" आतंरिक दुर्बलता ही वो कारन है जो बाह्य कारकों को महत्वपूर्ण व् प्रभावशाली बना देती है,...
जब किसी भी शाशन तंत्र के लिए राजस्वय के संचय का महत्व सामाजिक जीवन की व्यावहारिक समस्याओं, देश की वास्तविक स्थिति और देशवाशियों की परिस्थिति से अधिक हो जाए तो न केवल राष्ट्र के नेतृत्व की भ्रमित प्राथमिकताएं ही शाश्कीय प्रयास को समाज की सबसे बड़ी समस्या बना देती है, बल्कि, शाशन के नेतृत्व की मानसिकता को भी सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित करती है, जिससे संशय की कोई सम्भावना ही नहीं बचती।
यथार्थ के तथ्य ही परिस्थितियों की वास्तविकता को सत्यापित करते तर्क हैं पर जो देखना ही न चाहें उसे सत्य की अभिव्यक्ति, प्रस्तुति व् स्वीकृति से समस्या स्वाभाविक है।
जब किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति व्यक्ति विशेष के प्रचार के प्रयास पर और आतंरिक नीति राजनीतिक विरोधियों पर वार और शाश्कीय उपक्रमों के दुरूपयोग से राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि पर केंद्रित हो, तो ऐसी शाशन व्यवस्था के लिए सामाजिक कल्याण और राष्ट्रहित की उपेक्षा स्वाभाविक है।
बात केवल इतनी ही नहीं; आज जिस प्रकार वैश्विक शक्तियों के ध्रुवीकरण ने विश्व को महायुद्ध की चौखट पर ला खड़ा किया है, ऐसे में, विश्व और मानवता की चिंता भी स्वाभाविक है।
वर्त्तमान की परिस्थितियों ने विश्व पटल पर 'गुट निरपेक्ष' राष्ट्रों को और भी अधिक महत्वपूर्ण व् प्रासंगिक बना दिया है, जिससे वैश्विक शक्तियों का संतुलन और विश्व में शांति की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके पर दुर्भाग्यवश, 'गुट निरपेक्ष' आंदोलन के आधार स्तम्भों में से एक भारत की प्राथमिकताएं ही स्पष्ट जान नहीं पड़ती जो हमारे विदेश नीति में प्रतिबिंबित भी होता है, ऐसे में, आप ही बताइये की हमारे लिए क्या करना उचित होगा।
पृथ्वी की आयु हम मनुष्यों से कहीं अधिक है, वह हम से पहले भी थी और हमारे बाद भी उसे रहना है, यह हम पर है की हम अपने जीवनकाल रूपी अवसर का प्रयोग किस उद्देश्य से करते हैं और हमारे प्रयास से धरती क्या स्वरुप प्राप्त करती है; ऐसे में, यदि आज मानवजाति अपने निर्णय से इस पृथ्वी और जीवों के नाश का कारन बनती है तो यही सिद्ध होगा की मानवता की शक्ति और बुद्धि के विकास के अनुपात का अंतर ही वर्त्तमान की सबसे बड़ी समस्या है।
ऐसे में, सोचने वाली बात यह है की हमें करना क्या था और हम कर क्या रहे हैं ?
वैकल्पिक व्यवस्था की जिस आवश्यकता ने देश में सत्ता परिवर्तन के माध्यम से नयी सम्भावना को जन्म दिया जिससे हम व्यावहारिक उदाहरण के माध्यम से अपने जीवन सिद्धांतों को विश्व के समक्ष आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर सकें तो हम कर क्या रहे हैं ?
इसे उस अवसर की व्यर्थता नहीं तो और क्या कहेंगे जो आज उसका प्रयोग व्यवस्था-परिस्थितियों के परिवर्तन के माध्यम से अपराध उन्मूलन के बदले 'चोर पुलिस' खेलने में हो रहा है; वास्तव में यह उस विकृत मानसिकता का प्रभाव है जिसके लिए महत्व तुलनात्मक दृष्टिकोण पर आधारित है न की व्यक्तिगत विशिष्टताओं पर, तभी, श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाना इतना आवश्यक हो गया है।
कहाँ आज विश्व और मानवता को हमारे मार्गदर्शन की आवश्यकता है और यहाँ हम व्यवस्था में न ही अपना उचित प्रतिनिधित्व और न ही राष्ट्रीय स्तर पर अपना योग्य नेतृत्व सुनिश्चित कर पाने में सक्षम रहे;
अब इसे वर्त्तमान की विडम्बना कह लीजिये या देश का दुर्भाग्य पर सच तो यही है की आज हम आन्तरिक रूप से इतने दुर्बल हो चुके हैं की बाह्य कारकों द्वारा प्रभावित ही नहीं बल्कि शाषित भी हैं, तभी, महत्व, उपलब्धि व् प्रसिद्धि के लिए भी बाह्य कारकों पर निर्भर हैं; फिर, बात जीवन के व्यक्तिगत स्तर की करें या राष्ट्रीय स्तर की।
ऐसे में, प्रयास का केंद्र बिंदु क्या होना चाहिए, आतंरिक रूप से स्वस्थ व् शश्क्त होने पर या बाह्य कारकों से प्रभावित होकर प्रतिक्रिया करने पर, आप ही बताएं ? "
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