व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न टिकता है न फलित होता है...
एक बार सर्दी की रात में सत्संग चल रहा था। बीच में अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। एक तरफ ऋषि बैठे थे दूसरी तरफ शिष्य। ऋषि बोले- अंगीठी खूब चमकरही है। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है।' सभी ने सहमति में सिर हिलाया। ऋषि ने उदयन से कहा- देखो सबसे बड़ा कोयला सबसे तेजस्वी है। इसे निकाल कर मेरे पास रख दो। उदयन ने चिमटे से पकड़ कर वह तेज भरा अंगारा ऋषि के पास रख दिया।
जैसे ही वह अंगीठी के अन्य कोयलों से अलग हुआ जल्दी ही उसकी चमक फीकी पड़ने लगी। उस पर राख की परतें आ गईं और वह तेजस्वी अंगारा एक काला कोयला भर रह गया। ऋषि ने समझाया- तुम चाहे कितने भी तेजस्वी हो पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना।
अगर यह कोयला अंगीठी में सबके साथ रहता तो अंत तक तेजस्वी बना रहता और सबको गर्मी देता रहता। अलग होते ही इसकी चमक नहीं रही। अब हम इसकी तेजस्विता का लाभ भी नहीं उठा सकेंगे। परिवार ही वह अंगीठी है जिसमें प्रतिभाएं संयुक्त रूप से तपती हैं।
व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न टिकता है न फलित होता है। सब के साथ रहने में ही वास्तविक बल है। उदयन को अपनी भूल का अहसास हो गया।
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व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न टिकता है न फलित होता है। सब के साथ रहने में ही वास्तविक बल है। उदयन को अपनी भूल का अहसास हो गया।
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