Thursday 27 April 2017

महाराणा कुम्भा भाग-1
मनीषा सिंह की कलम से देश के इतिहास में ऐसा राजा न कभी हुआ और न कभी होगा। यकीनन इस राजा ने केवल युद्ध की भूमि ने विजयगाथाएं ही नहीं रचीं, बल्कि साहित्यव, कला, संगीत और संस्कृेति के क्षेत्र में जो रचा, उसे देखकर आज भी दुनिया गश खा जाती है। अनोखी है इस राजा की इतिहास।
महाराणा कुम्भा का जीवन परिचय" 
दुनिया जिन सात महाद्वीपों बंटी हुई है, उनमें एशिया सबसे बड़ा महाद्वीप है। एशिया में भारत, चीन, रूस जैसी विशाल और प्राचीन सभ्ययताएं आज के आधुनिक वैश्विक दौर में भी अपनी एक खास अहमियत रखती हैं। एशिया जितनी भौगोलिक संपदा, प्राकृतिक विवधता, धर्म, दर्शन, कला-संस्कृाति, साहित्यत और विराट ज्ञान वैभव पूरी दुनिया में कहीं नहीं रहा। यकीनन यहां एक ओर बेखौफ जांबाज योद्धा और लड़ाके रहे, जिन्होंने अपनी तलवार के दम पर पूरी दुनिया को चुनौती दी, तो वहीं दूसरी ओर ऐसे महान शासक भी रहे, जिनके विशाल साम्राज्यों की आज भी दुनिया में तूती बोलती रही, और उनके राज्य में निर्मित हुए कला संस्कृति के नायाब नमूने आज भी पूरे विश्व को हैरत में डालते हैं। ऐसे ही देश के एक ऐसे राजा रहे जिसने युद्ध की रणभूमि पर जितनी विजयगाथाएं रची, उतना ही संगीत, साहित्य, कला संस्कृति के क्षेत्र में नये कीर्तिमान रचे। इस राजा का नाम था महाराणा कुंभा। युद्ध में विजयपताकाएं, बदल दी देश की राजनीति : महराणा कुम्भा या महाराणा कुम्भकर्ण दरअसल राजस्थाेन में मेवाड के राजा थे। उन्हों ने सन् 1433 से 1468 तक राज किया। महाराणा कुंभकर्ण ने पूरी राजपूताना विरासत में युद्ध की ऐसी विजयपताकाएं लहराईं कि उनके पहले के राजा सपने भी सोच नहीं सकते थे। उन्हों ने दरअसल देश में राजपूताना राजनीति को एक नया रूप दिया। इतिहास में ये 'राणा कुंभा' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। सत्ताय हासिल करने के सात सालों के अंदर उन्होंने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के कई मजबूत किलों को जीत लिया।
महाराणा कुम्भा की माता सौभाग्य देवी परमार राजा जैतमल सांखला की पुत्री थीं कहीं-कहीं इनका नाम माया कंवर व सुहागदे भी लिखा गया है।महाराणा कुम्भा के उपनाम थे राज गुरु, तात गुरु, चाप गुरु (धनुर्विद्या का शिक्षक), छाप गुरु, हाल गुरु, शैल गुरु (भाला सिखाने वाला) परम गुरु, नाटकराज का कर्ता, धीमान, राणो रासो, राणे राय, गणपति, नरपति, अश्वपति, हिन्दु सुरत्राण, अभिनव भरताचार्य (नव्य भरत), नंदिकेश्वरावतार, राजस्थान में स्थापत्य कला का जनक महाराणा कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ/कृतियाँ - संगीतमीमांसा, गीतगोविन्द, सूडप्रबन्ध, कामराज रतिसार, संगीतराज, रसिकप्रिया, एकलिंग महात्म्य का प्रथम भाग (कुल 10-12 ग्रन्थ) । मंडन - ये महाराणा कुम्भा का राज्याश्रित शिल्पी एवं विद्वान था । गोविन्द - ये मंडन का पुत्र था । रमाबाई - ये महाराणा कुम्भा की पुत्री थीं, जिनका विवाह गुजरात में गिरनार के राजा मण्डलीक से हुआ था । रमाबाई संगीतशास्त्र की ज्ञाता थीं।इन्हें वागीश्वरी नाम से भी जाना जाता है। इन्द्रादे - ये भी महाराणा कुम्भा की पुत्री थीं, जिनका विवाह आमेर के राजा उद्धरण कछवाहा से हुआ ।

1433 ई. में महाराणा कुम्भा का राज्याभिषेक हुआ (कर्नल जेम्स टॉड ने महाराणा कुम्भा के राज्याभिषेक का वर्ष 1418 ई. जो कि सही नहीं है) महाराणा कुम्भा ने मांडू के सुल्तान महमूद को खत लिखा कि "हमारे पिता के हत्यारे को हमारे सुपुर्द कर दिया जावे तो ठीक वरना मुकाबले को तैयार रहना" महमूद ने इस खत का बहुत ही सख्त जवाब दिया और महपा को महाराणा के सुपुर्द करने से साफ इनकार किया महाराणा कुम्भा ने फौज समेत मांडू की तरफ कूच किया ।इस वक्त रणमल्ल भी महाराणा के साथ था ।बड़ी सख्त लड़ाई के बाद महमूद भागकर मांडू के किले में चला गया, पर थोड़ी देर बाद फिर बाहर निकला, सुल्तान महमूद को महाराणा कुम्भा ने कैद कर लिया और बन्दी बनाकर चित्तौड़ ले आए 6 माह बाद कुछ दण्ड (जुर्माना) लेकर छोड़ दिया

"विजय स्तम्भ" इस विजय का चिन्ह विजय स्तम्भ है, जो कि चित्तौड़गढ़ में स्थित एक स्तम्भ या टॉवर है । ये 1442-49 ई. में बनवाया गया |
122 फीट ऊंचा, 9 मंजिला विजय स्तंभ भारतीय स्थापत्य कला की बारीक एवं सुन्दर कारीगरी का नायाब नमूना है, जो नीचे से चौड़ा, बीच में संकरा एवं ऊपर से पुनः चौड़ा डमरू के आकार का है । इसमें ऊपर तक जाने के लिए 157 सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने अपने समय के महान वास्तुशिल्पी मंडन के मार्गदर्शन में उनके बनाये नक़्शे के आधार पर करवाया था । इस स्तम्भ के आन्तरिक तथा बाह्य भागों पर भारतीय देवी-देवताओं, अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मा, सावित्री, हरिहर, पितामह विष्णु के विभिन्न अवतारों व रामायण एवं महाभारत के पात्रों की सेंकड़ों मूर्तियां उत्कीर्ण हैं ।विजय स्तम्भ का संबंध मात्र राजनीतिक विजय से नहीं है, वरन् यह भारतीय संस्कृति और स्थापत्य का ज्ञानकोष है |
महाराणा कुम्भा ने नराणा, मलारणा, अजमेर, मोडालगढ़, खाटू, जांगल प्रदेश, कांसली, नारदीयनगर, हमीरपुर, शोन्यानगरी, वायसपुर, धान्यनगर, सिंहपुर, बसन्तगढ़, वासा, पिण्डवाड़ा, शाकम्भरी, सांभर, चाटसू, खंडेला, आमेर, सीहारे, जोगिनीपुर, विशाल नगर पर विजय प्राप्त की यहां के कुछ शासकों से महाराणा ने कर भी वसूल किया महाराणा कुम्भा ने जानागढ़ दुर्ग पर विजय प्राप्त की व अपने किसी सरदार को वहां मुकर्रर किया
कुछ समय बाद मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने जानागढ़ पर हमला किया ।किले में राजपूतानियों ने जौहर किया, पर ये जौहर इतिहास में प्रसिद्ध नहीं हुआ ।
1439 ई. में जब महाराणा कुम्भा ने मांडू के बादशाह महमूद खिलजी प्रथम को कैद कर छोड़ दिया, तो 3 वर्ष बाद उसने बदला लेने की नियत से फिर मेवाड़ पर चढाई की महमूद अपनी फौज के साथ पहाड़ों के किनारे-किनारे होता हुआ सीधा कुम्भलगढ़ की तरफ गया महाराणा कुम्भा चित्तौड़गढ़ व कुम्भलगढ़ दोनों जगह नहीं थे । महाराणा इस वक्त चित्तौड़गढ़ के पूर्व की तरफ पहाड़ों में किसी पर चढाई करने गए थे |
महमूद कुम्भलगढ़ से पहले केलवाड़ा गाँव में आया, तभी कुम्भलगढ़ से दीपसिंह के नेतृत्व में राजपूतों की एक फौजी टुकड़ी केलवाड़ा में बाण/बायण माता के मन्दिर पहुंची
7 दिन तक लड़ाई चली और दीपसिंह अपने सभी राजपूतों समेत वीरगति को प्राप्त हुए (महमूद ने इस मन्दिर के साथ जो किया वो मैं बयां नहीं कर सकती) मन्दिर की फ़तेह से खुश होकर महमूद ने कुम्भलगढ़ दुर्ग फ़तेह करने का इरादा किया, पर दुर्ग की तलहटी में थोड़ी-बहोत लड़ाई करके किला जीतना नामुमकिन देखकर वहां से चला गया महमूद ने चित्तौड़गढ़ पर फ़तेह हासिल करने का इरादा किया सख्त लड़ाई के बाद महमूद को कामयाबी मिली और वह अपनी बहुत सी फौज को चित्तौड़गढ़ पर मुकर्रर करके महाराणा की खोज में निकला महमूद ने आज़म को फौजी टुकड़ी के साथ महाराणा के मुल्क को तबाह करने मन्दसौर की तरफ भेजा । आज़म मन्दसौर में ही मारा गया |
महाराणा कुम्भा ने मांडलगढ़ के पास आकर महमूद से मुकाबला किया इस लड़ाई में भी महाराणा कुम्भा विजयी हुए एवं कुछ समय बाद महाराणा ने फिर से महमूद से मुकाबला किया । इस बार भी महमूद भागकर मांडू चला गया और चित्तौड़गढ़ पर महाराणा कुम्भा ने अधिकार किया |
यही नहीं उन्होंने दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी धूल चटा दी। मुस्लिम आक्रान्ताओं को 56बार धुल चटायें हैं ।
आपको जानकर आश्चीर्य होगा कि महज 35 साल की उम्र में इस युवा ने जो स्थापत्य कला का निर्माण करवाया वह पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र आज भी बने हुए हैं। उनके बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों मंा चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। जानकर आश्चआर्य होगा कि उनके द्वारा बनवाया गया विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। तलवार के दम पर दुश्मनों को हराने वाला यह योद्धा कलम का भी उतना ही महान सिपाही थी । न केवल नाट्यशास्त्र के ज्ञाता थे, बल्किय वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर तो उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए।

जय मेवाड़ 🚩🚩
जय एकलिंगनाथ जी

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