Monday, 6 March 2017

"सामाजिक जीवन की व्यवहारिकता में जीवन के नैतिक मूल्यों का ह्रास ही समाज में दमन, शोषण, उत्तपीडन व् भ्रस्टाचार का मुख्य कारन है, ऐसे में, समस्या के प्रभावों से जब तक हम विचलित होकर प्रतिक्रिया कर ही संतुष्ट रहेंगे, हमारा प्रयास समस्याओं को कुछ हद तक नियंत्रित तो कर सकता है पर उसका पूर्ण रूप से निवारण संभव ही नहीं।
सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के पुनर्स्थापना द्वारा ही समाज के समस्त समस्याओं का निवारण संभव है जिसके लिए सिद्धांतों का प्रयास द्वारा व्यवहार में रूपांतरण ही वर्त्तमान के लिए एक मात्र विकल्प है।
जिस प्रकार प्रवाह की धारा शीर्ष से निम्न स्तर की ओर बहती है, ठीक उसी प्रकार, सामाजिक व्यवस्था में भी व्यवहारिकता सामाजिक नेतृत्व के आचरण द्वारा परिभाषित होता है , ऐसे में, सामाजिक नेतृत्व की जैसी मानसिकता होगी , स्वाभाविक है समाज का वैसा ही व्यवहार होगा।
सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में भी परिस्थितियों को बदलने की प्रक्रिया की शुरुआत नीचे से नहीं बल्कि ऊपर से करनी होगी, ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक सीढ़ी के शीर्षतम स्तर द्वारा ही सामाजिक जीवन की व्यवहारिकता एवं सामाजिक व्यवस्था की नियम व् शैली निर्धारित किये जाते हैं जिनका विभिन्न स्तर द्वारा परिस्थितियों के सन्दर्भ में अनुसरण मात्र किया जाता है. इसलिए, जैसा समाज के समक्ष नेतृत्व का उदाहरण प्रस्तुत किया जाएगा, सामाजिक जीवन का 'व्यावहारिक' आचरण उसी स्तर का होगा।
अतः नेतृत्व के उदाहरण के परिवर्तन द्वारा ही समाज की मानसिकता व् व्यवहारिकता में बदलाव संभव है ; अन्यथा, सत्ता बदलती रहेगी पर व्यवस्था वैसी ही रहेगी।
दुर्भाग्यवश, आज परिस्थितियां कुछ ऐसी है की सत्ता के स्वार्थ से प्रेरित सस्ती राजनीतिक मानसिकता से समाज के सभी आयाम पूरी तरह संक्रमित हैं, तभी, दलगत राजनीति पक्षों के आधार पर सही और गलत का निर्धारण करने लगी है और समाज को राजनीति ने अपनी सुविधा के लिए पक्षों में बाँट दिया है।
जब से सत्ता को राष्ट्र का पर्याय मान लिया गया है, सही सत्ता पक्ष के समर्थक होते हैं अन्य सभी गलत व् विरोधी; स्थिति ऐसी है की राजनीति के आधार पर राष्ट्रवाद को परिभाषित किया जा रहा है जिसे देख कर ऐसा लगता है मानो राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए ही राष्ट्र का अस्तित्व हो, अन्यथा राष्ट्र का कोई महत्व ही नहीं। ऐसी स्थिति में किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व पर संकट स्वाभाविक है और इसलिए भविष्य की सुनिश्चितता के लिए वर्त्तमान की परिस्थितियों का बदलना अत्यंत आवश्यक।
भारत जैसे युवा देश के विश्वविद्यालयों को समय की राजनीति जब अखाडा बना दे तो वर्त्तमान के लिए भविष्य की चिंता स्वाभाविक है ;
मैं विश्विद्यालय के छात्रों की सामायिक विषयों पर जागरूगता और राष्ट्र व् सामाजिक विषयों पर किसी भी प्रकार की परिचर्चा का समर्थक हूँ और रहूँगा, पर जब से समाज के युवा वर्ग को राजनीति ने अपने स्वार्थ सिद्धि का उपक्रम बनाकर प्रयोग करना शुरू किया है, ऐसा लगता है मानो इनके अध्यन की प्रक्रिया ही भ्रष्ट हो गयी है, तभी, जिनसे विचारशीलता की अपेक्षा थी वो निर्णायक बने बैठे हैं और परिस्थितियों पर आधारित तार्किक अध्यन से सही निष्कर्ष प्राप्त करने से अधिक अपने निष्कर्ष को सही सिद्ध करने का प्रयास करते दिख रहे हैं; अब इसे अध्यन के प्रक्रिया की त्रुटि नहीं तो और क्या कहें।
ऐसे तो सामाजिक जीवन के विभिन्न स्तर पर परिस्थितियों के परिवर्तन के कई प्रयास चल रहे हैं जो अपने आप में सराहनीय है पर परिणाम की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए न ही परिपूर्ण हैं और न ही पर्याप्त; जब तक ऐसे सभी प्रयासों को संगठित कर एक लक्ष्य पर केंद्रित न किया जाए व्यवस्था परिवर्तन का कोई भी प्रयास पूरी तरह से सार्थक नहीं हो सकता ; ऐसा तभी किया जा सकता है जब समाज और शाशन व्यवस्था एक दुसरे के पूरक बनें।
शाशन तंत्र को चाहिए को वो समाज का पोषण करे और इसीलिए उसे समस्त संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं पर जब शाशन तंत्र पर सत्ता के स्वार्थ से प्रेरित सस्ती राजनीतिक मानसिकता हावी हो तो संभव है की वही शाशन तंत्र अपने प्रभावों का प्रयोग कर समाज का दोहन और शोषण करे , इसलिए समाज अपने नेतृत्व के लिए किसे और क्यों चुनता है यह समाज की व्यवस्था और राष्ट्र के भविष्य के दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समस्या जनतंत्र में नहीं बल्कि बहुमत के वैचारिक स्तर में है जिसने अपने स्वार्थ और लाभ के लोभ में व्यवहारिकता के नाम पर अपने नैतिक मूल्यों से संझउता करना सीख लिया है, तभी, उनके लिए सही और गलत का अंतर भी स्पष्ट नहीं और उसका निर्णय भी लाभ और हानि का गणित ही करता है ;
ऐसे में, जब बहुमत को निर्णय का अधिकार प्राप्त हो तो समाज में सही और गलत के अंतर को स्पष्ट करने के लिए बहुमत के विरुद्ध भी जाना पड़ता है क्योंकि व्यावहारिक जीवन में नैतिक मूल्यों को सही सिद्ध करने के लिए बहुमत के संख्या बल नहीं बल्कि नीतियों का तार्किक बल निर्णायक होता है।
प्रवाह के विरुद्ध चलना सरल नहीं पर हवाई जहाज को भी आसमान की ऊंचाइयों को छूने के लिए वायु के बहाव के विपरीत ही दौड़ लगनी पड़ती है; आज जब सामाजिक जीवन के शीर्षतम स्तर पर नेतृत्व के उदाहरण के माध्यम से नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है , किसी न किसी को तो प्रवाह के विरुद्ध चलने की चुनौती स्वीकार करनी ही थी।
ऊर्जा को अधिक से अधिक आवेग में रूपांतरित करने के लिए घर्षण में उसकी व्यर्थता को नियंत्रित करना आवश्यक होता है और इसके लिए संपर्क बिंदुओं को सीमित करना ऊर्जा की उपयोगिता सिद्ध करने की दृष्टि से अनिवार्य, अब इसे जो जैसे देखे और समझे।
महत्वपूर्ण यह नहीं की प्रयास किसे क्या और कैसा प्रतीत होता है, महत्व केवल इस बात का है की आज क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है; जिसे यह अंतर स्पष्ट हो समय की आवश्यकताएं परिस्थितियों के निष्कर्ष द्वारा अपने स्तर को प्रदर्शित करने के लिए सभी स्वतंत्र हैं।
महत्वपूर्ण यह नहीं की प्रयास किसे क्या और कैसा प्रतीत होता है, महत्व केवल इस बात का है की आज क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है; जिसे यह अंतर स्पष्ट हो समय की आवश्यकताएं परिस्थितियों के माध्यम से उसी की संवेदनाओं को प्रयास के लिए उत्प्रेरित करेंगी ; जिन्हें यह अंतर स्पष्ट नहीं वो तो प्रयास के नाम पर जो भी किया जाए उसे ही सही कहेंगे, ऐसे में, निष्कर्ष द्वारा अपने स्तर को प्रदर्शित करने के लिए सभी स्वतंत्र हैं। “

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