Monday, 27 July 2015

ICHR में बौद्धिक लुटेरे 


क्या आपने कभी सुना है कि सरकार ने एक पुस्तक लिखवाने के लिए चालीस लाख रूपए खर्च कर दिए हों? या फिर कभी किसी ऐसे बौद्धिक प्रोजेक्ट(?) के बारे में सुना है जो पिछले 43 वर्ष से चल रहा हो, जिस पर करोड़ों रूपए खर्च हो चुके हों और अभी भी पूरा नहीं हुआ हो? 

यदि नहीं सुना हो, तो दिल थामकर बैठिये... ICHR जिसे हम “भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्” के नाम से जानते हैं, वहाँ पर ऐसी कई बौद्धिक लूट हुई हैं. जैसा कि शायद आप जानते ही होंगे, पिछले साठ वर्षों से इतिहास शोध, संगोष्ठियों, सेमिनारों, फेलोशिप्स, स्कॉलरशिप से लेकर पाठ्यक्रमों में हिन्दू विरोधी तथा भारत विरोधी ज़हर भरने का ठेका वामपंथ के पास था. केन्द्र में जो भी काँग्रेस सरकार आई, उसने कभी इन अजगरों की आरामतलबी में कोई खलल उत्पन्न नहीं किया, बल्कि इन्हें समुचित हड्डियाँ देकर पाला-पोसा. पिछले कई वर्षों से “स्पेशल रिसर्च प्रोजेक्ट्स” के नाम पर यह बौद्धिक डाकाजनी चल रही थी. 


उपरोक्त स्पेशल रिसर्च प्रोजेक्ट्स, जिन्हें मात्र कुछ वर्षों एवं दो-चार लाख रुपयों में खत्म हो जाना चाहिए था, करदाताओं की गाढ़ी कमाई के बल पर इन्हें लगातार कई वर्षों तक घसीटा गया. ना तो कोई हिसाब दिया गया और ना ही देरी की वजह बताई गई. कई तथाकथित सम्माननीय इतिहासकार और विद्वान इस खुली लूट में शामिल रहे, जिनमें प्रमुख हैं बिपन चंद्रा, इरफ़ान हबीब और के एम श्रीमाली. आधुनिक भारतीय इतिहास के “विद्वान”(??) माने जाने वाले स्वर्गीय बिपन चंद्रा साहब का एक प्रोजेक्ट “Towards Freedom” तो 1972 में शुरू हुआ था, लेकिन आज तक खत्म नहीं हुआ. लाखों रूपए खर्च हो गए, बिपन चंद्रा साहब बिना हिसाब दिए स्वर्गवासी भी हो गए, लेकिन यह प्रोजेक्ट आज भी अधूरा है. ऐसे होते हैं महान बुद्धिजीवी... इसी महालूट से व्यथित होकर ही श्री अरुण शौरी ने 1998 में रोमिला थापर समेत ऐसे ढेरों फर्जी बुद्धिजीवियों की सरेआम पोल खोलते हुए एक पुस्तक लिखी थी “Eminent Historians” जिसमें तथ्य-दर-तथ्य इस गिरोह के बखिए उधेड़े गए हैं. अरुण शौरी के अनुसार बिपन चंद्रा साहब के इस कथित प्रोजेक्ट पर कम से कम तीन करोड़ रूपए खर्च हो चुके थे. पहले बिपन चंद्रा के बचाव में उतरे कुछ बुद्धिजीवियों ने तर्क दिया कि इस प्रोजेक्ट में सहायकों आदि के वेतन भत्ते को भी इस राशि में जोड़ा गया और छवि खराब करने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया. लेकिन जैसे ही पिछली ऑडिट रिपोर्ट सामने आना शुरू हुईं इनके नकली तर्कों और कथित बौद्धिकता की पोल खुल गई. 

ICHR की 2006-07 की सालाना रिपोर्ट के अनुसार प्रोफ़ेसर बिपन चंद्रा को दो सहायक “विशेष बजट मद” के तहत दिए गए थे. प्रोफ़ेसर विशालाक्षी मेनन और IGNOU के प्रोफ़ेसर सलिल मिश्र को बिपन चंद्रा के मदद हेतु नियुक्त किया गया जिसका पूरा खर्च ICHR ने दिया, इस शर्त पर कि पहले ही प्रोजेक्ट देरी से चल रहा है, अतः अब इस प्रोजेक्ट को किसी भी हालत में 2008 तक पूरा किया जाना है. तो अब सवाल उठता है कि 2008 से लेकर बिपन चंद्रा की मौत तक (अर्थात 30 अगस्त 2014 तक) यह प्रोजेक्ट कहाँ अटका पड़ा था?? और इस पर जो खर्च जारी रहा, उसका हिसाब कौन देगा? करदाताओं के धन का ऐसा अनुपम अपव्यय करने वाले ये कथित बुद्धिजीवी इसके लिए जिम्मेदार क्यों नहीं माने जाने चाहिए? 

जब वाजपेयी सरकार ने ऐसे तमाम प्रोजेक्ट्स पर लगाम कसने की कोशिश की थी, उस समय भी पेट पर लात पड़ने के कारण यह गिरोह बुरी तरह बौखला गया था, परन्तु वाजपेयी सरकार को ना तो बहुमत हासिल था और ना उस सरकार में इस गिरोह से निपटने की इच्छाशक्ति थी. इसलिए जब कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों से ऐसे बाँटे गए लाखों रुपयों का हिसाब-किताब और प्रोजेक्ट्स में देरी की वजह पूछी गई तो जवाब देने में भारी टालमटोल की और बहाने बनाए. 

इरफ़ान हबीब और श्रीमाली का मामला भी इतना ही “रोचक”(??) है. इन्हें 1989 में एक प्रोजेक्ट सौंपा गया था, अगले पन्द्रह वर्ष में जिसके नौ खंड प्रकाशित होने चाहिए थे. प्रोजेक्ट का नाम था “Dictionary of Social, Economic and Administrative Terms in Indian/South Asian Inscriptions”, (अर्थात भारत एवं दक्षिण एशियाई देशों के शिलालेखों की सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक डिक्शनरी). आज तक इस प्रोजेक्ट पर 42 लाख रूपए खर्च हो चुके हैं और श्रीमाली साहब ने ICHR में अभी तक पन्द्रह में से एक भी पांडुलिपि जमा नहीं करवाई है.नवनियुक्त अध्यक्ष सुदर्शन राव के अनुसार उन्हें आज भी पता नहीं है कि वास्तव में इस डिक्शनरी प्रोजेक्ट की आज की स्थिति क्या है? रिकॉर्ड के अनुसार 1990 से लेकर अब तक श्रीमाली के पास सिर्फ कुछ हजार कंप्यूटराइज्ड कार्ड भर हैं, जो कि उनके शोध सहायकों ने तैयार किए हैं (जिनका वेतन भी ICHR ने दिया). फिर सवाल उठता है कि पिछले पच्चीस वर्ष में किस बात का शोध हुआ? जो शोध हुआ, उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं सौंपी गई? जो पैसा खर्च हुआ, उसका हिसाब कौन देगा? लेकिन यदि आप ऐसे सवाल पूछते हैं तो तत्काल “साम्प्रदायिक” और भाजपा के एजेंट” घोषित कर दिए जाते हैं. 

इरफ़ान हबीब नामक कथित महान इतिहासकार का रिकॉर्ड तो और भी खराब है. वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ उन्हें दिए गए प्रोजेक्ट की मियाद 2006-07 में ही खत्म हो चुकी है, लेकिन उन्होंने अभी तक अपनी पांडुलिपि ICHR में जमा ही नहीं की है. मजे की बात यह है कि 2011-12 और 2012-13 की वार्षिक रिपोर्ट में उनके शोध कार्य की फाईल पर “संतोषजनक प्रगति” लिखा गया है. जब कुछ पत्रकारों ने इस सम्बन्ध में पूछताछ की तो पता चला कि हबीब साहब ने खुद को उस प्रोजेक्ट से अलग कर लिया है और अब प्रोफ़ेसर शिरीन मूसावी उस पर काम कर रही हैं. फिर वही सवाल उठता है कि फिर तथाकथित इतिहास शोध के नाम पर जो लाखों रूपए खर्च हुए, उसकी उपयोगिता और हिसाब-किताब कौन देगा? क्या ये पैसा इरफ़ान हबीब से वसूला नहीं जाना चाहिए? 

यह तो मात्र तीन उदाहरण दिए हैं, जबकि वास्तव में यदि काँग्रेस-वामपंथ के तथाकथित बुद्धिजीवियों को मिले फंड्स, ग्रांट्स और फेलोशिप की सूक्ष्मता से जाँच की जाए तो एक विराट फर्जीवाड़ा सामने आ सकता है. इसके अलावा सेमीनार आयोजित करने, संगोष्ठियों और विभिन्न शोध यात्राओं के नाम पर हुए अनाप-शनाप खर्च का तो कोई हिसाब ही नहीं है. क्योंकि “जब सैंयाँ भए कोतवाल तो डर काहे का?”. इसीलिए जब मोदी सरकार पूर्ण बहुमत के साथ आई और स्मृति ईरानी, सुदर्शन राव आदि की नियुक्तियाँ हुईं तो इन कथित बुद्धिजीवियों और तथाकथित प्रोफेसरों/इतिहासकारों की तबियत यकायक गडबड होने लगी. अचानक इन्हें शिक्षा के स्तर की चिंता सताने लगी? इतिहास के विकृतिकरण (जो इन्होंने खुद किया) को लेकर बयान जारी होने लगे... क्योंकि इनकी असली बेचैनी यही है कि पिछले साठ साल की “पोलमपोल” खुलने वाली है. 

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