी बनाने में एक क्रांति कर दी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े सिद्धनाथ सिंह रामगढ़ जिले के पतरातू में इस योजना को संचालित कर रहे हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर कुछ दिनों तक एक स्टील कंपनी में काम करने वाले सिद्धनाथ सिंह ने बताया कि साल 1973 में मैंने पतरातू में अपना काम शुरू किया। इसमें मैंने देखा कि यहां के गावों में गाय से बछड़ा पैदा होने के बाद लोग इसका ठीक से पालन पोषण नहीं करते हैं। लोग उसे अनुपयोगी मानकर छोड़ देते हैं। ऐसे में इस क्षेत्र से बैलों की संख्या कम हो गई और जिसका असर खेती पर भी पड़ा। क्योंकि झारखंड के अधिकतर क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर ट्रैक्टर या दूसरी मशीनों से खेती नहीं हो सकती।
और शुरू की बुल पेंशन स्कीम
ऐसे में सिद्धनाथ सिंह ने बुल पेंशन स्कीम शुरू की। जिसमें उनके गौशाला में जब कोई गाय बछड़ा देती है तो उसे गांव वालों को दिया जाता। जिस किसान को बछड़ा दिया जाता है, उससे 8,000 रूपए सिक्योरिटी का लिया जाता है और साथ ही उसके साथ एक एमओयू भी साइन कराया जाता है कि वह बछड़े को बेच नहीं सकता। 12 साल का जब बैल हो जाता है तो किसान को ब्याज के साथ पैसा वापस दिया जाता है। जिससे बैल की अच्छे से देखभाल हो जाती है। साथ ही बैलों को कृषि के लिए कैसे उपयोगी बनाया जाए, इसके लिए भी ट्रेनिंग दी जाती है। इस योजना का यहां के आसपास के किसान काफी लाभ ले रहे हैं।
क्या कहते हैं गाँव के किसान
पतरातू का हफुआ गांव की ज्यादातर आबादी मुसलिम है। इस गांव के किसान मोहम्मद कु्ददुस अंसारी ने बताया कि हमारे गांव में बैलों की संख्या बिल्कुल कम हो गई थी। ऐसे में मुझे बैल पेंशन योजना के बारे में पता चला और मैंने सिद्धनाथ सिंह से संपर्क किया। वहां मैंने दो बैल पेंशन योजना के तहत ले लिया। कुछ साल में एक तरफ जहां हमारा पैसा दोगुना हो जाएगा, वहीं इस पैसे से हम अपने बैल की अच्छे से देखभाल भी कर पाएंगे।
मध्य प्रदेश, गुजरात और कनार्टक में भी चल रही ऐसी योजना
जबसे परंपरागत खेती की जगह नई खेती ने ली है, उसके बाद से किसान, खेत और बैल का रिश्ता टूट गया है। पहले खेतों की जुताई, रहट से सिंचाई, खेत-खलिहान से फसलों और अनाज की ढुलाई में बैलगाड़ियों में बैल की ही जरुरत पड़ती रही। लेकिन जब से ट्रैक्टर का उपयोग बढ़ा, बैल बिना काम के हो गए। मगर डीजल के बढ़ते दाम, ग्लोबल वार्मिंग और जैविक खेती के साथ ही पारंपरिक खेती के बढ़ते प्रचलन ने एक बार फिर से बैलों की जरुरत महसूस की जा रही है। ऐसे में बैलों को बचाने और कृषि कार्य के लिए उन्हें उपयोगी बनाने के लिए मध्यपद्रेश के मोहाड़, कनार्टक के इडाकाडू और गुजरात के कथाड़ा में बैलों को बचाने की ऐसी ही योजना चल रही है। जहां पर बैलों को पेंशन देने के साथ ही बैल किसान के लिए कैसे अधिक से अधिक उपयोगी बन सके, इसके लिए किसानों को ट्रेनिंग दी जा रही है।
बिना खर्च का है बैल पालन
रासायनिक खादों का कृषि पर अब दिख रहा दुष्प्रभाव कृषि वैज्ञानिकों के साथ ही देश की राज्य और प्रदेश की सरकारों को चिंता में डाल दिया है। ऐसे में अब परंपरागत खेती को लेकर जागरूकता पैदा की जा रही है। जिसमें किसानों को बताया जा रहा है कि कैसे बैले उनके लिए उपयोगी है। उनके पालन-पोषण में अलग से खर्च की जररुत नहीं पड़ती है। खेतों में पैदा होनी वाली फसलों ठंडल, भूसा, पुआल, और खेतों की घासों से बैल का चारा बन जाता है, जो उनका पेट भरने के लिए काफी है। खेतों में पैदा होने वाली हरी सब्जियों को ऐसा भाग जिसे किसान फेंक देते हैं उसको भी इनको खिलाया जा सकता है। बैल पालन से देसी खाद भी अच्छी मात्रा में बन जाती है। जिससे खेतों में रासायिनक खादों की जरुरत नहीं पड़ती है। ऐसे में खेत, किसान और बैल का रिश्ता बना रहता है।
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