अमाँ, ई कौन सा प्रमेय है यार, जिसके तहत निर्भया की हत्या के लिए शीला दीक्षित जिम्मेदार थी और मीनाक्षी की हत्या के लिये मोदी जिम्मेदार है ?
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देशभक्त बटुकेश्वर दत्त एक महान क्रांतिकारी
बटुकेश्वर दत्त भारतके स्वतंत्रता संग्रामके महान क्रांतिकारी थे । स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त सर्वप्रथम ८ अप्रैल, १९२९ को राष्ट्रसे परिचित हुए, जब वे भगत सिंहके साथ केंद्रीय विधान सभामें बम विस्फोटके पश्चात् बंदी बनाए गए ।
१. जन्म
बटुकेश्वर दत्तका जन्म १८ नवम्बर, १९१० को बंगाली कायस्थ परिवारमें ग्राम-औरी, जिला नानी बेदवानमें (बंगालमें) हुआ था; परंतु पिता ‘गोष्ठ बिहारी दत्त’ कानपुरमें नौकरी करते थे । बटुकेश्वरने १९२५ में मैट्रिककी परीक्षा पास की और तभी माता एवं पिता दोनोंका देहांत हो गया । इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजादके संपर्कमें आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’के सदस्य बन गए । सुखदेव और राजगुरुके साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया । इसी क्रममें बम बनाना भी सीखा ।
२. क्रांतिकारी जीवन
२. क्रांतिकारी जीवन
८ अप्रैल, १९२९ को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभामें (वर्तमान का संसद भवन) भगत सिंहके साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्यकी अधिनायकताका विरोध किया । बम विस्फोट बिना किसीको हानी पहुंचाए केवल पर्चोंके माध्यमसे अपनी बातको प्रचारित करनेके लिए किया गया था । उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियोंको दबानेके लिए ब्रिटिश शासनकी ओरसे पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगोंके विरोधके कारण एक वोटसे पारित नहीं हो पाया ।
३. कारागृह जीवन
इस घटनाके पश्चात् बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंहको बंदी बनाया गया । १२ जून, १९२९ को इन दोनोंको आजीवन कारावासका दंड सुनाया गया । दंड सुनानेके उपरांत इनको लाहौर फोर्ट कारागृहमें भेजा गया । यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षडयंत्र अभियोग चलाया गया । उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशनका विरोध- प्रदर्शन करते हुए लाहौरमें लाला लाजपत रायको अंग्रेजोंके आदेशपर अंग्रेजी राजके सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई । अंग्रेजी राजके उत्तरदायी पुलिस अधिकारीको मारकर इस मृत्युका प्रतिशोध चुकानेका निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था ।
इस कार्यवाहीके परिणामस्वरूप लाहौर षडयंत्र अभियोग चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेवको फांसी दी गई थी । बटुकेश्वर दत्तको आजीवन कारावास काटनेके लिए काला पानी भेज दिया गया । कारागृहमें ही उन्होंने १९३३ और १९३७ में ऐतिहासिक भूख हडताल की । सेल्यूलर कारागृहसे १९३७ में बांकीपुर केंद्रीय कारागृह, पटनामें लाए गए और १९३८ में मुक्त कर दिए गए । काला पानीसे गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त पुनः बंदी बनाए गए और चार वर्षोंके पश्चात् १९४५ में मुक्त किए गए ।
बटुकेश्वर दत्त का जीवन भारत की स्वतंत्रता के उपरांत भी दंश, यातनाओं, और संघर्षों की गाथा बना रहा और उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वह अधिकारी थे । उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटीका एक छोटा सा उद्योगालय (कारखाना) खोला; परंतु उसमें बहुत हानि उठानी पडी और वह बंद करना पडा । कुछ समय तक यात्री (टूरिस्ट) प्रतिनिधि एवं बस परिवहन का काम भी किया; परंतु एक के पश्चात् एक कामोंमें असफलता ही उनके हाथ लगी ।
दत्त के जीवन के इस अज्ञात अंग का सारांश नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक (बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंहके सहयोगी) में हुआ है । अनिल वर्मा द्वारा लिखी गयी यह संभवत: पहली ऐसी पुस्तक है, जो उनके जीवनका प्रामाणिक संलेख (दस्तावेज) होनेके साथ-साथ स्वतंत्रता संघर्ष और स्वतंत्रता के पश्चात जीवन संघर्ष को उजागर करती है
बटुकेश्वर दत्त के १९६४ में अचानक व्याधिग्रस्त होने के पश्चात् उन्हें गंभीर स्थिति में पटना के शासकीय चिकित्सालय में भर्ती कराया गया । इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, ‘क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है । खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की चिंता नहीं की और जो फांसीसे बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थितिमें चिकित्सालयमें पडा एडियां रगड रहा है और उसे कोई पूछनेवाला तक नहीं है ।’
इसके पश्चात सत्ता के गलियारोंमें हडकंप मच गया और चमनलाल आजाद, केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाबके मंत्री भीमलाल सच्चर से मिले । पंजाब शासन ने एक सहस्र रुपए का धनादेश बिहार शासन को भेजकर वहां के मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को लिखा कि यदि वे उनका वैद्यकीय उपचार कराने में सक्षम नहीं हैं तो वह उनका दिल्ली अथवा चंडीगढ में वैद्यकीय उपचार का व्यय वहन करने को तत्पर हैं ।
बिहार शासन की उदासीनता और उपेक्षा के कारण क्रांतिकारी बैकुंठ नाथ शुक्ला पटना के शासकीय चिकित्सालय में असमय ही प्राण छोड चुके थे । अत: बिहार शासन क्रियाशील हो गयी और पटना वैद्यकीय महाविद्यालय में (मेडिकल कॉलेज) डॉ. मुखोपाध्याय ने दत्तका उपचार चालू किया; परंतु उनकी स्थिति बिगडती गयी; क्योंकि उन्हें सही उपचार नहीं मिल पाया था और २२ नवंबर १९६४ को उन्हें दिल्ली लाया गया ।
दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था, मैने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि, मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज बनकर स्ट्रेचर पर लाया जाऊंगा । उन्हें सफदरजंग चिकित्सालय में भर्ती किया गया । पीठ में असहनीय पीडा के उपचार में लिए किए जाने वाले कोबाल्ट ट्री
लाहौर षडयंत्र अभियोग के किशोरीलाल अंतिम व्यक्ति थे, जिन्हें उन्होंने पहचाना था । उनकी बिगडती स्थिति देखकर भगत सिंह की मां विद्यावती को पंजाब से कार से बुलाया गया । १७ जुलाई को वह कोमा में चले गये और २० जुलाई १९६५ की रात एक बजकर ५० मिनट पर दत्त बाबू इस संसार से विदा हो गये । उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छाके अनुसार, भारत-पाक सीमाके पास हुसैनीवालामें भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेवकी समाधिके निकट किया गया ।
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जलियांवाला के प्रतिशोधी ऊधमसिंह
ऊधमसिंह का जन्म ग्राम सुनाम ( जिला संगरूर, पंजाब) में 26 दिसम्बर, 1899 को सरदार टहलसिंह के घर में हुआ था। मात्र दो वर्ष की अवस्था में ही इनकी माँ का और सात साल का होने पर पिता का देहान्त हो गया। ऐसी अवस्था में किसी परिवारजन ने इनकी सुध नहीं ली। गली-गली भटकने के बाद अन्ततः इन्होंने अपने छोटे भाई के साथ अमृतसर के पुतलीघर में शरण ली। यहाँ एक समाजसेवी ने इनकी सहायता की।
19 वर्ष की तरुण अवस्था में ऊधमसिंह ने 13 अपै्रल, 1919 को बैसाखी के पर्व पर जलियाँवाला बाग, अमृतसर में हुए नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। सबके जाने के बाद रात में वे वहाँ गये और रक्तरंजित मिट्टी माथे से लगाकर इस काण्ड के खलनायकों से बदला लेने की प्रतिज्ञा की। कुछ दिन उन्होंने अमृतसर में एक दुकान भी चलायी। उसके फलक पर उन्होंने अपना नाम ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ लिखवाया था। इससे स्पष्ट है कि वे स्वतन्त्रता के लिए सब धर्म वालों का सहयोग चाहते थे।
ऊधमसिंह को सदा अपना संकल्प याद रहता था। उसे पूरा करने हेतु वे अफ्रीका से अमरीका होते हुए 1923 में इंग्लैंड पहुँच गये। वहाँ क्रान्तिकारियों से उनका सम्पर्क हुआ। 1928 में वे भगतसिंह के कहने पर वापस भारत आ गये; पर लाहौर में उन्हें शस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के आरोप में पकड़कर चार साल की सजा दी गयी। इसके बाद वे फिर इंग्लैंड चले गये। तब तक जलियांवाला बाग में गोली चलाने वाला जनरल डायर अनेक शारीरिक व मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर 23 जुलाई, 1927 को आत्महत्या कर चुका था; पर पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकेल ओडवायर अभी जीवित था।
13 मार्च, 1940 को वह शुभ दिन आ गया, जिस दिन ऊधमसिंह को अपना संकल्प पूरा करने का अवसर मिला। इंग्लैंड की राजधानी लन्दन के कैक्स्टन हॉल में एक सभा होने वाली थी। इसमें जलियाँवाला बाग काण्ड के दो खलनायक सर माइकेल ओडवायर तथा भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी अ१फ स्टेट लार्ड जेटलैंड आने वाले थे। ऊधमसिंह चुपचाप मंच से कुछ दूरी पर जाकर बैठ गये और उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।
माइकेल ओडवायर ने अपने भाषण में भारत के विरुद्ध बहुत विषवमन किया। भाषण पूरा होते ही ऊधमसिंह ने गोली चला दी। ओडवायर वहीं ढेर हो गया। अब लार्ड जैटलैंड की बारी थी; पर उसका भाग्य अच्छा था। वह घायल होकर ही रह गया। सभा में भगदड़ मच गयी। ऊधमसिंह चाहते, तो भाग सकते थे; पर वे सीना तानकर वहीं खड़े रहे और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया।
न्यायालय में वीर ऊधमसिंह ने आरोपों को स्वीकार करते हुए स्पष्ट कहा कि मैं पिछले 21 साल से प्रतिशोध की आग में जल रहा था। माइकेल ओडवायर और जैटलैंड मेरे देश भारत की आत्मा को कुचलना चाहते थे। इसका विरोध करना मेरा कर्त्तव्य था। इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा कि मैं अपनी मातृभूमि के लिए मर रहा हूँ।
ऊधमसिंह को 31 जुलाई, 1940 को पेण्टनविला जेल में फाँसी दे दी गयी। मरते समय उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा - 10 साल पहले मेरा प्यारा दोस्त भगतसिंह मुझे अकेला छोड़कर फाँसी चढ़ गया था। अब मैं उससे वहाँ जाकर मिलूँगा। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के 27 साल बाद 19 जुलाई, 1974 को उनके भस्मावशेषों को भारत लाया गया। पाँच दिन उन्हें जनता के दर्शनार्थ रखकर ससम्मान हरिद्वार में प्रवाहित कर दिया गया।
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भारत में Sunday की छुट्टी का कारण हमारे ज्यादातर लोग Sunday की छुट्टी का दिन Enjoy करने में लगाते है ।
उन्हें लगता है, की हम इस Sunday की छुट्टी के हक़दार है ।
क्या हमें ये बात का पता है,
की Sunday के दिन हमें
छुट्टी क्यों मिली ? और ये
छुट्टी किस व्यक्ति ने हमें
दिलाई ? और इसके पीछे उस महान व्यक्ति का क्या मकसद
था ? क्या है इसका इतिहास ?
की Sunday के दिन हमें
छुट्टी क्यों मिली ? और ये
छुट्टी किस व्यक्ति ने हमें
दिलाई ? और इसके पीछे उस महान व्यक्ति का क्या मकसद
था ? क्या है इसका इतिहास ?
साथियों, जिस व्यक्ति की वजह से हमें ये छुट्टी हासिल हुयी है, उस महापुरुष का नाम है
"नारायण मेघाजी लोखंडे" ।
"नारायण मेघाजी लोखंडे" ।
"नारायण मेघाजी लोखंडे" ये जोती राव फुले जी के सत्यशोधक आन्दोलन के कार्यकर्ता थे । और कामगार नेता भी थे ।
अंग्रेजो के समय में हफ्ते के सातों दिन मजदूरो को काम करना पड़ता था ।
लेकिन नारायण मेघाजी लोखंडे जी का ये मानना था की, हफ्ते में सात दिन हम अपने परिवार के लिए काम करते है ।
लेकिन जिस समाज की बदौलत हमें नौकरिया मिली है, उस समाज की समस्या छुड़ाने के लिए हमें एक दिन छुट्टी मिलनी चाहिए ।
उसके लिए उन्होंने अंग्रेजो के सामने 1881 में प्रस्ताव रखा ।
लेकिन अंग्रेज ये प्रस्ताव मानने के लिए तयार नहीं थे ।
लेकिन अंग्रेज ये प्रस्ताव मानने के लिए तयार नहीं थे ।
इसलिए आख़िरकार नारायण मेघाजी लोखंडे जी को इस Sunday की छुट्टी के लिए 1881 में आन्दोलन करना पड़ा ।
ये आन्दोलन दिन-ब-दिन बढ़ते गया ।
लगभग 8 साल ये आन्दोलन चला ।
आखिरकार 1889 में अंग्रेजो को Sunday की छुट्टी का ऐलान करना पड़ा ।
ये है इतिहास ।
क्या हम इसके बारे में जानते हैं ?
अनपढ़ लोग छोड़ो लेकिन क्या पढ़े लिखे लोग भी इस बात को जानते है ?
जहाँ तक हमारी जानकारी है, पढ़े लिखे लोग भी इस बात को नहीं जानते ।
अगर जानकारी होती तो Sunday के दिन Enjoy नहीं करते.... समाज का काम करते.... और अगर समाज का काम ईमानदारी से करते तो समाज में भुखमरी, बेरोजगारी, बलात्कार, गरीबी, लाचारी ये समस्या नहीं होती ।
साथियों, इस Sunday की छुट्टी पर हमारा हक़ नहीं है, इसपर "समाज" का हक़ है ।
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