आप कही घूमनें का प्लान कर रहे है और आप धार्मिक प्रवृत्ति के है लेकिन समझ नही आ रहा कि कहा जाए तो हम आपको बता दे कि महाराष्ट्र के नासिक शहर के विभिन्न धार्मिक स्थल जा सकते है। गौरतलब है कि 15 जुलाई से कुम्भ मेला शुरू होने जा रहा है।
नासिक को नासहिक के नाम से भी जाना जाता है। यह शहर न सिर्फ यहां के मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है बल्कि यहां 12 साल बाद लगने वाले कुंभ मेलें के कारण भी प्रसिद्ध है। अगर पयर्टन की बात की जाए तो लाखों लोग यहां धार्मिक स्थलों को देखनें तो कुछ यहां की संस्कृकि को समझने और उसमें रमनें आते है तो जानिए क्या खास है नासिक में जो हर कोई इसका होने को खिंचा चला आता है। हम आपको अपनी खबर में यहा के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों और कुंभ पर्व के बारे में बताएंगे। नासिक उन चार स्थानों में से एक है, जहां अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं।
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर
नासिक का प्रमुख तीर्थस्थल त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर है। इस मंदिर में त्रिदेव विराजमान हैं। इसी मंदिर के ही पास स्थित ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम माना जाता है। यह एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जहां केवल भगवान शिव नहीं बल्कि भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा भी हैं।भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिगों में श्री त्र्यंबकेश्वर का दसवां स्थान है।
नासिक का प्रमुख तीर्थस्थल त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर है। इस मंदिर में त्रिदेव विराजमान हैं। इसी मंदिर के ही पास स्थित ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम माना जाता है। यह एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जहां केवल भगवान शिव नहीं बल्कि भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा भी हैं।भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिगों में श्री त्र्यंबकेश्वर का दसवां स्थान है।
कुंभ मेला
नासिक में लगने वाला कुंभ मेला, जिसे यहां सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है, शहर के आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र है। भारतीय पंचांग के अनुसार सूर्य जब कुंभ राशि में होते है, तब इलाहाबाद में कुंभमेला लगता है और सूर्य जब सिंह राशि में होते है, तब नाशिक में सिंहस्थ होता है। इसे कुंभमेला भी कहते है। अनगिनत श्रद्धालु इस मेले में आते हैं। यह मेला बारह साल में एक बार लगता है। इस मेले का आयोजन महाराष्ट्र पर्यटन निगम द्वारा किया जाता है। भारत में यह धार्मिक मेला चार जगहों पर लगता है। यह जगह नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन और हरिद्वार में हैं। इलाहाबाद में लगने वाला कुंभ का मेला सबसे बड़ा धार्मिक मेला है। इस मेले में हर बार विशाल संख्या में भक्त आते हैं। कुंभ मेला 14 जुलाई से 25 सितंबर, 2015 तक चलेगा और शाही स्नान तीन दिन- 29 अगस्त, 13 सितंबर और 25 सितंबर को होगा।
नासिक में लगने वाला कुंभ मेला, जिसे यहां सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है, शहर के आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र है। भारतीय पंचांग के अनुसार सूर्य जब कुंभ राशि में होते है, तब इलाहाबाद में कुंभमेला लगता है और सूर्य जब सिंह राशि में होते है, तब नाशिक में सिंहस्थ होता है। इसे कुंभमेला भी कहते है। अनगिनत श्रद्धालु इस मेले में आते हैं। यह मेला बारह साल में एक बार लगता है। इस मेले का आयोजन महाराष्ट्र पर्यटन निगम द्वारा किया जाता है। भारत में यह धार्मिक मेला चार जगहों पर लगता है। यह जगह नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन और हरिद्वार में हैं। इलाहाबाद में लगने वाला कुंभ का मेला सबसे बड़ा धार्मिक मेला है। इस मेले में हर बार विशाल संख्या में भक्त आते हैं। कुंभ मेला 14 जुलाई से 25 सितंबर, 2015 तक चलेगा और शाही स्नान तीन दिन- 29 अगस्त, 13 सितंबर और 25 सितंबर को होगा।
पंचवटी
पंचवटी नासिक के उत्तरी भाग में है। माना जाता है कि भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय के लिए पंचवटी में रहे थे। इसी कारण पंचवटी प्रसिद्ध है। आज भी वहां पर वह जगह है जहां पर रावण ने सीताहरण किया गया था वह जगह पांच बरगद के पेडों के पास है।
पंचवटी नासिक के उत्तरी भाग में है। माना जाता है कि भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय के लिए पंचवटी में रहे थे। इसी कारण पंचवटी प्रसिद्ध है। आज भी वहां पर वह जगह है जहां पर रावण ने सीताहरण किया गया था वह जगह पांच बरगद के पेडों के पास है।
सुंदरनारायण मंदिर
सुंदरनारायण मंदिर गोदावरी नदी के पश्चिम में सिर्फ 2 किमी दूर नासिक में स्थित है। सुंदरनारायण मंदिर 1756 में गंगाधर यशवंत चंद्रचूड़ द्वारा बनाया गया था । मुख्य देवता भगवान विष्णु के साथ-साथ मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी और सरस्वती जी की मूर्ति भी है। मंदिर की दीवारों पर हनुमान, नारायण और इंदिरा की छोटी छोटी नक्काशियों हैं। मंदिर में वास्तुकला का शानदार नमूना है इस नक़्क़ाशीदार पत्थरों से बने मंदिर की एक महत्वपूर्ण बात ये भी है की 21 मार्च को, उगते सूरज की किरणे सबसे पहले मूर्तियों पर गिरती हैं।
सुंदरनारायण मंदिर गोदावरी नदी के पश्चिम में सिर्फ 2 किमी दूर नासिक में स्थित है। सुंदरनारायण मंदिर 1756 में गंगाधर यशवंत चंद्रचूड़ द्वारा बनाया गया था । मुख्य देवता भगवान विष्णु के साथ-साथ मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी और सरस्वती जी की मूर्ति भी है। मंदिर की दीवारों पर हनुमान, नारायण और इंदिरा की छोटी छोटी नक्काशियों हैं। मंदिर में वास्तुकला का शानदार नमूना है इस नक़्क़ाशीदार पत्थरों से बने मंदिर की एक महत्वपूर्ण बात ये भी है की 21 मार्च को, उगते सूरज की किरणे सबसे पहले मूर्तियों पर गिरती हैं।
मोदाकेश्वर गणेश मंदिर
मोदाकेश्वर गणेश मंदिर नाशिक में स्थित एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर में स्थित मूर्ति में बारे में ऐसा माना जाता है कि यह मूर्ति स्वयं ही घरती से निकली थी। इसे शम्भु के नाम से भी जाना जाता है। मोदक भगवान गणेश का प्रिय भोजन है इसलिए इस मंदिर का नाम मोदकेश्वर रखा गया है।
मोदाकेश्वर गणेश मंदिर नाशिक में स्थित एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर में स्थित मूर्ति में बारे में ऐसा माना जाता है कि यह मूर्ति स्वयं ही घरती से निकली थी। इसे शम्भु के नाम से भी जाना जाता है। मोदक भगवान गणेश का प्रिय भोजन है इसलिए इस मंदिर का नाम मोदकेश्वर रखा गया है।
कालाराम मंदिर
नाशिक में पंचवटी स्थित कालाराम मंदिर वहां के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की वास्तुकला बहुत ही खूबसूरत है और त्र्यंबकेश्वर मंदिर के ही सामान है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मंदिर काले पत्थरों से बनाया गया है।
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नाशिक में पंचवटी स्थित कालाराम मंदिर वहां के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की वास्तुकला बहुत ही खूबसूरत है और त्र्यंबकेश्वर मंदिर के ही सामान है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मंदिर काले पत्थरों से बनाया गया है।
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बाजीप्रभु देशपाण्डे का बलिदान
शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिन्दू पद-पादशाही की स्थापना में जिन वीरों ने नींव के पत्थर की भांति स्वयं को विसर्जित किया, उनमें बाजीप्रभु देशपाण्डे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
एक बार शिवाजी 6,000 सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ में घिर गये। किले के बाहर सिद्दी जौहर के साथ एक लाख सेना डटी थी। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने अफजलखाँ के पुत्र फाजल खाँ के शिवाजी को पराजित करने में विफल होने पर उसे भेजा था। चार महीने बीत गये। एक दिन तेज आवाज के साथ किले का एक बुर्ज टूट गया। शिवाजी ने देखा कि अंग्रेजों की एक टुकड़ी भी तोप लेकर वहाँ आ गयी है। किले में रसद भी समाप्ति पर थी।
साथियों से परामर्श में यह निश्चय हुआ कि जैसे भी हो, शिवाजी 40 मील दूर स्थित विशालगढ़ पहुँचे। 12 जुलाई, 1660 की बरसाती रात में एक गुप्त द्वार से शिवाजी अपने विश्वस्त 600 सैनिकों के साथ निकल पड़े। भ्रम बनाये रखने के लिए अगले दिन एक दूत यह सन्धिपत्र लेकर सिद्दी जौहर के पास गया कि शिवाजी बहुत परेशान हैं, अतः वे समर्पण करना चाहते हैं।
यह समाचार पाकर मुगल सैनिक उत्सव मनाने लगे। यद्यपि एक बार उनके मन में शंका तो हुई; पर फिर सब शराब और शबाब में डूब गये। समर्पण कार्यक्रम की तैयारी होने लगी। उधर शिवाजी का दल तेजी से आगे बढ़ रहा था। अचानक गश्त पर निकले कुछ शत्रुओं की निगाह में वे आ गये। तुरन्त छावनी में सन्देश भेजकर घुड़सवारों की एक टोली उनके पीछे लगा दी गयी।
पर इधर भी योजना तैयार थी। एक अन्य पालकी लेकर कुछ सैनिक दूसरी ओर दौड़ने लगे। घुड़सवार उन्हें पकड़कर छावनी ले आये; पर वहाँ आकर उन्होंने माथा पीट लिया। उसमें से निकला नकली शिवाजी। नये सिरे से फिर पीछा शुरू हुआ। तब तक महाराज तीस मील पारकर चुके थे; पर विशालगढ़ अभी दूर था। इधर शत्रुओं के घोड़ों की पदचाप सुनायी देने लगी थी।
इस समय शिवाजी एक संकरी घाटी से गुजर रहे थे। अचानक बाजीप्रभु ने उनसे निवेदन किया कि मैं यहीं रुकता हूँ। आप तेजी से विशालगढ़ की ओर बढ़ें। जब तक आप वहाँ नहीं पहुँचेंगे, तब तक मैं शत्रु को पार नहीं होने दूँगा। शिवाजी के सामने असम॰जस की स्थिति थी; पर सोच-विचार का समय नहीं था। आधे सैनिक बाजीप्रभु के साथ रह गये और आधे शिवाजी के साथ चले। निश्चय हुआ कि पहुँच की सूचना तोप दागकर दी जाएगी।
घाटी के मुख पर बाजीप्रभु डट गये। कुछ ही देर में सिद्दी जौहर के दामाद सिद्दी मसूद के नेतृत्व में घुड़सवार वहाँ आ पहंँचे। उन्होंने दर्रे में घुसना चाहा; पर सिर पर कफन बाँधे हिन्दू सैनिक उनके सिर काटने लगे। भयानक संग्राम छिड़ गया। सूरज चढ़ आया; पर बाजीप्रभु ने उन्हें घाटी में घुसने नहीं दिया।
एक-एक कर हिन्दू सैनिक धराशायी हो रहे थे। बाजीप्रभु भी सैकड़ों घाव खा चुके थे; पर उन्हें मरने का अवकाश नहीं था। उनके कान तोप की आवाज सुनने को आतुर थे। विशालगढ़ के द्वार पर भी शत्रु सेना का घेरा था। उन्हें काटते मारते शिवाजी किले में पहुँचे और तोप दागने का आदेश दिया।
इधर तोप की आवाज बाजीप्रभु के कानों ने सुनी, उधर उनकी घायल देह धरती पर गिरी। शिवाजी विशालगढ़ पहुँचकर अपने उस प्रिय मित्र की प्रतीक्षा ही करते रह गये; पर उसके प्राण तो लक्ष्य पूरा करते-करते अनन्त में विलीन हो चुके थे। बाजीप्रभु देशपाण्डे की साधना सफल हुई। तब से वह बलिदानी घाटी (खिण्ड) पावन खिण्ड कहलाती है
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