धन्यवाद सरिता बहन , इस कथानक को सामने लाने के लिए !
सभी मित्रों से निवेदन है, आप भी पढ़िए और गौरवान्वित होईये !
'जेहाद'
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कहानी बहुत पुरानी है। हिन्दुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश में भागा चला जा रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आए थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिन्दू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे, पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है।
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कहानी बहुत पुरानी है। हिन्दुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश में भागा चला जा रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आए थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिन्दू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे, पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है।
एक मुल्ला ने न जाने कहां से आकर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जाग्रत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो। दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिन को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएं लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतावाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है।
प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिन्दुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मन्दिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियां दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिन्दू संख्या में कम हैं, असगंठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिल्कुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पांव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आंधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिए जाने का खटका लगा हुआ था। यहां तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छांह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआं नजर आया। वहीं डेरे डाल दिए। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भरकर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछाकर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियां बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को संभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहां तक कि बच्चे जोर से न रोते थे।
दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आंखों से अभिमान की रेखाएं-सी निकल रही हैं। मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भांति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका खजानचंद।
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा- तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी?
खजानचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हां, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
"तो अब क्या करोगे?'
"जो कुछ सिर पर आएगा, झेलूंगा! रावलपिंडी में दो-चार सम्बंधी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है?'
"मुझे क्या गम! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहां इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'
"आज और कुशल से बीत जाए तो फिर कोई भय नहीं।'
"मैं तो मना रहा हूं कि एकाध शिकार मिल जाए। एक दर्जन भी आ जाएं तो भून कर रख दूं।'
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिए निकली और सामने कुएं की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े लेकिन खजानचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा ले लिया और खजानचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएं की ओर चला। खजानचंद ने फिर बंदूक संभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजानचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूपवैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार खजानचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि खजानचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाए, लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। इसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजानचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।
धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिए। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पांच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियां धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिए हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिए वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाए, कहीं पैर न फिसल जाए। इधर सवार प्रति क्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सर पर आ पहुंचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देखकर उसकी आंखों में अंधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पांचों उसी के गांव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सर मरदूद का। दगाबाज काफिर।
दूसरा-नहीं-नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाए? हमने तुम्हें रातभर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुंचा दिए जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा- जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे....
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब का अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा-कुफ्र है! कुफ्र है!
पहला-उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआं इस पार।
दूसरा- ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहां हैं धर्मदास?
धर्मदास- सब मेरे साथ ही हैं।
दूसरा-कलामे शरीफ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनकी रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?
धर्मदास सर से पैर तक कांप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूं तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जाएगी?
दूसरा-हां, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो? हां या नहीं?
धर्मदास ने जहर का घूंट पीकर कहा- मैं खुदा पर ईमान लाता हूं। पांचों ने एक स्वर से कहा- अलहमद व लिल्लाह! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों पर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खजानचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।
खजानचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है!
खजान-जरा और समीप आ आ जाएं, तो मैं बंदूक चलाऊं। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा-अरे! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है?
खजान-कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया?
खजान-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा- मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
खजान-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें लग जाए।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर! निर्लज्ज! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पांव फूल गए। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूंगी।
खजान- मुझे तो वि·श्वास नहीं होता कि धर्मदास....
श्यामा- तुम्हें कभी वि·श्वास न आएगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खड़े क्या ताकते हो? क्या जब वे सर पर आ जाएंगे, तब बंदूक चलाओगे? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुंह न दिखाना।
खजानचंद ने बंदूक चलाई। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने "अल्ला हो अकबर!' की हांक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर "अल्लाहो अकबर!' की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इससे पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजानचंद के सर पर पहुंच गए और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।
एक सवार ने खजानचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूं सर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा- नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। खजानचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्जाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है? चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें खजानचंद के सर पर तान दिया मानो "नहीं' का शब्द मुंह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जाएगी।
खजानचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आंखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला- तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिन्दू को अपने ई·श्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं! चारों पठानों ने कहा-काफिर! काफिर!
खजान-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूं। मैं उस धर्म को मानता हूं, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल...
चारों पठानों के मुंह से निकला "काफिर!' और चारों तलवारें एक साथ खजानचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजानचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही खजानचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आंचल से रक्त प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गए। उसने बड़ी सुन्दर बेल-बूटोंवाली साड़ियां पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियां रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो खजानचंद की बुझती आंखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।
धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा- श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गए हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे।
श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा- तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊंगी। हां, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरी भी अंत करा दो।
धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद खजानचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है?
श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधर्म जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूं, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह खजानचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डालकर रोने लगी। चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देखकर करुणाद्र्र हो गए। सरदार ने धर्मदास से कहा- तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।
धर्मदास के हृदय में ईष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आंसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहां से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूं। खान लोग हमारी रक्षा का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जाएगी। खजानचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं। श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा- और इस वापसी की कीमत क्या देनी चाहिए? वही जो तुमने दी है?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?
श्यामा- ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविन्द सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजानचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखाई उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित करूंगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूंगी।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहां लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियां काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजानचंद की जान ली थी उन्होंने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।
पठानों ने खजानचंद की सारी जंगम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा सा मकान बनवाया और वीर खजानचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गए, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजानचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मस्जिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आए; पर उसका वहां पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।
साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दु:ख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएं भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बंध न था! आकाश पर ललिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कांपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही है। उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूंक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास!
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा- हां श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूं। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूं। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूं; पर मौत भी नहीं आती।
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ। तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया!
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा- मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी। "मैं अब भी हिन्दू हूं। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।'
"जानती हूं!' "यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती!'
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-तुम्हें अपने मुंह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूं, जिसने हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूं। तुमने हिन्दू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।
दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आंखों से अभिमान की रेखाएं-सी निकल रही हैं। मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भांति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका खजानचंद।
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा- तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी?
खजानचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हां, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
"तो अब क्या करोगे?'
"जो कुछ सिर पर आएगा, झेलूंगा! रावलपिंडी में दो-चार सम्बंधी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है?'
"मुझे क्या गम! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहां इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'
"आज और कुशल से बीत जाए तो फिर कोई भय नहीं।'
"मैं तो मना रहा हूं कि एकाध शिकार मिल जाए। एक दर्जन भी आ जाएं तो भून कर रख दूं।'
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिए निकली और सामने कुएं की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े लेकिन खजानचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा ले लिया और खजानचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएं की ओर चला। खजानचंद ने फिर बंदूक संभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजानचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूपवैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार खजानचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि खजानचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाए, लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। इसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजानचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।
धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिए। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पांच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियां धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिए हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिए वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाए, कहीं पैर न फिसल जाए। इधर सवार प्रति क्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सर पर आ पहुंचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देखकर उसकी आंखों में अंधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पांचों उसी के गांव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सर मरदूद का। दगाबाज काफिर।
दूसरा-नहीं-नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाए? हमने तुम्हें रातभर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुंचा दिए जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा- जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे....
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब का अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा-कुफ्र है! कुफ्र है!
पहला-उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआं इस पार।
दूसरा- ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहां हैं धर्मदास?
धर्मदास- सब मेरे साथ ही हैं।
दूसरा-कलामे शरीफ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनकी रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है?
धर्मदास सर से पैर तक कांप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूं तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जाएगी?
दूसरा-हां, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो? हां या नहीं?
धर्मदास ने जहर का घूंट पीकर कहा- मैं खुदा पर ईमान लाता हूं। पांचों ने एक स्वर से कहा- अलहमद व लिल्लाह! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों पर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खजानचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।
खजानचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है!
खजान-जरा और समीप आ आ जाएं, तो मैं बंदूक चलाऊं। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा-अरे! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है?
खजान-कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया?
खजान-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा- मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
खजान-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें लग जाए।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर! निर्लज्ज! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पांव फूल गए। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूंगी।
खजान- मुझे तो वि·श्वास नहीं होता कि धर्मदास....
श्यामा- तुम्हें कभी वि·श्वास न आएगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खड़े क्या ताकते हो? क्या जब वे सर पर आ जाएंगे, तब बंदूक चलाओगे? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुंह न दिखाना।
खजानचंद ने बंदूक चलाई। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने "अल्ला हो अकबर!' की हांक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर "अल्लाहो अकबर!' की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इससे पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजानचंद के सर पर पहुंच गए और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।
एक सवार ने खजानचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूं सर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा- नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। खजानचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्जाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है? चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें खजानचंद के सर पर तान दिया मानो "नहीं' का शब्द मुंह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जाएगी।
खजानचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आंखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला- तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा? हिन्दू को अपने ई·श्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं! चारों पठानों ने कहा-काफिर! काफिर!
खजान-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूं। मैं उस धर्म को मानता हूं, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल...
चारों पठानों के मुंह से निकला "काफिर!' और चारों तलवारें एक साथ खजानचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजानचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही खजानचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आंचल से रक्त प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गए। उसने बड़ी सुन्दर बेल-बूटोंवाली साड़ियां पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियां रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो खजानचंद की बुझती आंखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।
धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा- श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गए हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे।
श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा- तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊंगी। हां, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरी भी अंत करा दो।
धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं? मुझे खुद खजानचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है?
श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधर्म जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूं, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह खजानचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डालकर रोने लगी। चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देखकर करुणाद्र्र हो गए। सरदार ने धर्मदास से कहा- तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।
धर्मदास के हृदय में ईष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुंह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आंसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहां से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूं। खान लोग हमारी रक्षा का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जाएगी। खजानचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं। श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा- और इस वापसी की कीमत क्या देनी चाहिए? वही जो तुमने दी है?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?
श्यामा- ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविन्द सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजानचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखाई उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित करूंगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूंगी।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहां लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियां काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खजानचंद की जान ली थी उन्होंने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।
पठानों ने खजानचंद की सारी जंगम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा सा मकान बनवाया और वीर खजानचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गए, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। खजानचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मस्जिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आए; पर उसका वहां पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।
साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दु:ख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएं भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बंध न था! आकाश पर ललिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कांपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही है। उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूंक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास!
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा- हां श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूं। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूं। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूं; पर मौत भी नहीं आती।
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ। तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया!
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा- मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी। "मैं अब भी हिन्दू हूं। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।'
"जानती हूं!' "यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती!'
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-तुम्हें अपने मुंह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूं, जिसने हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूं। तुमने हिन्दू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।
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