अथर्ववेद का यह मंत्र है :-
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,
तस्यां हिरण्यमय: कोश स्वर्गोज्योतिषावृता।।
(अथर्व 10/2/32)
यहां पर आठ चक्रों और नवद्वारों वाली इस मानवदेह को एक ऐसी पुरी की संज्ञा दी गयी है जो कि ‘अवध’ है, अर्थात जिसमें मानसिक, वाचिक या कायिक किसी भी प्रकार की हिंसा नही होती है।
बसाई ऐसी ही अवधपुरी
अब हमारे ऋषियों ने ऐसी ही एक अवधपुरी को इस भूमंडल पर बसाने का उद्यमपूर्ण प्रयास किया। जिसमें 8 चक्र और नौ द्वार बनाये गये। मनु महाराज के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु इस अवधपुरी के शासक बने। उन्हीं के नाम से इक्ष्वाकु-वंश की स्थापना हुई। उस समय के ऋषियों और हमारे पूर्वजों का चिंतन देखिए कि उन्होंने इस विश्व राजधानी का नाम ही अवध रख दिया।
राम की अयोध्यानगरी
इसी अवधपुरी में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं की लंबी श्रंखला ने शासन किया। इसी इक्ष्वाकु-कुल में राजा दशरथ हुए जिनके चार पुत्र राम, भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण थे। इनमें राम सबसे बड़े थे। राम की जन्मस्थली अयोध्या का ‘रघुवंश रामायण के बालकाण्ड’ में बड़ा सजीव चित्रण किया गया है-
प्रासादै रत्नविकृतै पर्वत: शोभिताम्
कूटागारैश्च संपूर्ण इंद्रस्येवामरावतीम्
चित्रामष्टापदाकारां नरनारी गणैर्युताम्
सर्वरत्न-समाकीर्ण-विमान गृह शोभिताम्
विमानमिव सिद्वानां तप साधिगत दिवि,
सुनिवेशित वेश्मानां नरोत्तम समावृताम्।।
अर्थात उच्च रत्नजडि़त महलों से पर्वत के समान नगरी शोभायमान थी। महलों में स्त्रियों के क्रीड़ागृह बने हुए थे। जिनकी सुंदरता इंद्र की अमरावती के समान थी। राजभवन का रंग सुनहरा था। अनेक लावण्यमयी स्त्रियां वहां निवास करती थीं। जहां-तहां रत्नों के ढेर लगे हुए थे, जिधर दृष्टि दौड़ाई जाये, सभी ओर सप्त मंजिलें भवन दिखायी देते थे। वे ऐसे लगते थे जैसे तप द्वारा स्वर्ग गये सिद्घपुरूषों के विमानगृह बने हों। उन भव्य भवनों में उत्तम कोटि के प्राणियों का वास था।’’
ऐसी थी राम जन्मस्थली अयोध्या। इस वर्णन में भारतीय स्थापत्य कला को बड़ी उत्तमता से पिरोया गया है। जिससे स्पष्ट होता है कि इस प्राचीन नगरी का इतिहास कितना गौरवपूर्ण और यशस्वी रहा है? विश्व की हर सभ्यता इसके समक्ष बौनी है, इसकी प्राचीनता भी विश्व की हर सभ्यता के समक्ष सर्वाधिक प्राचीन है।
अयोध्या का उत्थान और पतन
विश्व ने सभ्यता का सूर्य सूर्यवंशी राम के पूर्वजों की राजधानी अयोध्या में ही उदित होते देखा है। कदाचित राम के राजवंश के साथ सूर्य लगने का एक कारण यह भी रहा होगा कि अयोध्या से उदित होने वाला सूर्य (राजवंश) समस्त भूमंडल पर अपनी स्वर्णिम ज्ञान रश्मियों को बिखेर कर संपूर्ण संसार को एक संस्कृति और एक सभ्यता से आलोकित करता था, सबको एकता के सूत्र में बांधकर मानवतावाद का प्रचार और प्रसार करता था।
राम ने अपने राज्य का अपने जीवन काल में ही अपने तीनों भाईयों के पुत्रों और स्वयं अपने पुत्रों के मध्य विभाजन कर दिया था। उनके अपने पुत्र कुश ने कुशावती और लव ने शरावती (श्रावस्ती) से शासन किया था।
राम ने भरत के पुत्र तक्ष (जिसने तक्षशिला की स्थापना की) का राज्य दिया। लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु और अंगद को मध्यपूर्व का क्षेत्र, मल्लदेश तथा कारूपथ को सौंपा था। मल्ल क्षेत्र की राजधानी चंद्रकांतपुरी तथा कारूपथ की अंगदीया अथवा अंगदपुरी बनी। शत्रुघ्न पुत्र सुबाहु को किष्किंधा व दक्षिणापथ और विभीषण को लंका का राज्य दिया था।
इस प्रकार यहां से अयोध्या राम के अपने वंशजों से छूट गयी, यद्यपि शासन सूर्यवंश का ही रहा। और यहीं से धीरे-धीरे अयोध्या का अवसान होना आरंभ हुआ। साम्राज्य का विभाजन चाहे कितनी ही अच्छी भावना से क्यों न किया गया हो पर अयोध्या की चमक तो शनै: शनै: धूमिल होने लगी । स्वाभाविक ही राम के वंशज भावी शासकों का ध्यान इस ‘विश्व राजधानी’ से हटकर अपनी-अपनी राजधानियों पर अधिक रहने लगा। और अयोध्या का वह स्थान जहाँ राम ने जन्म लिया था, एक तीर्थ बनने लगा। क्योंकि सबका उदगम् स्थल अयोध्या ही थी, और यह भी कि उससे उनके पूर्वजों के सम्मान और गौरव की स्मृतियां जुड़ी हुई थीं। कालिदास रामायण ‘रघुवंश’ में उल्लेख है कि राम के पश्चात उनके दोनों पुत्रों ने ही सर्वप्रथम यहां श्रीराम जन्मभूमि पर एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया था।
महाभारत के युद्घ के समय यहां का शासक बृहत्बल था। जिसने कौरवों की ओर से युद्घ में भाग लिया था और उसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के द्वारा मार दिया गया था। महाभारत युद्घ के पश्चात अयोध्या को श्रावस्ती के राजा दिवाकर ने जीतकर इसे अपनी राजधानी बनाया और यहीं से शासन करना आरंभ कर दिया। नंद वंश के काल में भी अयोध्या का वैभव बना रहा। इसके पश्चात चाणक्य ने जब नंदवंश का विनाश कर यहां चंद्रगुप्त का शासन स्थापित किया तो चंद्रगुप्त ने भी अयोध्या के वैभव को बनाये रखने की ओर विशेष ध्यान दिया। रामजन्म भूमि के प्रति लोगों की आस्था और श्रद्घा निरंतर बनी रही।किन्तु अयोध्या का वास्तविक उद्धार हुआ महाराजा विक्रमादित्य के द्वारा । प्रजावत्सल राजा विक्रमादित्य एक दिन अपनी राजधानी अवंतिकापुरी से चलकर अयोध्या आये और तब मानो अयोध्या का कण-कण महाराजा विक्रमादित्य से संवाद करने लगा।
राजा विक्रमादित्य के साथ कई पौराणिक कथाएं भी जोड़ दी गयीं हैं, किन्तु यहां इतना ही उल्लेखित करना पर्याप्त है कि उसके द्वारा ही यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। ईसा से लगभग एक शतक पहले की यह घटना है।
कहा जाता है कि उस समय वह मंदिर 600 एकड़ भूमि के विस्तृत मैदान में फैला हुआ था। उसमें बड़े सुंदर मनोहारी उद्यान थे। बड़े-बड़े विशाल कूप थे और वहां अनेक मंदिर खड़े किये गये।’’
क्रूर हत्यारा बाबर और मंदिर विध्वंश – दारुण कथा
‘बाबरनामा’ के अनुवादक ए.एस. बैवरिज (पृष्ठ 370-71) पर बाबर द्वारा 1519 ई. में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के एक छोटे से राज्य बिजौरी पर आक्रमण करने के समय का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया है कि बाबर ने किस प्रकार अपने आपको मुजाहिद घोषित किया था? वह लिखते हैं-‘‘चूंकि बिजौरी वासी इस्लाम के शत्रु थे और इनके मध्य विधर्मी और विरोधी रीति रिवाज और परंपराएं प्रचलित थीं, उनका सर्व समावेशी नरसंहार किया गया। उनकी पत्नियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। एक अनुमान के अनुसार तीन हजार व्यक्ति मौत के घाट उतार दिये गये। दुर्ग को विजय कर हमने उसमें (बाबर अपने लिए स्वयं लिख रहा है) प्रवेश किया और उसका निरीक्षण किया। दीवालों के सहारे घरों में, गलियों में, गलियारों में असंख्य संख्या में हिंदू मृतक पड़े हुए थे, आने जाने वाले सभी लोगों को शवों के ऊपर से ही जाना पड़ रहा था,….मुहर्रम के नौवें दिन मैंने आदेश दिया कि मैदान में हिंदू मृतकों के सिरों की एक मीनार बनायी जाए।’’
बाबर की यह आत्म-स्वीकारोक्ति भी आंख खोलने वाली है, जिसमें वह स्वयं को गाजी होने पर धन्यभाग समझता है-
‘‘इस्लाम के निमित्त में जंगलों में भटका।
मूर्तिपूजकों व हिंदुओं के विरुद्ध प्रस्तुत हुआ।।
शहीद की मृत्यु पाने का मैंने निश्चय किया।
अल्लाह का धन्यवाद कि मैं गाजी हो गया।’’
(संदर्भ : बैवरिज की उपरोक्त पुस्तक पृष्ठ 574-75)
के.एस. लाल अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम स्टेट इन इंडिया’ के पृष्ठ 656 पर लिखते हैं-‘‘1528-29 में बाबर के आदेशानुसार मुगल सैन्य संचालक मीरबकी ने भगवान राम की रामजन्म भूमि की स्मृति में बने अयोध्या मंदिर का विध्वंस कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी।’’
गुरूनानक जी कहते हैं-…..
बाबर के नरसंहारों और हिंदू संस्कृति के विनाश को लेकर गुरू नानक देव जैसी महान विभूति को भी अति कष्ट हुआ था। वे लिखते हैं :-‘‘हे प्रभो! आप ऐसे नरसंहार, ऐसी यातनाओं और पीड़ाओं को कैसे सहन कर पाते हैं, (जैसी यातनाएं बाबर ने हिंदुओं को दी थीं) वह आगे कहते हैं-ईश्वर ने अपने पंखों के नीचे खुरासन लगा रखा है, यानि कि समाधिस्थ हो गये हैं और भारत को बाबर के अत्याचारों के लिए खुला छोड़ दिया है।
हे जीवन दाता! आप अपने ऊपर कोई कैसा भी दोष नही लपेटते, अर्थात आप निर्लिप्त रहे आते हो। जब इतना भीषण नरसंहार हो रहा था इतनी भीषण कराहें निकल रही थीं, क्या तुम्हें पीड़ा नही हुई।’’ (‘गुरू नानक’ पृष्ठ 125)
गुरू नानकदेव के ये शब्द उस समय के पूरे हिंदू समाज की पीड़ा के प्रतिनिधि हैं। बाबर ने राम जन्मभूमि पर ही बाबरी मस्जिद बनायी थी। रामजन्म भूमि की स्वतंत्रता के लिए हिंदुओं के द्वारा लड़ी गयी लड़ाई भी एक महत्वपूर्ण अभिलेख है जो हिंदुओं के स्वातंत्रय प्रेम आत्मगौरव और संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व होम करने की उत्कृष्टतम् भावना को स्पष्ट करती है।
साभार – उगता भारत
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