निजीकरण और उससे लिंक्ड मोदी...
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सन 2000 की बात है...मेरी जिंदगी की पहली फ्लाइट थी....वो भी इंटरनेशनल....मैंने उससे पहले कभी हवाई यात्रा नहीं की थी..डोमेस्टिक भी नहीं......मुझे कुछ पता नहीं था...एक साथी बैचलर के साथ अँधेरी स्टेशन से मुंबई हवाई अड्डे पर पहुचं गया....
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खैर मेरी फ्लाइट थी मुंबई टू नागोया...बीच में हांगकांग का ब्रेक...मुंबई से बड़ी मुश्किल से फ्लाइट में बैठे.....आधे रास्ते में पता चला कि आगे की लिंक्ड फ्लाइट मिस होने वाली है....और वाकई में फ्लाइट मिस हुई..
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डेढ़ दिन वहाँ निकाले....क्या सीखा...देसी भाषा में बताता हूँ.....सवारी ( कस्टमर) क्या होती है....उसकी देखभाल क्या होती है...उसकी असुविधाओं का ख़याल रखना क्या होता है..आपके अन्दर अगर दुर्व्यसन भी है लेकिन आप हमारी सवारी हैं तो हर अड्डे (अड्डा कोई भी हो सकता है....रेल,बस या हवाई जहाज) पर आपकी सुविधा का ध्यान रक्खा जा रहा है या नहीं.....मुझे हौन्ग्कौंग में अंतर्राष्ट्रीय सवारी होने के नाते सुविधाएं मिली...फाइव स्टार होटल....अंतर्राष्ट्रीय कॉल फ्री...हौन्ग्कौंग में फ्री घूमने की अनुमति..वहाँ के नज़ारे देख साली अपनी आँखें फटी की फटी रह गई..........17 साल पहले की बात कर रहा हूँ...अब की तो हम आप सोच भी नहीं सकते.
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अब इस सबको मारो लात....मैंने वहाँ क्या देखा वो समझो.....हॉन्गकॉन्ग एयरपोर्ट में उस ज़माने में भी एक गेट से दूसरे गेट में जाने के लिए हाई स्पीड ट्रेन्स चलती थी....हमारी महामना और तेजस से कहीं गुना एडवांस..17 साल पहले...दिमाग में रक्खो ये बात.......मैं तब रजनीगंधा खाता था....भारत में कहीं भी थूकता था.......वहाँ जाकर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कहीं थूक पाऊं..कभी कभार सिगरेट भी पीता था...वहाँ जाकर मुझे पता चला कि स्मोकिंग जोन्स अलग होती हैं और आप वहीँ पी सकते हो केवल....उससे अलग नहीं..वरना इतना जुर्माना पेला जाएगा कि तुम्हारी फट के हाथ में आ जाए.....मेरी हिम्मत नहीं हुई....पता चला कि इन सभी का निजीकरण 1995 से पहले हो चुका है..
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भारत में हमें हर तरह की सुविधा सरकार से चाहिए......लेकिन उसके लिए हमारे प्रयास क्या हैं...सरकार क्या अकेली मरवाए ?? मोदी स.. अकेला चू.. पैदा हुआ है इस देश में...हम सबका ठेकेदार......ढंग की ट्रेन मिलते ही हम उसकी टोंटी चुरा लेते हैं....एलसीडी स्क्रीन फोड़ डालते हैं...हेडफोन घर ले जाते हैं......हम जानवर हैं वाकई में....ऐसे में हम पर कंट्रोल कौन करे.....सरकारी स्कूल में अध्यापक पढ़ाते नहीं....पगार बहुत है...प्राइवेट वालों की मैनेजमेंट फाड़े रहता है इसलिए औकात में रहते हैं....सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं ?? क्यों ?? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका सिस्टम उनके बच्चों को क्वालिटी पढ़ाई नहीं दे सकता...
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रेलवे स्टेशंस की हालत देख मुझे कम से कम 15 साल पहले ऐसा लगने लगा था कि काहे नहीं इन्हें निजी हाथों में सौंप देते....मोदी तो बहुत लेट हो गए इस मामले में सही बताऊँ तो...ये जो यू पी,बिहार,महाराष्ट्र,गुजरात में जहां तहां पीकें फेकने का रिवाज है ना...इनकी तो सिलाई उधेड़ के रख दी जाए.....
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कंट्रोल केवल और केवल प्राइवेट सेक्टर ही कर सकता है..सरकारी तंत्र को उस लेवल का होने के लिए अभी वक़्त लगेगा..
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और हाँ निजीकरण जिन्हें बेचना लगता है...ये वो चू.. हैं जिन्हें कंद और शकरकंद का अंतर नहीं मालूम.....
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सन 2000 की बात है...मेरी जिंदगी की पहली फ्लाइट थी....वो भी इंटरनेशनल....मैंने उससे पहले कभी हवाई यात्रा नहीं की थी..डोमेस्टिक भी नहीं......मुझे कुछ पता नहीं था...एक साथी बैचलर के साथ अँधेरी स्टेशन से मुंबई हवाई अड्डे पर पहुचं गया....
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खैर मेरी फ्लाइट थी मुंबई टू नागोया...बीच में हांगकांग का ब्रेक...मुंबई से बड़ी मुश्किल से फ्लाइट में बैठे.....आधे रास्ते में पता चला कि आगे की लिंक्ड फ्लाइट मिस होने वाली है....और वाकई में फ्लाइट मिस हुई..
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डेढ़ दिन वहाँ निकाले....क्या सीखा...देसी भाषा में बताता हूँ.....सवारी ( कस्टमर) क्या होती है....उसकी देखभाल क्या होती है...उसकी असुविधाओं का ख़याल रखना क्या होता है..आपके अन्दर अगर दुर्व्यसन भी है लेकिन आप हमारी सवारी हैं तो हर अड्डे (अड्डा कोई भी हो सकता है....रेल,बस या हवाई जहाज) पर आपकी सुविधा का ध्यान रक्खा जा रहा है या नहीं.....मुझे हौन्ग्कौंग में अंतर्राष्ट्रीय सवारी होने के नाते सुविधाएं मिली...फाइव स्टार होटल....अंतर्राष्ट्रीय कॉल फ्री...हौन्ग्कौंग में फ्री घूमने की अनुमति..वहाँ के नज़ारे देख साली अपनी आँखें फटी की फटी रह गई..........17 साल पहले की बात कर रहा हूँ...अब की तो हम आप सोच भी नहीं सकते.
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अब इस सबको मारो लात....मैंने वहाँ क्या देखा वो समझो.....हॉन्गकॉन्ग एयरपोर्ट में उस ज़माने में भी एक गेट से दूसरे गेट में जाने के लिए हाई स्पीड ट्रेन्स चलती थी....हमारी महामना और तेजस से कहीं गुना एडवांस..17 साल पहले...दिमाग में रक्खो ये बात.......मैं तब रजनीगंधा खाता था....भारत में कहीं भी थूकता था.......वहाँ जाकर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कहीं थूक पाऊं..कभी कभार सिगरेट भी पीता था...वहाँ जाकर मुझे पता चला कि स्मोकिंग जोन्स अलग होती हैं और आप वहीँ पी सकते हो केवल....उससे अलग नहीं..वरना इतना जुर्माना पेला जाएगा कि तुम्हारी फट के हाथ में आ जाए.....मेरी हिम्मत नहीं हुई....पता चला कि इन सभी का निजीकरण 1995 से पहले हो चुका है..
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भारत में हमें हर तरह की सुविधा सरकार से चाहिए......लेकिन उसके लिए हमारे प्रयास क्या हैं...सरकार क्या अकेली मरवाए ?? मोदी स.. अकेला चू.. पैदा हुआ है इस देश में...हम सबका ठेकेदार......ढंग की ट्रेन मिलते ही हम उसकी टोंटी चुरा लेते हैं....एलसीडी स्क्रीन फोड़ डालते हैं...हेडफोन घर ले जाते हैं......हम जानवर हैं वाकई में....ऐसे में हम पर कंट्रोल कौन करे.....सरकारी स्कूल में अध्यापक पढ़ाते नहीं....पगार बहुत है...प्राइवेट वालों की मैनेजमेंट फाड़े रहता है इसलिए औकात में रहते हैं....सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं ?? क्यों ?? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका सिस्टम उनके बच्चों को क्वालिटी पढ़ाई नहीं दे सकता...
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रेलवे स्टेशंस की हालत देख मुझे कम से कम 15 साल पहले ऐसा लगने लगा था कि काहे नहीं इन्हें निजी हाथों में सौंप देते....मोदी तो बहुत लेट हो गए इस मामले में सही बताऊँ तो...ये जो यू पी,बिहार,महाराष्ट्र,गुजरात में जहां तहां पीकें फेकने का रिवाज है ना...इनकी तो सिलाई उधेड़ के रख दी जाए.....
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कंट्रोल केवल और केवल प्राइवेट सेक्टर ही कर सकता है..सरकारी तंत्र को उस लेवल का होने के लिए अभी वक़्त लगेगा..
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और हाँ निजीकरण जिन्हें बेचना लगता है...ये वो चू.. हैं जिन्हें कंद और शकरकंद का अंतर नहीं मालूम.....
भाई Rajesh Bhatt की पोस्ट
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