#इमरजेंसी और #नसबंदी की एक कथा :-
सैफअली की exबीबी (रुखसाना सुल्ताना की बेटी और मशहूर अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह की भतीजी) अमृता सिंह #अमृतासिंह(नाम से हिन्दू )....
इसकी माँ थी #डाक्टर_रुखसाना_सुल्ताना (अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ) को #संजय_गांधीने मुस्लिम समुदाय को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था.
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1975 में एक तरफ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल का ऐलान किया था तो दूसरी तरफ उनके बेटे संजय गांधी के राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी. इस सफर ने इस तेजी से रफ्तार पकड़ी कि जल्द ही संजय गांधी को समानांतर सत्ता केंद्र कहा जाने लगा.
उन्होंने आपातकाल के दिनों में एक पांच सूत्री कार्यक्रम लागू किया. साक्षरता, सौंदर्यीकरण, वृक्षारोपण, दहेज प्रथा व जाति उन्मूलन और परिवार नियोजन इसका हिस्सा थे. लेकिन इनमें भी संजय गांधी के लिए सबसे अहम था #परिवारनियोजन.
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दिल्ली में नसबंदी कार्यक्रम कैसे चलेगा, इसकी जिम्मेदारी जिन चार लोगों को दी गई थी वे थे लेफ्टिनेंट गवर्नर किशन चंद, नवीन चावला, विद्याबेन शाह और रुखसाना सुल्ताना.
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रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. इससे पहले वे दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं. उनकी मां #जरीना बीकानेर रियासत के #मुख्यन्यायाधीश#मियांअहसानउलहक की बेटी और चर्चित अभिनेत्री #बेगमपारा की बहन थीं. रुखसाना ने एक सैन्य अधिकारी #शिविंदरसिंह से शादी की थी जो दिग्गज पत्रकार और लेखक #खुशवंतसिंह के भतीजे थे. उनकी बेटी का नाम अमृता सिंह है जो हिंदी फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री हैं.
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#आपातकाल के दौरान जामा मस्जिद के आसपास चलने वाले नसबंदी कैंपों का प्रभाव यह था कि स्थानीय लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे. बताते हैं कि इन कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी जिस महिला को सौंपी गई थी उसे देखते ही डर के मारे लोगों के हलक सूख जाते थे. उस समय के सत्ता प्रतिष्ठान से गहरी नजदीकी रखने वाली इस महिला का नाम था रुखसाना सुल्ताना. सरकारी अधिकारी उन्हें #रुखसानासाहिबा कहा करते थे.
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संजय गांधी मानना था कि जिस आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताया जा रहा है उस पर अगर वे लगाम लगा सकें तो तुरंत ही देश और दुनिया में वे एक प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. माना जाता है कि इसके चलते उन्होंने सारी सरकारी मशीनरी को इस काम में झोंक दिया.
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संजय गांधी इस काम की शुरुआत राजधानी और उसमें भी पुरानी दिल्ली से करना चाहते थे. तब भी नसबंदी के बारे में कई भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय में यह अफवाह उड़ती थी कि यह उसकी आबादी कम करने की साजिश है. संजय गांधी को लगता था कि अगर उन्होंने शुरुआत में ही इस अभियान को सफल बना दिया और वह भी मुस्लिम समुदाय के बीच तो पूरे देश में एक असरदार संदेश जाएगा.
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संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों को नसबंदी के लिए राजी करें.इस तरह रुखसाना संजय गांधी की टीम में शामिल हो गईं. जल्द ही उन्होंने अपना काम भी शुरू कर दिया. वे पुरानी दिल्ली में घर-घर जाकर लोगों को परिवार नियोजन के फायदों के बारे में समझाने लगीं.
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उन्होंने इस इलाके में छह नसबंदी कैंप भी शुरू कर दिए.लेकिन जल्द ही पुरानी दिल्ली में नसबंदी के बारे में जागरूकता से कहीं ज्यादा उसका आतंक फैल गया. खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को जबरन पकड़कर उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 साल के नौजवानों को भी बख्शा नहीं जा रहा.रुखसाना की कार देखकर लोगों की रूह सूख जाती थी.
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जब नसबंदी के चलते मुजफ्फरनगर, मेरठ, गोरखपुर और सुल्तानपुर जैसे कई शहरों में दंगे होने लगे तो उन्होंने उसी दौरान दो #इमामों को #नसबंदी कराने के लिए तैयार कर लिया. जब मुसलमान नसबंदी को इस्लाम के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहे हों तो मुस्लिम धर्मगुरुओं का नसबंदी करवाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. रुखसाना ने यह ऐलान करके इस कामयाबी को और भी वजन दे दिया कि शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद नाम के ये दो इमाम उसी मुजफ्फरनगर के हैं जहां नसबंदी के मुद्दे पर बड़ा दंगा हुआ है.
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उस समय ये भी खबरें आईं कि बाकी लोगों की तरह इमाम भी पहले नसबंदी के खिलाफ थे. लेकिन अपनी वाकपटुता और कुरान की कुछ आयतों का उदाहरण देते हुए रुखसाना ने उन्हें मनाने में कामयाबी हासिल कर ली. संजय गांधी इससे बहुत खुश हुए. उन्होंने खुद इन दोनों इमामों को नसबंदी का सर्टिफिकेट दिया और साथ ही दोनों को 101 रु का नकद ईनाम भी. शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे दूसरे धार्मिक नेताओं को मनाने की भी हरमुमकिन कोशिश करेंगे. अगले दिन अखबारों में संजय गांधी के अगल-बगल खड़े इन दोनों इमामों की तस्वीरे छपीं.
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#संजय गांधी को तब #समानांतर_सत्ता_केंद्र कहा जाने लगा था अगर वो जीवित रहते तो आज भारत के हालात शायद और ही होते. सरकार को अब कोई #रुखसाना जैसा खोजना ही होगा, #जनसँख्या_विस्फोट रोकना ही होगा, #सर्वधर्मों के लिए एक जैसा कानून लागू करना ही पड़ेगा और सिर्फ लागू नहीं उसकी पालना भी करवानी होगी. अगर भारत का भला करना है तो वरना इस देश का भगवान् भी कुछ नहीं कर सकते.
सैफअली की exबीबी (रुखसाना सुल्ताना की बेटी और मशहूर अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह की भतीजी) अमृता सिंह #अमृतासिंह(नाम से हिन्दू )....
इसकी माँ थी #डाक्टर_रुखसाना_सुल्ताना (अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ) को #संजय_गांधीने मुस्लिम समुदाय को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था.
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1975 में एक तरफ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल का ऐलान किया था तो दूसरी तरफ उनके बेटे संजय गांधी के राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी. इस सफर ने इस तेजी से रफ्तार पकड़ी कि जल्द ही संजय गांधी को समानांतर सत्ता केंद्र कहा जाने लगा.
उन्होंने आपातकाल के दिनों में एक पांच सूत्री कार्यक्रम लागू किया. साक्षरता, सौंदर्यीकरण, वृक्षारोपण, दहेज प्रथा व जाति उन्मूलन और परिवार नियोजन इसका हिस्सा थे. लेकिन इनमें भी संजय गांधी के लिए सबसे अहम था #परिवारनियोजन.
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दिल्ली में नसबंदी कार्यक्रम कैसे चलेगा, इसकी जिम्मेदारी जिन चार लोगों को दी गई थी वे थे लेफ्टिनेंट गवर्नर किशन चंद, नवीन चावला, विद्याबेन शाह और रुखसाना सुल्ताना.
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रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. इससे पहले वे दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं. उनकी मां #जरीना बीकानेर रियासत के #मुख्यन्यायाधीश#मियांअहसानउलहक की बेटी और चर्चित अभिनेत्री #बेगमपारा की बहन थीं. रुखसाना ने एक सैन्य अधिकारी #शिविंदरसिंह से शादी की थी जो दिग्गज पत्रकार और लेखक #खुशवंतसिंह के भतीजे थे. उनकी बेटी का नाम अमृता सिंह है जो हिंदी फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री हैं.
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#आपातकाल के दौरान जामा मस्जिद के आसपास चलने वाले नसबंदी कैंपों का प्रभाव यह था कि स्थानीय लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे. बताते हैं कि इन कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी जिस महिला को सौंपी गई थी उसे देखते ही डर के मारे लोगों के हलक सूख जाते थे. उस समय के सत्ता प्रतिष्ठान से गहरी नजदीकी रखने वाली इस महिला का नाम था रुखसाना सुल्ताना. सरकारी अधिकारी उन्हें #रुखसानासाहिबा कहा करते थे.
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संजय गांधी मानना था कि जिस आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताया जा रहा है उस पर अगर वे लगाम लगा सकें तो तुरंत ही देश और दुनिया में वे एक प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. माना जाता है कि इसके चलते उन्होंने सारी सरकारी मशीनरी को इस काम में झोंक दिया.
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संजय गांधी इस काम की शुरुआत राजधानी और उसमें भी पुरानी दिल्ली से करना चाहते थे. तब भी नसबंदी के बारे में कई भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय में यह अफवाह उड़ती थी कि यह उसकी आबादी कम करने की साजिश है. संजय गांधी को लगता था कि अगर उन्होंने शुरुआत में ही इस अभियान को सफल बना दिया और वह भी मुस्लिम समुदाय के बीच तो पूरे देश में एक असरदार संदेश जाएगा.
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संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों को नसबंदी के लिए राजी करें.इस तरह रुखसाना संजय गांधी की टीम में शामिल हो गईं. जल्द ही उन्होंने अपना काम भी शुरू कर दिया. वे पुरानी दिल्ली में घर-घर जाकर लोगों को परिवार नियोजन के फायदों के बारे में समझाने लगीं.
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उन्होंने इस इलाके में छह नसबंदी कैंप भी शुरू कर दिए.लेकिन जल्द ही पुरानी दिल्ली में नसबंदी के बारे में जागरूकता से कहीं ज्यादा उसका आतंक फैल गया. खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को जबरन पकड़कर उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 साल के नौजवानों को भी बख्शा नहीं जा रहा.रुखसाना की कार देखकर लोगों की रूह सूख जाती थी.
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जब नसबंदी के चलते मुजफ्फरनगर, मेरठ, गोरखपुर और सुल्तानपुर जैसे कई शहरों में दंगे होने लगे तो उन्होंने उसी दौरान दो #इमामों को #नसबंदी कराने के लिए तैयार कर लिया. जब मुसलमान नसबंदी को इस्लाम के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहे हों तो मुस्लिम धर्मगुरुओं का नसबंदी करवाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. रुखसाना ने यह ऐलान करके इस कामयाबी को और भी वजन दे दिया कि शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद नाम के ये दो इमाम उसी मुजफ्फरनगर के हैं जहां नसबंदी के मुद्दे पर बड़ा दंगा हुआ है.
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उस समय ये भी खबरें आईं कि बाकी लोगों की तरह इमाम भी पहले नसबंदी के खिलाफ थे. लेकिन अपनी वाकपटुता और कुरान की कुछ आयतों का उदाहरण देते हुए रुखसाना ने उन्हें मनाने में कामयाबी हासिल कर ली. संजय गांधी इससे बहुत खुश हुए. उन्होंने खुद इन दोनों इमामों को नसबंदी का सर्टिफिकेट दिया और साथ ही दोनों को 101 रु का नकद ईनाम भी. शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे दूसरे धार्मिक नेताओं को मनाने की भी हरमुमकिन कोशिश करेंगे. अगले दिन अखबारों में संजय गांधी के अगल-बगल खड़े इन दोनों इमामों की तस्वीरे छपीं.
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#संजय गांधी को तब #समानांतर_सत्ता_केंद्र कहा जाने लगा था अगर वो जीवित रहते तो आज भारत के हालात शायद और ही होते. सरकार को अब कोई #रुखसाना जैसा खोजना ही होगा, #जनसँख्या_विस्फोट रोकना ही होगा, #सर्वधर्मों के लिए एक जैसा कानून लागू करना ही पड़ेगा और सिर्फ लागू नहीं उसकी पालना भी करवानी होगी. अगर भारत का भला करना है तो वरना इस देश का भगवान् भी कुछ नहीं कर सकते.
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