4 साल के बेटे का जिगर निकाल कर बाप के मुँह में डाल दिया
फिर भी नहीं किया इस्लाम कबूल ...
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अठारहवीं शताब्दी के शुरू में ही हुईं दो लड़ाइयां अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती हैं। इन दोनों लड़ाइयों ने पश्चिमोत्तर भारत में विदेशी मुगल वंश के कफन में कील का काम किया। ये लडाइयां थीं-पंजाब में सरहिंद और गुरदास नंगल की लड़ाई। इन दोनों लड़ाइयों का नेतृत्व बंदा सिंह बहादुर ने किया। बंदा सिंह बहादुर को इस संग्राम के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने तैयार किया था। जिन दिनों इस वंश के बाबर ने हिंदोस्तान पर हमला किया था, उन्हीं दिनों भारत में एक ऐतिहासिक गुरु परंपरा प्रारंभ हुई थी, जिसके वानी गुरु नानक देव थे। उसी गुरु परंपरा के दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह हुए। गुरु गोबिंद सिंह के समकालीन थे लक्ष्मण देव। वही कालांतर में बंदा सिंह बहादुर के नाम से विख्यात हुए। लक्ष्मण देव और गोबिंद सिंह जी का आपस में कोई पारिवारिक संबंध नहीं था, लेकिन कालांतर में दोनों का ऐसा संबंध विकसित हुआ, जिसने भारत का इतिहास बदल दिया। गुरु गोबिंद सिंह जी ने पंजाब में मुगल वंश की नींव को हिला दिया था। बाबर से शुरू हुआ मुगल वंश औरंगजेब तक आते-आते लडख़ड़ाने लगा था। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में उसे घेर लिया गया था। अंतिम प्रहार गुरु गोबिंद सिंह जी ने किया। मुगल वंश का पतन शायद कहीं पहले हो जाता, लेकिन घर के जयचंदों ने लड़ाई को लंबा खींच दिया। इन संघर्षों का ही परिणाम था कि औरंगजेब की मौत के बाद लाल किले की सत्ता कमजोर होती गई। औरंगजेब की मौत के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी भी उसी ओर प्रस्थान कर गए थे, जहां शिवाजी ने मुगल सत्ता को परास्त कर दिया था। आगे की लड़ाई जारी रखने के लिए उन्हें किसी योग्य पात्र की तलाश थी। बंदा बहादुर गुरु जी की उसी तलाश का उत्तर था।
पंजाब में मुगल वंश की सत्ता के दो बड़े केंद्र सरहिंद और लाहौर थे। सरहिंद का नवाब वजीर खान बहुत ही जालिम और खूंखार था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो अबोध पुत्रों को दीवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया था। वह केवल शासक नहीं था, बल्कि भारतीयों को बलपूर्वक अपने मजहब इस्लाम में दीक्षित करके सबसे बड़ा गाजी भी बना हुआ था। इसी समय गुरु गोबिंद सिंह जी यात्रा करते हुए नांदेड़ पहुंचे। पता चला कि गोदावरी के तीर पर माधोदास संन्यासी तपस्या कर रहा है। महाराष्ट्र में दोनों की भेंट गोदावरी के तट पर सितंबर, 1708 में हुई। गुरु जी ने माधोदास को स्व मुक्ति के स्थान पर राष्ट्र मुक्ति का मंत्र दे दिया। मानो माधो दास को मंत्र मिल गया हो। मध्य एशिया से आकर भारत पर राज्य कर रहे मुगलों के अत्याचारों से साधारण जन की मुक्ति का मंत्र। गुरु जी ने अपने शिष्यों का दरबार बुलाया। उन्होंने माधोदास वैरागी को बंदा बहादुर बना दिया। गुरु जी ने माधोदास को पंजाब चले जाने की सलाह दी, जहां राष्ट्र मुक्ति का यज्ञ हो रहा था और खालसा अपने प्राणों की आहुति उसमें डाल रहा था। उस यज्ञ की ज्वाला मंद न पड़ जाए, यही माधो दास को देखना था। स्वतंत्रता की ज्वाला को निरंतर प्रज्वलित किए रहना। इससे पहले महाराष्ट्र में आने से पहले गुरु जी 1705 में औरंगजेब के नाम जफरनामा लिख कर आए थे। जफरनामा यानी विजय का पत्र। गुरु जी ने जफरनामा के माध्यम से एक प्रकार से भविष्यवाणी कर दी थी कि अब मुगल वंश की पराजय ज्यादा दूर नहीं है। बंदा बहादुर को अब उसी भविष्यवाणी को पूरा करना था। सितंबर, 1708 के अंत में माधो दास अब बंदा बहादुर बन गया था।
उधर, सरहिंद का नवाब वजीर खान भी चुप नहीं बैठा था। वह दक्षिण भारत में भी गुरु जी की पदचापों को कान लगाए सुन रहा था। उधर गुरु जी ने बंदा बहादुर को पंजाब की ओर प्रस्थान करवाया, वहीं सरहिंद के नवाब के भेजे पठान गुरु जी के पास नांदेड़ पहुंच गए। उन्होंने धोखे से गुरु जी पर उस समय घातक शस्त्र प्रहार किया, जब वह तपस्या में लीन थे। यही प्रहार अंतत: प्राणलेवा सिद्ध हुआ। 7 अक्तूबर, 1708 के दिन भारत के आकाश से एक सूर्य अस्त हो गया। सरहिंद की धरती बंदा बहादुर की प्रतीक्षा कर रही थी। मुगल सत्ता के प्रतीक सरहिंद पर हमला करने से पहले बंदा बहादुर को शक्ति का संचय करना था। नवाब वजीर खान ने भी हवा को सूंघ लिया। हवा ही बताने लगी थी कि इस बार का मुकाबला अभूतपूर्व होगा। उसने भी मुकाबला करने के लिए तैयारियां शुरू कर दीं। अल्लाह हू अकबर के नारों से आकाश गूंजने लगा। अंतत: सरहिंद विजय का जयघोष बंदा बहादुर ने कर दिया। वह अपनी जन सेना लेकर सरहिंद की ओर चल पड़ा। सरहिंद से बीस किलोमीटर पहले चप्पडचिडी नामक स्थान पर वजीर खान की सेना से मुकाबला हुआ। 12 मई, 1710 का दिन था। चप्पडचिडी की धरती पर उस दिन इतिहास रचा गया। दो दिन लड़ाई चली और उसका अंत 14 मई को नवाब वजीर खान की मौत में हुआ। नवाब के मरते ही मुगल सेना में भगदड़ मंच गई और उसके पैर उखड़ गए। बंदा बहादुर को फतह हासिल हुई। एक सैनिक वजीर खान का सिर काट कर भाले पर लगा कर हाथी के हौदे पर जा बैठा। विजयी सेना जयघोष करती हुई सरहिंद की ओर बढ़ चली। शाम होते-होते विजयी सेना सरहिंद के दरवाजे तक पहुंच गई। अगले दिन दोपहर होते-होते सरहिंद के दरवाजे टूट गए और 28 परगना वाले इस प्रांत पर बंदा बहादुर का कब्जा हो गया। मुगल सत्ता का अंत हुआ। 14 मई, 1710 से सरहिंद स्वतंत्र हुआ और वहीं से शुरू हुई बंदा बहादुर की लाहौर को भी स्वतंत्र करवा लेने की रणनीति।उधर, दिल्ली के तख्त पर 1713 में फारुखसियर बैठा, दूसरी तरफ गुरुदासपुर नंगल में हवाएं आग उगलने लगीं। स्थान-स्थान से स्वतंत्रता सेनानी गुरुदासपुर नंगल में एकत्रित होने लगे। मुगल सेनाओं ने गुरुदासपुर नंगल को घेर रखा था। बंदा बहादुर ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपना लिया था। थोड़ी सी संख्या में बंदा के सैनिक बाहर निकलते। अचानक मुगल सेना पर धावा बोलते। आठ मास तक लुका-छिपी का यह खेल चलता रहा। घेरा सख्त होता जा रहा था। उसके कुछ साथी साथ छोड़ कर चुपचाप वहां से चले भी गए। नवंबर, 1715 तक किले के अंदर सैनिकों के भूखों मरने की नौबत आ गई। आर-पार की स्थिति हो गई थी। बंदा बहादुर ने 17 दिसंबर को किले के दरवाजे खोल दिए। अंतिम लड़ाई लड़ी गई। दोनों पक्षों के अनेक लोग मारे गए। मुगल सेना ने दो सौ सैनिकों को बंदी बना लिया। बंदा बहादुर को जंजीरों में जकड़ दिया गया। सिखों के सिर काट कर नेजों पर लहराए जाने लगे। जंजीरों में बंधे हुए लगभग सात सौ का यह काफिला बंदा बहादुर समेत लाहौर से होता हुआ दिल्ली की ओर चल पड़ा। तीन सौ कटे हुए सिर छकड़ों में लाद कर साथ ले जाए जा रहे थे। 29 फरवरी, 1716 को यह काफिला दिल्ली पहुंचा। कई दिन तक इन बंदियों का बड़ी निर्दयता के साथ सार्वजनिक कत्लेआम होता रहा। मुगल शासकों ने इन बंदियों को बचने के लिए मुसलमान बन जाने का विकल्प दिया। इस स्थिति में सभी ने मरना कबूल किया, पर इस्लाम स्वीकार करना नहीं। अंत में नौ जून, 1716 को बंदा बहादुर को जंजीरों में बांध कर लाया गया।
उनका पिंजरा हाथी पर रखा हुआ था। उसकी गोद में उनका चार साल का बेटा अजय सिंह था। मुगल सैनिकों ने अजय को मार कर उसका जिगर बंदा बहादुर के मुंह में डाल दिया। उनकी आंखें निकाल ली गईं। फिर एक-एक कर बड़ी बेरहमी के साथ उनके शरीर के अंग काट डाले गए। फिर चमड़ी उतारी गई। अंत में उनका शीश काट दिया। स्वतंत्रता के इतिहास के एक और अध्याय का अंत हो गया। स्वतंत्रता संग्राम के इस अध्याय को बीते तीन सौ साल हो गए हैं। चप्पडचिडी की लड़ाई ने मुगल साम्राज्य की कब्र खोद दी थी, लेकिन छोटी चप्पडचिडी और बड़ी चप्पडचिडी में उस अध्याय का कोई निशान इतिहास में नहीं दिखता।
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