Saturday 3 June 2017

" जब हम भारत के परम वैभव की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य केवल आर्थिक विकास से नहीं बल्कि एक ऐसी व्यवस्था तंत्र की स्थापना से है जो धर्म, सत्य, न्याय और आदर्श के सिद्धांतों से संचालित हो ; एक ऐसा समाज जहाँ धन के मूल्यों से अधिक जीवन मूल्यों का मह्त्व हो ; एक आदर्श समाज जो निर्भीक संविधान द्वारा शाषित हो।
केवल आर्थिक विकास के आधार पर कोई भी समाज आदर्श नहीं हो सकता क्योंकि तब धन के मूल्य का मह्त्व जीवन मूल्यों से अधिक होगा और ऐसी परिस्थिति में जीवन के संसाधन जीवन के उद्देश्य से अधिक महत्वपूर्ण हो जायेंगे ; जीवन के लिए हर कीमत पर सफलता प्राप्त करना जीवन की सार्थकता सिद्ध करने से अधिक महत्वपूर्ण होगा और समाज स्वतः ही भ्रस्टाचार से पीड़ित होगा।
शाशन तंत्र की शक्ति में वह सामर्थ नहीं जो वह अकेले ऐसी लक्ष्य की प्राप्ति कर सके, इसके लिए, समाज और शाशन तंत्र के बीच समन्वय स्थापित करना होगा और ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं . समस्याएं तब आती है जब राजनीतिक कारणों से समाज और शाशन तंत्र में दूरी आने लगती है।
संविधान द्वारा प्रदत्त शाशन तंत्र की शक्तियां ही उन्हें महत्वपूर्ण बनाती हैं और इसलिए शाशन तंत्र की सहयोग के बिना भी व्यवस्था परिवर्तन कर पाना संभव नहीं। इसलिए, अगर यह कहा जाए की शाशन तंत्र अपने आप में व्यवस्था परिवर्तन कर पाने में सक्षम नहीं पर निसंदेह ऐसी किसी भी प्रयास की सफलता के लिए उसकी भूमिका महत्वपूर्ण अवश्य है तो गलत न होगा; प्रक्रिया में प्रभाव ही उसका मह्त्व जो है।
जनतंत्र में जन प्रतिनिधि समाज के प्रतिबिम्ब होते हैं इसलिए उनका स्तर भी समाज की वास्तविकता का परिचायक होता है, अतः अगर शिकायत जन प्रतिनिधियों से है तो निश्चित ही समस्या समाज में है।
अगर समाज को व्यवस्था में उचित प्रतिनिधित्व न मिला तो सामाजिक समस्याओं का निवारण कठिन होगा इसलिए जनतंत्र में प्रतिनिधि और प्रतिनिधित्व ये दो महत्वपूर्ण आयाम हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
प्रतिनिधि किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है और प्रतिनिधित्व के योग्य प्रतिनिधि है या नहीं इन बिंदुओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
व्यवस्था परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया तब तक सार्थक नहीं हो सकती जब तक समाज को उचित नेतृत्व प्राप्त न हो और अगर निर्णय का अधिकार बहुमत का है तो भ्रस्टाचार के संक्रमण से बहुमत के वैचारिक पतन की सम्भावना को नाकारा नहीं जा सकता ; ऐसे में, जब समस्या बहुमत का स्तर होगा तो निसंदेह परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए किसी बाह्य बल की आवश्यकता तो पड़ेगी ही, विज्ञानं भी तो यही कहता है।
विज्ञानं के सिद्धांत के अनुसार भी प्रत्येक पिंड तब तक अपनी विरामावस्था अथवा सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है।
भारत का वर्त्तमान इसी तथ्य का यथार्थ में उदाहरण है; प्रक्रिया में इसे हमारी पूर्ण संलिप्तता ही कही जायेगी जिसके प्रभाव में हमने शायद यह गौर नहीं किया ;
किसी भी प्रयास की सफलता के लिए उसका संगठित व केंद्रित होना आवश्यक है, फिर बात चाहे व्यवस्था परिवर्तन की ही क्यों न करें !
हाँ, अगर परिस्थितियों का परिवर्तन ही एक समस्या बन जाए तो इसका अर्थ यही होगा की या तो हमें दुर्दशा की आदत पड़ गयी है या फिर परिवर्तन अब तक आवश्यक नहीं।
ऐसे में, समझने वाली बात यह है की सीढ़ी में भी ऊपर चढ़ने के लिए जब तक हमारे पैर पिछली सीढ़ी से चिपकी रहेगी हम ऊपर नहीं बढ़ सकेंगे, मानवीय उत्क्रांति की प्रक्रिया भी कुछ ऐसी ही है;
एक शशक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए यह आवश्यक है की समाज और व्यवस्था तंत्र के लिए व्यक्ति निर्माण महत्वपूर्ण हो; व्यक्ति में जीवकोपार्जन करने की क्षमता का विकास करना ही व्यक्ति निर्माण नहीं है ;
व्यक्तिगत विवेक की परिधि और जीवन के प्रयास के कारन के बीच सीधे रूप से अनुपातिक सम्बन्ध है ; जीवन के प्रयास का कारन जितना विस्त्रित होगा जीवन के प्रभाव की व्यापकता और महत्व में उतना ही विस्तार होगा ; ऐसे में, प्रयास की निष्ठां निर्णायक होती है जिसके लिए उनकी प्रेरणा का सत्य पर आधारित होना अनिवार्य है अन्यथा संघर्ष की परीक्षा में मनोबल एवं आत्मविश्वास के क्षय के कारन प्रयास की असफलता निश्चित है।
मानवीय चेतना की उत्क्रांति ही वास्तविक विकास है, भौतिक प्रगति की प्रक्रिया को विकास मान लेना समझ की भूल होगी ;
मृत्यु तो निश्चित है ...पर मृत्यु पूर्व जीवन के प्रयास के कारन के निर्धारण का अधिकार हमारा है और जब तक व्यक्तिगत विवेक का विकास न किया जाए, जीवन की प्राथमिकताएं सही हो ही नहीं सकती ;
सफल जीवन और असंतुष्ट मृत्यु से बेहतर विकल्प सार्थक जीवन और तृप्त मृत्यु होगी पर इसके लिए चेतना द्वारा जीवन काल का प्रयोग पर्याप्त नहीं, जीवन के माध्यम से जीवन काल की उपयोगिता सिद्ध करनी होगी ; क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?"

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